Saturday, December 11, 2010

राम अब लीगल हो गए हैं।

कोई भी फ़ैसला मुकम्मल नहीं हो सकता न ही कोई समीक्षा हो सकती है। परिवार में भाइयों के बीच जिस तरह ज़मीन का बंटवारा होता है,उसी तरह का बंटवारा है। बेहतर है तीनों छिट-पुट मनमुटावों के साथ-साथ एक व्यापक सहमति के साथ जीना सीख लें। उसी तरह जैसे गांव में बंटवारे के बाद भी तीनों भाई एक ही साथ अपने बच्चे का रिश्ता करने जाते हैं। उन्हें मालूम होता है कि तीनों भाइयों में दामाद को लेकर एक किस्म की प्रतिस्पर्धा होती है,फिर भी वो एक चौकी पर बैठे होते हैं, बताने के लिए कि हमारा परिवार कितना महान है। यह सब कुछ सिर्फ नौटंकी नहीं होती। कुछ रिश्ते तो फिर भी बचे ही रह जाते हैं जिसके नाम पर हम चाचा को प्रणाम करते हैं और बड़ी मां का दिया हुआ खा लेते हैं। जानते हुए कि बंटवारे के वक्त ज़मीन के एक कतरे को लेकर किस तरह से नरक रच दिया गया था। हिन्दुस्तान में हर दिन किसी न किसी का परिवार ज़मीन के टुकड़ों में बंटता है। फिर भी रिश्ते बचे रह जाते हैं। झगड़े चलते रहते हैं। यह हिन्दुओं में भी होता है और मुसलमानों में भी।

यह फ़ैसला इसी नज़ीर को आगे बढ़ाता है। ज़मीन तो सबको मिलेगी। कोई इसे पंचायत का फैसला बता कर खारिज कर सकता है। इसका फैसला पंचायती शक्ल में ही हो सकता था। कोई इसे यह कह कर भी खारिज कर सकता है कि आस्था पर अदालत का फैसला आया है। इसके परिणाम ज़रूर अच्छे नहीं होंगे। मगर इस फैसले को इसी मुकदमे के संदर्भ में रखकर सोचा जाना चाहिए। क्या हम यह मानकर चलते हैं कि अदालतें नास्तिक हैं। वो सिर्फ कानून पर चलती हैं। कानून कैसे बनता है? परंपराओं और परंपरा विरोधी दलीलों के बीच चलने वाले द्वंद से। जिसमें दोनों का पलड़ा भारी होता रहता है। यही हुआ। सेवानिवृत जस्टिस शर्मा ने अपनी ब्राह्मणवादी व्याख्या में पूरी ज़मीन राम को देने की बात लिखी है। मगर मानी नहीं गई। अगर उनके अनुसार फैसला आता तो मैं भी ब्रह्मा का बालसखा बनकर पूरी कायनात या नहीं तो कम से कम भारत पर दावा कर देता कि ये मुल्क किसी और का नहीं सिर्फ और सिर्फ ब्रह्मा का है। जो सृष्टि के रचयिता हैं। मैं उसी ब्रह्मा का मित्र हूं। ये और बात है कि कोई सृष्टि के रचयिता को पूछता तक नहीं। सब उनकी सृष्टि को टुकड़ों-टुकड़ों में बांट कर अपने-अपने हिस्से करने में लगे हैं। फिर भी एक बार सोचकर खुश हो गया कि वाह पूरा भारत मेरा। एक किसिम की ईस्ट इंडिया कंपनी बन जाता है। पोप्रटी डीलरों और बिल्डरों की एक नई सेना बनाकर उसका सुप्रीम कमांडर बन जाता। पूरे भारत में मेरी होर्डिंग लगी होती। ब्रह्मा सखा रवीश कुमार के मुल्क में एक घर आपका भी हो सकता है। टू बीएचके,थ्री बीएचके। इस फैसले के बाद मैं राम रूट बनवाना चाहता हूं। अयोध्या से श्रीलंका तक का एक्सप्रेस वे।

मुद्दे की आलोचनाओं से यह कहां साबित होता है कि पदों पर बैठे लोग धार्मिक नहीं हैं। उनकी सोच धार्मिक तत्वों से भी प्रभावित होती हैं। हमने ऐसा समाज तो रचा ही नहीं है। जब तक ऐसा समाज नहीं बनेगा तब तक मान्यताएं हमें अब अदालत की दहलीज़ से भी आदेश लेकर मनवाती रहेंगी। हमें जल्दी से याद भी कर लेना चाहिए कि यहीं वो अदालतें भी हैं जो कई बार मान्यताओं के ख़िलाफ़ भी खड़ी होती रही हैं। ईश्वर का वजूद शायद पहली बार किसी अदालत से तय हुआ होगा। यह चौरासी हज़ार देवी-देवताओं के लिए राहत की बात है। जल्दी से इनकी भी जनगणना कराकर एक सूची जारी कर देनी चाहिए ताकि हम बाद में पैदा होने वाले भगवानों को खारिज करते रहे। तीनों जजों ने राम की लाज रख ली। अब यह तय हो गया था कि भगवान राम एक जगह पर पैदा हुए थे। राम का वजूद लीगल हो गया। संघ परिवार कह सकता है कि राम सांस्कृतिक प्रतीक तो हैं ही,कानूनी भी हैं। जल्दी से अदालत सरकार से यह भी करे कि वो पूरी अयोध्या में खुदाई कर पता लगाए कि राम कहां-कहां खेले, स्वंयवर कहां हुआ और दशरथ ने दम कहां तोड़ा। इन सब का मंदिरनुमा स्मारक बनना चाहिए। पहली बार कोई भगवान लीगल हुए है तो जश्न में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए।

