Monday, December 13, 2010

एक ऐतिहासिक अवसर

भ्रष्टाचार के खिलाफ कठिन से कठिन कदम उठाने के लिए उपयुक्त माहौल बनता देख रहे हैं जगमोहन सिंह राजपूत

भारतीय लोकतंत्र ने स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रारंभिक वर्षो में विश्व भर में अपनी गहरी होती जड़ों के लिए प्रशंसा प्राप्त की थी। तब स्वतंत्रता संग्राम के तपे और त्यागी व्यक्तित्व के मनीषी राजनीति में प्रवाह की निरंतरता में आए और उन्होंने अपने सिद्धांत तथा मूल्य नहीं बदले। जवाहरलाल नेहरू का इस सबमें महत्वपूर्ण योगदान था। उनके अनेक निर्णयों तथा नीतियों के आलोचक भी इसे स्वीकार करते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री पद की गरिमा स्थापित करने में कोई कसर नहीं रखी। इधर वर्तमान प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व के अनेक पक्षों की सराहना करने वाले बड़ी दुविधा में रहे हैं। देश की बागडोर हाथ में रखने वाले व्यक्ति की अपनी ईमानदारी ही क्या उसकी श्रेष्ठता का मापदंड बन सकती हैं? क्या वह बड़े-बड़े घोटालों, जनता के कोष का अपव्यय तथा पद के अधिकारों, कर्तव्यों तथा गरिमा से रंच मात्र भी समझौता कर सकता है? एक उदाहरण नरसिंह राव केप्रधानमंत्री काल का है। झारखंड मुक्ति मोर्चा द्वारा उनकी सरकार कैसे बची तथा सांसद निधि का प्रावधान करने के कारण सरकारी तथा आधिकारिक स्तर पर कुछ भी हो, वास्तविकता से सभी परिचित हैं। मई 2009 में जब नए मंत्रिमंडल का गठन हो रहा था। देश ए। राजा के नाम तथा काम से परिचित हो चुका था। संचार माध्यमों से लोगों ने यह भी जाना कि प्रधानमंत्री उन्हें मंत्रिमंडल में न तो लेना चाहते थे और उन्हें दूरसंचार मंत्रालय तो कतई नहीं देना चाहते थे। यह प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व, पद की गरिमा तथा सामान्यजन की अपेक्षा के अनुरूप था। अपने मंत्रिमंडल में मंत्रियों का चयन तथा विभागों का वितरण केवल प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार होता है। इस प्रक्रिया में किसी भी तरह से दबाव डाला जाना असंवैधानिक तथा अनैतिक है और यदि वह स्वीकार कर लिया जाता है (स्वेच्छा से या मजबूरी में) तब तो और अधिक निराशा की ही नहीं, हताशा की स्थिति बनती है। मई 2009 में राजा का मंत्रिमंडल में आना, अपनी इच्छानुसार विभाग संभालना प्रजातांत्रिक प्रक्रिया के कमजोर होने का चिंताजनक उदाहरण था। प्रधानमंत्री पद की गरिमा घटी तथा मनमोहन सिंह की छवि को भी आंच आई। अंतत: राजा ने इस्तीफा दिया। इस्तीफा तो अशोक चह्वाण तथा एक पार्टी पद से सुरेश कलमाड़ी ने भी दिया है। अशोक चह्वाण ने कहा कि जांच होने तक के लिए वह अलग हुए हैं, राजा के समर्थक भी कह रहे हैं कि वह निर्दोष हैं तथा वापस आएंगे। कलमाड़ी स्वीकार ही नहीं करते हैं कि कुछ भी गलत हुआ है। आज संविधान के वायदों और निहितार्थो तथा प्रजातंत्र की वास्तविकताओं तथा व्यवहार में जो अंतर भयावह रूप से हर भारतीय के सामने आकर खड़ा हो गया है उससे अब और आंख मूंदना देश के लिए घातक होगा। जब देश राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श सोसाइटी, टेलीकॉम घोटाले पर सारा ध्यान केंद्रित करता है तब वास्तविक राष्ट्रीय प्राथमिकताएं कहीं दूर पीछे छूट जाती हैं। भूखे लोग, कुपोषित बच्चे, कागजों पर चलते स्कूल, जबर्दस्त धन उगाहते प्राइवेट संस्थान आखिर प्राथमिकता सूची में कहां हैं? 60 प्रतिशत युवा विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में आने के आमंत्रण दिए जा रहे हैं। हमारे अपने विश्वविद्यालयों की स्थिति में सुधार की केवल घोषणाएं होती हैं। 15-20 प्रतिशत भारतीयों, बच्चों तथा युवाओं के लिए इंडिया शाइनिंग, इमर्जिग इंडिया, इकनामिक पावर इंडिया जैसे जुमले सार्थक है। बाकी के लिए योजनाएं, घोषणाएं तथा वायदे हैं। इस स्थिति का घोटालों, भ्रष्टाचार तथा कदाचार से कितना संबंध है या नहीं है, इस पर चर्चा देश भर में आवश्यक है। राव का झारखंड मोर्चे के साथ सरकार बचाना, पर मनमोहन सिंह का मई 2009 में राजा को मंत्रिमंडल में अपनी इच्छा के विपरीत रखना जैसे प्रकरण देश के सामने अब बड़े सैद्धांतिक मुद्दे के रूप में उभरे हैं। क्या सत्ता में बने रहने के लिए प्रजातंत्र के नाम पर सिद्धांतों, मूल्यों तथा सामान्यजन की अपेक्षाओं को नजरअंदाज करना स्वीकार्य हो सकता है? पिछले दशकों में जो कुछ हुआ है उसका प्रभाव कहां-कहां नहीं पड़ा है? उसका प्रभाव व्यवस्था के हर अंग पर पड़ा है, हर व्यक्ति पर पड़ा है और इस सबसे अधिक चिंताजनक है कि इसका प्रभाव स्कूलों, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में बच्चों तथा युवाओं पर पड़ा है। वहां की कार्यसंस्कृति बदल गई है, मानवीय मूल्यों की आवश्यकता पर जोर कम हुआ है। उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों को लोग कई बार अपना नायक मान लेते हैं। जब वे नई पीढ़ी के प्रति अपने कर्तव्यों के पालन में कोताही बरतते हैं, पद पर अशोभनीय कृत्य करते हैं तब नई पीढ़ी की राह कठिन हो जाती है। उन्हें ऐसा क्षेत्र तथा व्यक्ति ढूंढने में कठिनाई होती जिसको वह अनुकरणीय मानें। वे यह भी जानते हैं कि व्यवस्था में कोई काम कराना हो या उसका अंग बनना हो तो बीच में इतने गति अवरोधक आते हैं कि उन्हें पार करने के लिए उन तत्वों की शरण में जान पड़ता है जहां मानवीयता तथा मानव मूल्यों का कोई महत्व नहीं होता है। राजा प्रकरण ने देश को अनावश्यक कष्ट दिया है। राजा, अशोक चह्वाण या कलमाड़ी बड़ी सूची के अंग हैं। केवल इस्तीफा देकर वे न्यायिक प्रक्रिया से अलग नहीं हो सकते हैं। लोगों का विश्वास लगातार क्षीण हो रहा है। आज देश के सामने एक अभूतपूर्व अवसर आया है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध इतना देशव्यापी आक्रोश तथा व्यक्त आक्रोश पहले कभी नहीं देखा गया। इस भ्रष्टाचार का उन्मूलन करने में कठिन से कठिन कदम उठाने का साहस दिखाने का समय आ गया है। लोग उस व्यक्ति के साथ खड़े होने को उत्सुक तथा तैयार हैं जो यह साहस दिखा सकें। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण १३-१२-२०१०

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