Monday, December 13, 2010

कुशासन की बानगी

राज्यों के लोक सेवा आयोगों के बारे में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की तीखी टिप्पणी कुशासन की उस तस्वीर को उजागर करती है जिसकी ओर आम आदमी का ध्यान मुश्किल से ही जाता है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश जीएस सिंघवी ने यह पाया कि राज्यों के लोक सेवा आयोग न केवल मुख्यमंत्रियों की निजी जागीर बन गए हैं, बल्कि यह भी महसूस किया कि उनमें अयोग्य और दागी लोगों को नियुक्त किया जा रहा है। इसका दुष्परिणाम केवल यह नहीं है कि नौकरियों में अनियमितताओं के मामले बढ़ रहे हैं और उनके चलते मुकदमों की बाढ़ सी आ गई है, बल्कि यह है कि जानबूझकर बड़ी संख्या में अक्षम लोगों को नौकरियां बांटी जा रही हैं। स्पष्ट है कि राज्यों के लोक सेवा आयोग भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं। इस संदर्भ में झारखंड के हालिया उदाहरण की अनदेखी नहीं की जा सकती। यहां के लोक सेवा आयोग ने एक बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल करार दिया जो नितांत अक्षम थे। चूंकि इनमें से ज्यादातर नेताओं और नौकरशाहों के परिजन थे इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि उन्होंने आपस में मिल बांटकर अपने सगे-संबंधियों को नौकरियां प्रदान कर दीं। यह ठीक है कि इस मामले की जांच हो रही है, लेकिन यह कहना कठिन है कि झारखंड लोक सेवा आयोग की साख को जो क्षति पहुंची और आम लोगों का उस पर से भरोसा उठा वह पुन: कायम हो सकेगा। एक अन्य उदाहरण खुद न्यायाधीश सिंघवी ने दिया। उनके अनुसार पंजाब में लोक सेवा आयोग के एक सदस्य हैं जिनके खिलाफ हत्या का मुकदमा चल रहा है। ध्यान रहे कि कुछ वर्ष पहले पंजाब लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे पाए गए थे। चूंकि अन्य अनेक राज्यों के लोक सेवा आयोगों के अध्यक्ष और सदस्यों पर गंभीर आरोप लग चुके हैं इसलिए न्यायमूर्ति सिंघवी की टिप्पणी पर यकीन न करने का कोई कारण नहीं। इसमें संदेह है कि उनकी एक कठोर टिप्पणी मात्र से मुख्यमंत्री चेतेंगे और लोक सेवा आयोग में अक्षम लोगों की नियुक्तियों का सिलसिला थमेगा। आज के दौर में ऐसी टिप्पणियां हलचल तो पैदा करती हैं, लेकिन उनके कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आते। बेहतर होगा कि ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण किया जाए जिससे राज्यों के लोक सेवा आयोग मुख्यमंत्रियों के चंगुल से मुक्त हों। यह सही समय है जब राज्यों के लोक सेवा आयोगों को उनकी उन अनियमितताओं के लिए जवाबदेह बनाया जाए जिनके चलते मुकदमेबाजी होती है अथवा योग्य अभ्यर्थियों को उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। इसका कोई औचित्य नहीं कि अनियमितताएं मुख्यमंत्रियों अथवा उनके द्वारा नियुक्त व्यक्तियों की ओर से हों और उसके दुष्परिणाम न्यायपालिका को भुगतने पड़ें। एक ऐसे समय जब न्यायपालिका पहले से ही लंबित मुकदमों के बोझ से दबी हुई है तब इसका कोई औचित्य नहीं कि राज्य लोक सेवा आयोगों की मनमानी के चलते अनावश्यक मुकदमों की संख्या बढ़े। हमारे नीति-नियंताओं को न्यायमूर्ति सिंघवी के इस सुझाव पर गौर करना चाहिए कि नौकरी से जुड़े मामलों की अदालतों में बाढ़ से बचने के लिए एक आंतरिक तंत्र विकसित किया जाना चाहिए।
साभार:_दैनिक जागरण १३-१२-२०१०

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