कहीं हम यह मान कर तो नहीं चल रहे थे कि फैसला एक तरफा आयेगा। हिन्दुओं की तरफ या मुसलमानों की तरफ। क़ब्ज़ा मुखालिफ़त का कानून तो पहले से विराजमान है। तमाम तरह के लोग मकान मालिकों के घरों में इसी दलील के दम पर घुसे पड़े हैं और पांच- पांच रुपये में रह रहे हैं। हिन्दू भी और मुसलमान भी। जब हम आस्था के नाम पर सरकार से साल में दस-दस छुट्टियां ले सकते हैं तो सरकार उसके नाम पर फैसला भी करवा सकती है। समाज खुद को भी तो इस किस्म के दोहरेपन से मुक्त करें। ठीक है कि साफ नहीं कि मुसलमानों को किस हिस्से की ज़मीन मिलेगी लेकिन जो भी ज़मीन मिलेगी वो होगी तो वहीं की और उन्हीं की। कोई सोने का मंदिर बना ले और चाहे तो कोई हीरे की मस्जिद।

बीजेपी यह राजनीति ज़रूर कर रही है कि मुसलमान सहयोग करें। भई अब मुसलमान क्या सहयोग करे। आपको ज़मीन मिली है और आप अपनी ज़मीन पर बनाइये। दूसरे की ज़मीन की बात क्यों कर रहे हैं। सहयोग की राजनीति के बहाने क्या आप यह कह रहे हैं कि मुसलमान अपना दावा छोड़ दें। वो दावा छोड़ेगा तभी राष्ट्रीय एकता का पुनर्निमाण होगा। इस देश में धर्मनिरपेक्षता का इम्तहान मुसलमान ही क्यों दे? बीजेपी क्यों नहीं ज़मीन दान कर देती है कि लो भाई तुम दुखी हो तो हमारे राम को ले लो। खुश रहो। बीजेपी किस दलील के दम पर कह रही हैं कि मंदिर के निर्माण से राष्ट्रीय एकता का पुनर्निमाण होगा। आप क्या हमें यह बता रहें हैं कि तीस सितंबर से पहले हम किसी किस्म के राष्ट्रीय एकता के माहौल में जी ही नहीं रहे थे। जो एकता अभी है उसके पुनर्निमाण की ज़रूरत क्या है। मंदिर राष्ट्रीय एकता का प्रतीक कैसे हो सकता है? अव्वल तो बीजेपी को फैसले की शाम बैठकर प्रतिक्रिया ही नहीं देनी चाहिए थी। रविशंकर प्रसाद छद्म धर्मनिरपेक्षों को गरियाने लगे। अरे भाई आप भी तो छद्म राष्ट्रवादी हैं। आपकी पार्टी में जब रेड्डी बंधु जैसे देशभक्त हैं तो फिर छद्म धर्मनिरपेक्षों को क्यों गरिया रहे हैं। रेड्डियों और मुंडाओं और सोरेने से कर लीजिए न राष्ट्रीय एकता का पुनर्निमाण।

नरेंद्र दामोदर मोदी तो गुजरात की जनता को शांति के लिए धन्यवाद देने लगे। उसी शाम को धन्यवाद देना था इनको। आकर यूपी में देख लेते। प्रशासन की सख्ती के आगे किसी भी जनता की हिम्मत नहीं हुई कि बाहर निकर आ जाएं। मायावती के अफसर देर रात तक अपने अपने विभागों की लाल बत्ती वाली गाड़ियां लेकर घूमते रहे। ठीक है कि कुछ हिन्दू जनता को लगा कि चलो उनकी आस्था की बात रह गई लेकिन आप देखेंगे कि आम हिन्दू(सवर्ण) भी उत्तेजित नहीं है। वो अपने घरों में ही रहा। वर्ना कर्फ्यू को तोड़ने के लिए पब्लिक सड़क पर तो निकल ही आती है न। वो भी जानती है कि ये मुद्दा मंदिर भर तक है। बीजेपी और संघ परिवार ने अयोध्या मुद्दे की एटीएम मशीन से नगद पहले ही निकाल कर खर्च कर लिया है। इसी तरह की प्रतिक्रिया मुस्लिम इलाकों में भी है। उन्हें दुख ज़रूर पहुंचा है मगर कोई पहाड़ नहीं टूटा है। फैसले से पहले पंद्रह दिनों तक पुरानी दिल्ली में टहलता रहा। सब यही कहते थे कि क्या फैसले से पहले वहां अस्पताल नहीं बन सकता। स्कूल बनवा दीजिए। उनकी भी लिस्ट में मस्जिद नहीं थी। फैसले के बाद मौलाना देहलवी ने फोन कर कहा कि भाई अब इस मुद्दे को छोड़ देना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट नहीं जाना चाहिए। फैसले के अगले दिन लखनऊ एयरपोर्ट पर जेद्दा की फ्लाईट लेने के लिए बड़ी संख्या में मस्लिम परिवार आए थे। सब एक दूसरे को बिछड़ने के गम के साथ विदा कर रहे थे। कोई फैसले की बात नहीं कर रहे थे। एक सज्जन से पूछा तो मेरा सवाल रोक कर शमशाद को कहने लगे कि पासपोर्ट बनवा लेना। पलट कर कहा कि भाई अदालत का फैसला है। हम मानेंगे। हमें मंजूर नहीं हो तब भी मानेंगे। वाकई यह एक परिपक्व दौर है।

हाशिम अंसारी की प्रतिक्रिया के बराबर क्या किसी बीजेपी नेता की प्रतिक्रिया आपने सुनी? एक सदी के लगभग उनकी उम्र होने को आई। यह मुकदमा उनसे सिर्फ पैंतालीस साल ही तो छोटा है। फैसले के दिन पूरी मीडिया ने कटियार,आदित्यनाथ और कल्याण सिंह जैसे नेताओं पर रोक लगा रखी थी। इनको किसी ने पूछा ही नहीं। वो भी समझ गए हैं कि मंदिर मुद्दा नहीं है। अठारह साल पहले ही यह मुद्दा ध्वस्त हो गया था। बस कहने के लिए एक मुद्दा मिल रहा है कि देखो हम ठीक कहते थे। हमारी लड़ाई अदालत से साबित हुई है। कुछ चिरकुट लोग यह भी बता रहे थे कि भारत आगे बढ़ना चाहता है। वो ऐसे मुद्दों के भंवर में नहीं फंसेगा। ये लोग भारत को नहीं जानते। भारत जब 92 के बाद हुए दंगों और गुजरात के भयावह दंगों के बाद भी आगे बढ़ सकता है तो किसी फैसले से उसके आगे बढ़ने के टाइप्ड ड्रीम पर असर नहीं पड़ने वाला था।

अगर आप यह बतानें लगें कि भारत ब्राह्मणवादी नहीं रहा है तो नहीं मानूंगा। इस फैसले ने भी साबित किया है कि धर्म की व्याख्या इस देश में ब्राह्मणवादी ही होगी। गनीमत है कि राजनीतिक रूप से नहीं हो सकती वर्ना दलितो का उभार ठीक उसी वक्त नहीं होता जब देश में राम भक्तों का सियासी जलवा कायम हो रहा था। बेहतर है इस फैसले की संयमित राजनीतिक प्रतिक्रिया हो। उत्तेजित नहीं। दरअसल बात सिर्फ बीजेपी की नहीं है। सभी दलों में ऐसे कमज़ोर पक्ष हैं। उन्हें मालूम है कि कुछ कमज़ोरी और गलतियों के बाद भी उनका वजूद बना हुआ है। कांग्रेस हो या बीजेपी या फिर कोई भी सियासी दल,ये सब राष्ट्रीय एकता के कब ठेकेदार बन जाते हैं और कब धर्मनिरपेक्षता और तुष्टीकरण के वकील सबको मालूम है।

न धर्मनिरपेक्षता कमज़ोर हुई है न सांप्रदायिकता। इस गफ़लत में न रहें तो अच्छा होगा। देखना है तो हिन्दी के अखबारों की हेडलाइन्स देख लीजिए। नई दुनिया ने लाल लाल हेंडिंग लगाई और लिखा कि- वहीं रहेंगे रहेंगे रामलला। दैनिक जागरण ने लिखा- विराजमान रहेंगे रामलला। अमर उजाला- रामलला विराजमान रहेंगे। दैनिक भास्कर- भगवान को मिली भूमि। हिन्दुस्तान- मूर्तियां नहीं हटेंगी, ज़मीन बटेंगी। राष्ट्रीय सहारा- तीन हिस्सों में बांटी जाएगी ज़मीन। नवभारत टाइम्स ने लिखा- किसी एक की नहीं अयोध्या। राजस्थान पत्रिका की हेडिंग सबसे अच्छी थी-राम वहीं,पास में रहीम। छाती पीटने की ज़रूरत नहीं हैं। जैसा कि मैंने कहा कि कोई भी फैसला मुकम्मल नहीं होता और न ही उसकी समीक्षा। मुग़ल-ए-आज़म का डॉयलॉग याद आ गया- शहंशाहों के इंसाफ और ज़ुल्म में कितना कम फर्क होता है। टेंशन मत लीजिए।
57 comments
साभार:-क़स्बा ब्लॉग

No comments: