कांग्रेस पर राजनीतिक नैतिकता और शुचिता को ताक पर रख देने का आरोप लगा रहे हैं बलबीर पुंज
सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बावजूद 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सरकार मौन है। घोटाले की संयुक्त संसदीय दल से जांच कराने की मांग सरकार द्वारा ठुकराए जाने से संसद ठप है। वहीं सर्वोच्च न्यायालय की आपत्ति के बावजूद मुख्य सतर्कता आयुक्त पी।जे. थॉमस अपने पद पर बने हुए हैं। दूरसंचार मंत्रालय में सचिव रहे थॉमस घोटाले के सहभागी या मूकदर्शक हैं या नहीं, उससे महत्वपूर्ण बात यह है कि घोटाले की जांच कर रही सीबीआई के निगहबान बने रहने का उन्हें नैतिक अधिकार कतई नहीं है। उस पर तुर्रा यह है कि सरकार शीर्ष स्तर पर पारदर्शिता और शुचिता होने का दावा करती है। कांग्रेस विपक्षी दलों के विरोध को अनावश्यक हड़बोंग बताकर मामले को हलका साबित करना चाहती है। कांग्रेस के प्रवक्ता संपूर्ण विपक्ष को माओवादियों का एजेंट बताते हैं। अभी कुछ समय पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक केएस सुदर्शन की एक अवांछित टिप्पणी को लेकर कांग्रेस सहित सेक्युलर मीडिया ने सार्वजनिक जीवन में संयम और मर्यादा का प्रश्न खड़ा किया था, किंतु आश्चर्य है कि कांग्रेसी प्रवक्ता की इस अमर्यादित टिप्पणी पर वे मौन हैं। क्यों? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर की गई टिप्पणी संघ परंपरा के खिलाफ थी। इसी कारण संघ और भाजपा ने उससे दूरी बनाने में देर नहीं की, परंतु क्या सार्वजनिक जीवन में संवाद की मर्यादा बनाए रखने की जवाबदेही से कांग्रेस और सेक्युलर परिवार के अन्य सदस्य मुक्त हैं? क्या एकतरफा संयम से सार्वजनिक जीवन में संवाद की गरिमा को सुरक्षित रखा जा सकता है? कांग्रेस के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री राहुल गांधी ने कुछ दिन पूर्व संघ को आइएसआइ संचालित सिमी के समकक्ष बताया। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने संघ की तुलना लश्करे-तैयबा से की। संघ की तुलना सिमी या लश्करे-तैयबा से करने और भाजपा सहित सभी विपक्षी दलों को माओवादियों का एजेंट कहने पर क्या सार्वजनिक जीवन की मर्यादाएं नहीं टूटतीं? यह दोहरापन क्यों? वस्तुत: सत्ता तंत्र के दम पर विपक्ष का दमन करना कांग्रेस का इतिहास रहा है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में आपातकाल का दौर एक काला अध्याय है। उस दौरान लोकनायक जयप्रकाश नारायण सहित जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं को राजद्रोही बताया गया था। जयप्रकाश नारायण सहित विपक्ष के तमाम नेता और संघ के कार्यकर्ता जेल में बंद कर दिए गए थे। इतिहास गवाह है कि जब-जब निरंकुशवादी कांग्रेस को अपनी कुर्सी खतरे में दिखी है, उसने राष्ट्रहित को ताक पर रख अवसरवादी राजनीति का सहारा लिया और राष्ट्रवादी तत्वों को हाशिए पर डालने के लिए उन पर मिथ्या आरोप लगाए। महात्मा गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के लिए आज भी संघ को समय-समय पर कलंकित किया जाता है। उनकी हत्या के बाद गठित न्यायिक आयोगों और न्यायपालिका ने संघ को बेदाग बताया, किंतु उनकी हत्या के 62 साल बीत जाने के बाद भी कांग्रेस के पदाधिकारी संघ पर महात्मा गांधी की हत्या का आरोप लगाते हैं। गुजरात की जनता पिछले तीन विधानसभा चुनावों में बार-बार राज्य की कमान नरेंद्र मोदी को सौंपती आ रही है, किंतु कांग्रेस समेत सेक्युलर दल उन्हें मौत का सौदागर पुकारते हैं। नरेंद्र मोदी का चरित्र हनन करने के लिए स्वयंभू मानवाधिकार संगठनों का वित्त और वृत्ति पोषण सेक्युलरिस्ट करते हैं। क्यों? नरेंद्र मोदी के खिलाफ चलाए गए दुष्प्रचार अभियान की वीभत्सता पिछले कुछ समय से सामने आने लगी है। सेक्युलर कहलाने वाले मानवाधिकारियों और राजनीतिक गिद्धों के दुष्प्रचार के बाद गोधरा नरसंहार की प्रतिक्रिया में भड़के गुजरात दंगों की कथित निष्पक्ष जांच के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल (एसआइटी) ने नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दे दी है। एसआइटी ने गुलबर्ग दंगा मामले में मुख्यमंत्री या उनके कार्यालय के संलिप्त होने से साफ इंकार कर दिया है। दंगे में मारे गए कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी ने हालांकि अपने बयान में मुख्यमंत्री के शामिल होने की बात नहीं की थी, किंतु दंगा पीडि़तों के नाम पर राजनीतिक दलों के वैरशोधन अभियान में शामिल सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की ओर से न्यायालय में दाखिल शपथनामे में यह आरोप लगाया गया था कि सांसद की पत्नी के लाख अनुनय-विनय के बावजूद मुख्यमंत्री और उनका कार्यालय तटस्थ बना रहा और उनके समर्थन से स्थानीय प्रशासन ने बलवाइयों को खुली छूट दी। जून, 2003 में जब वड़ोदरा की अदालत ने बेस्ट बेकरी कांड के आरोपियों को बरी कर दिया था, तभी से सेक्युलर राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता मुख्य गवाहों को बरगलाकर झूठ के दम पर गुजरात सरकार और नरेंद्र मोदी को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करते आ रहे हैं। तीस्ता सीतलवाड़ के संरक्षण में उक्त फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई गई। सर्वोच्च न्यायालय ने तब मामले की सुनवाई गुजरात से बाहर करने का आदेश दिया था, किंतु इसके थोड़े ही दिनों बाद स्वयं बेस्ट बेकरी की जाहिरा ने तीस्ता सीतलवाड़ पर अपहरण और मानसिक दबाव डालने का आरोप लगाया था, बावजूद इसके सेक्युलरिस्टों का तीस्ता प्रेम टूटा नहीं। गुजरात दंगों की जांच कर रहे विशेष जांच दल के प्रमुख और सीबीआई के तत्कालीन संयुक्त निदेशक ने तीस्ता की कार्यप्रणाली पर गंभीर आपत्ति दर्ज करते हुए अदालत को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि वादी द्वारा लगाए गए वीभत्स आरोप (एक गर्भवती मुस्लिम महिला के साथ सामूहिक दुष्कर्म के बाद तलवार से उसका पेट चीर डाला गया) झूठे हैं। इन सबके बावजूद नरेंद्र मोदी और भाजपा को कलंकित करने की मुहिम बंद नहीं हुई। सेक्युलरिस्टों के उत्साहवर्द्धन में काम कर रहीं तीस्ता सीतलवाड़ को गुजरात दंगों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाने का दोषी पाया गया है, जिस पर अदालत ने गहरी नाराजगी व्यक्त की है। गवाहों की सुरक्षा के संबंध में विशेष जांच दल को लिखी अपनी चिट्ठी की एक प्रति तीस्ता ने जिनेवा स्थित अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन को भी भेजी है। क्या तीस्ता को गुजरात की न्यायपालिका के बाद अब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित विशेष जांच दल पर भी भरोसा नहीं रहा? कहीं इसका कारण यह तो नहीं कि उनका झूठा अभियान अब जनता के सामने नंगा होने लगा है? राजनीतिक वैरशोधन के लिए ऐसे संगठनों के दुष्प्रचार और ओछे हथकंडों को पोषित करना कांग्रेस का सेक्युलर आतंकवाद नहीं तो और क्या है? (लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं) साभार:-दैनिकजागरण 07-१२-२०१०
भ्रष्टाचार के बुनियादी मुद्दे पर समूचे राजनीतिक वर्ग के रवैये को निराशाजनक मान रहे हैं संजय गुप्त
संसद का शीतकालीन सत्र 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के कारण जिस तरह पिछले 15 दिनों से बाधित है वह अपने आप में एक अभूतपूर्व संसदीय घटनाक्रम है। संसद के दोनों सदनों में कोई कामकाज नहीं हो पा रहा है और जो हो भी रहा है वह शोर-शराबे के बीच कामचलाऊ तरीके से। चूंकि स्पेक्ट्रम घोटाला देश का सबसे बड़ा घोटाला है इसलिए उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। इस घोटाले की अनदेखी करने का मतलब है भ्रष्टाचार की जड़ों को मजबूत करना और कुशासन को मान्यता देना। विपक्ष चाहता है कि इस घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से कराई जाए, लेकिन सरकार यह समिति गठित न करने पर अड़ी हुई है। वह विपक्ष को मनाने के लिए उसके समक्ष तरह-तरह के प्रस्ताव तो रख रही है, लेकिन यह नहीं बताना चाहती कि उसे संयुक्त संसदीय समिति से क्या परेशानी है? सरकार कभी सीबीआइ को इस घोटाले की जांच के लिए पर्याप्त सक्षम बताती है और कभी लोक लेखा समिति को। विपक्ष का मानना है कि इस घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से ही सही तरह से हो सकती है। यह मान्यता उचित ही है, लेकिन यह ठीक नहीं कि वह सरकार को विधायी कामकाज की अनुमति भी दे रहा है। यह विचित्र है कि जो विपक्ष जेपीसी गठन के लिए सत्तापक्ष पर दबाव बनाने के लिए संसद नहीं चलने दे रहा वही सरकार को संसद में विधायी कामकाज निपटाने का अवसर दे रहा है। यदि वह यह मान रहा है कि स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी जांच पर सत्तापक्ष का रवैया हर हाल में अस्वीकार्य है तो फिर वह ठप संसद में सरकार को राहत क्यों दे रहा है? स्पेक्ट्रम घोटाला न केवल सबसे बड़ा है, बल्कि अलग किस्म का भी है। दो वर्ष पूर्व द्रमुक के दूरसंचार मंत्री ए राजा ने पहले तो सरकार को इसके लिए राजी किया कि उनका मंत्रालय ही स्पेक्ट्रम आवंटन की प्रक्रिया पूरी करेगा। इसके बाद जब इस प्रक्रिया को मनमाने तरीके से आगे बढ़ाया गया और दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने कहा कि मौजूदा प्रक्रिया से राजस्व को नुकसान होगा तो उसकी अनदेखी कर दी गई। यही नहीं राजा ने इस संदर्भ में विधि मंत्रालय और प्रधानमंत्री की भी सलाह खारिज कर दी। उच्चतम न्यायालय में स्पेक्ट्रम घोटाले की सुनवाई के दौरान यह स्पष्ट हुआ कि राजा ने किस हद तक मनमानी की। उच्चतम न्यायालय की मानें तो राजा ने प्रधानमंत्री का अनादर भी किया। राजा ने न केवल स्पेक्ट्रम आवंटन के नियम बदले, बल्कि आवेदन प्राप्त करने की तिथि में भी हेरफेर किया। हद तो यह रही कि मात्र 45 मिनट में आवंटन प्रक्रिया पूरी कर दी गई और 85 ऐसी कंपनियों को लाभान्वित किया गया जो आवेदन करने की पात्रता भी नहीं रखती थीं। बाद में इन कंपनियों ने अपनी हिस्सेदारी बेच कर अरबों रुपये बटोरे। इन कंपनियों के वारे-न्यारे इसलिए हो गए, क्योंकि उन्होंने कारपोरेट जगत की नई तकनीक लाबिंग का सहारा लिया। कारपोरेट लाबिस्ट नीरा राडिया की कुछ नेताओं, उद्यमियों और वरिष्ठ पत्रकारों से बातचीत के जो टेप सार्वजनिक हुए हैं उससे इन सबकी तो किरकिरी हुई ही है, यह भी स्पष्ट हुआ कि हमारे देश में एक खास समूह सरकार को किस तरह अपने इशारों पर नचा सकता है? कैग की रिपोर्ट के अनुसार 2 जी स्पेक्ट्रम के मनमाने आवंटन से देश को पौने दो लाख करोड़ रुपये के राजस्व की क्षति हुई है। बावजूद इसके सरकार अपनी गलती स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। इसका कारण यह है कि वह अपने सहयोगी दल द्रमुक को नाराज नहीं करना चाहती। सरकार के सामने केवल स्पेक्ट्रम घोटाला ही मुंह बाए नहीं खड़ा, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला और आदर्श सोसायटी घोटाला भी उसके लिए सिरदर्द साबित हो रहा है। इन सबके साथ केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के पद पर पीजे थॉमस की नियुक्ति भी उसे शर्मसार कर रही है। सरकार का सबसे बड़ा संकट यह है कि घोटालों की आंच साफ सुथरी छवि वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक पहुंच गई है। खुद उच्चतम न्यायालय ने उनकी निष्कि्रयता का सवाल उठाकर उन्हें एक तरह से कठघरे में खड़ा कर दिया है। थॉमस की नियुक्ति के मामले में भी उनकी ओर उंगलियां उठ रही हैं। हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को पाक-साफ करार दिया है, लेकिन क्या यह एक विडंबना नहीं कि अब प्रधानमंत्री को ऐसे प्रमाणपत्र की आवश्यकता पड़ रही है? उनकी ईमानदारी पर कोई संदेह नहीं कर सकता, लेकिन अब ऐसा लगता है कि उन्हें साझा सरकार चलाने की कीमत चुकानी पड़ रही है। केंद्र सरकार की छवि पर जो दाग लगा है वह तब तक दूर होने वाला नहीं जब तक वह प्रत्येक संदिग्ध मामले की तह तक जाने की इच्छाशक्ति नहीं प्रदर्शित करती। यदि उसने कोई गड़बड़ी नहीं की है तो फिर उसे जेपीसी की जांच पर आपत्ति क्यों है? कांग्रेस के जो रणनीतिकार सरकार को जेपीसी गठित न करने की सलाह दे रहे हैं वे एक प्रकार से उसकी मुसीबत बढ़ा रहे हैं। केंद्र सरकार को इसका अहसास हो जाना चाहिए कि स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर आम जनता में भी रोष है। सरकार को यह भी समझना होगा कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की प्रतिबद्धता न दिखाकर वह देश की नींव कमजोर कर रही है। अभी तक का अनुभव यह बताता है कि नेताओं से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों में जांच के नाम पर लीपापोती होती है और कोई भी सरकारी एजेंसी वास्तव में स्वायत्त नहीं रह गई है। जनता का एक वर्ग इस नतीजे पर पहुंचने के लिए विवश है कि नेताओं-नौकरशाहों को मनमानी करने की छूट मिल गई है। यह निराशाजनक है कि देश में जैसे-जैसे विकास दर बढ़ रही है वैसे-वैसे घपले-घोटाले भी बढ़ रहे हैं। इस मामले में जो स्थिति केंद्र सरकार की है वही राज्यों की भी। सत्तापक्ष हो या विपक्ष, दोनों ही ऐसी व्यवस्था करने के लिए तैयार नहीं जिससे घपले-घोटाले रुकें। बार-बार यह सामने आ रहा है कि जब जिस दल के नेताओं को मौका मिलता है वे मनमानी करते हैं। अगर राजनीतिक दल भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए ईमानदार हैं तो यह आवश्यक है कि सीबीआई को भी स्वायत्त एवं सक्षम बनाएं और सीवीसी को भी। अभी तो ये दोनों संस्थाएं केंद्र सरकार के इशारों पर काम करने के लिए विवश हैं। आदर्श स्थिति यह होगी कि सीवीसी इस बात की निगरानी कराने में सक्षम हो कि सीबीआई प्रत्येक मामले की निष्पक्ष जांच कर पा रही है या नहीं? अब इसमें संदेह नहीं कि भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण खुद राजनीतिक दल हैं। चूंकि वर्ष-दर वर्ष चुनाव महंगे होते जा रहे हैं इसलिए राजनीतिक दलों की पैसे की जरूरत भी बढ़ती जा रही है। आमतौर पर यह जरूरत काले धन से पूरी होती है। वैसे भी अब वोट खरीदने के चलन ने जोर पकड़ लिया है। यदि राजनीतिक दलों का चाल-चलन और चुनाव प्रक्रिया नहीं बदली तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगने वाला नहीं। समय आ गया है कि चुनाव लड़ने के लिए सरकारी कोष से धन मुहैया कराने जैसी किसी व्यवस्था पर गंभीरता से विचार हो। यदि भ्रष्टाचार से लड़ने के नए तौर-तरीके नहीं बनाए जाते तो घपले-घोटालों का सिलसिला कायम रहना तय है। साभार:-दैनिकजागरण०५-१२-२०१०
विकिलीक्स पर जारी अमेरिका की अति गोपनीय सूचनाओं ने कूटनीतिक और राजनयिक दुनिया में संशय और दुविधा की स्थिति पैदा कर दी है। आज पूरी दुनिया अमेरिकी राजनयिकों के विचारों, सुझावों और उनकी नीतियों को विकिलीक्स की वेबसाइट पर देख और पढ़ रही है। गोपनीय रिपोर्ट के खुलासे के पहले ही दिन अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता पीजे क्राउलिंग ने बयान दिया कि राजनयिकों द्वारा जुटाई गई सूचनाएं हमारी नीतियों और कार्यक्रमों को अमलीजामा पहनाने में मददगार होती हैं और वास्तव में हमारे राजनयिक डिप्लोमैट हैं, न कि दूसरे देशों में खुफिया सूचनाएं इकट्ठा करने वाले जासूस। इससे अमेरिका की बेचैनी साफ समझी जा सकती है कि उसे इन रिपोर्टो के खुलासे से किस तरह की चिंता रही है। विकिलीक्स द्वारा करीब ढाई लाख सूचनाओं को सार्वजनिक किया गया है, इनमें तीन हजार से ज्यादा सूचनाएं दिल्ली से भेजी गई अमेरिकी राजनयिकों की हैं। इन रिपोर्टो में एक-एक करके बातें सामने आ रही हैं जिनमें अमेरिका की भारत और पाकिस्तान के प्रति और शेष दुनिया के प्रति वास्तविक नजरिए का भी पता चलता है। अब यह साफ है कि अमेरिका पाकिस्तान को खुश करने के लिए अफगानिस्तान में चल रही आतंकवाद की लड़ाई से भारत को अलग रखता रहा है। 26/11 की घटना के बाद अमेरिका की दोहरी नीति का भी खुलासा इस रिपोर्ट में किया गया है, जिससे पता चलता है कि अमेरिका आईएसआई और पाकिस्तान की चाहे जितनी आलोचना करता रहा है, लेकिन उसने मुंबई हमलों के बाद इन पर लगाम लगाने के लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाया। आम लोगों के लिए भले ही यह रिपोर्ट चौंकाने वाली है, लेकिन कूटनीतिक और राजनयिक गलियारों में यह सब जानकारी पहले से ही है। इसी तरह यदि कुछ लोग लोग यह सोचते हैं कि गोपनीय सूचनाओं के उजागर होने के बाद अमेरिका और दुनिया के कई देशों के रिश्ते आपस में खराब हो जाएंगे अथवा खलबली मच जाएगी तो ऐसा भी कुछ नहीं होने जा रहा, क्योंकि यह सब अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और राजनीति में होता ही रहता है। विकिलीक्स से जो नई बात सामने आई है वह यह कि अमेरिका की नीतियों और दूसरे देशों के बारे में उसकी सोच का पहली बार सार्वजनिक तौर पर खुलासा हो गया। यह आश्चर्यजनक है कि अमेरिका की मजबूत खुफिया एजेंसियां इन सूचनाओं को गोपनीय बनाए रख पाने में विफल रहीं। जहां तक विश्व के विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों के बारे में अमेरिकी राजनयिकों की अशिष्ट टिप्पणी का प्रश्न है तो यह उस मानसिकता का एक प्रमाण है जो अमेरिका की दुनिया पर थानेदारी और अपनी श्रेष्ठता की भावना की पुष्टि करता है। रिपोर्ट में रूस के पूर्व राष्ट्रपति और वर्तमान प्रधानमंत्री को अल्फा डॉग कहा गया है तो ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद को हिटलर कहकर संबोधित किया गया है। इसी तरह फ्रांस, इटली, अफगानिस्तान के राष्ट्राध्यक्षों के बारे में भी अशिष्ट टिप्पणियां की गई हैं। वास्तव में यह राजनयिक शिष्टाचारों का हनन है, जिसकी एक राजनयिक से अपेक्षा तो की ही जा सकती है। यह दूसरे राष्ट्र की संप्रभुता और उसकी गरिमा का अपमान है। विकिलीक्स की मानें तो भारत ने 2004 में वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में पाकिस्तान के प्रति कोल्ड स्टार्ट की नीति बनाई थी। इसके तहत भारत में मंुबई जैसे किसी आतंकवादी हमले की स्थिति में 72 घंटे के भीतर तत्काल कार्रवाई करते हुए भारतीय सेना पाकिस्तान के खिलाफ एक सीमित युद्ध छेड़ देती। हालांकि इस तरह की नीति से थल सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने इनकार किया है, लेकिन सच्चाई यही है कि भारत अब पाकिस्तान से उकता गया है और जरूरत पड़ने पर इस तरह का कोई भी कदम उठा सकता है। दूसरा विवादास्पद खुलासा पाकिस्तान में अमेरिकी राजनयिक एनी पैटरसन का है कि यदि मुंबई हमले के बाद भारत पाकिस्तान पर हमला करता तो शुरुआती जीत के बावजूद अंतत: भारतीय सेना कमजोर पड़ती और यह युद्ध परमाणु युद्ध के रूप में तब्दील हो सकता था। इसी तरह पाकिस्तान में आतंकवादियों के हाथों डर्टी बम के आने का मामला भी है। खुलासों में अमेरिका की इस विरोधाभासी नीति का भी पता चलता है कि पाकिस्तान अमेरिका से मदद लेने के बावजूद उसे अभी तक मूर्ख ही बनाता रहा है। इसी तरह यूरोप में अमेरिका द्वारा 200 परमाणु बमों का जखीरा बनाने का मामला भी प्रकाश में आया है, प्रत्युत्तर में रूस के प्रधानमंत्री पुतिन ने कहा कि रूस भी परमाणु हथियार तैनात कर सकता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि विकिलीक्स रिपोर्ट ने अमेरिका की दोमुंही नीतियों के संदेह को एक पुख्ता आधार दे दिया है। अब हमें अपनी विदेश और रक्षा नीति में और अधिक व्यवहारिकता अपनाने की आवश्यकता है। हमें अमेरिका पर अधिक निर्भर होने की नीति पर भी विचार करने की जरूरत है, क्योंकि वह अपने राष्ट्रहितों और लाभ के अनुकूल ही दूसरे देशों से रिश्ता कायम करता है। (लेखक विदेशी मामलों के विशेषज्ञ हैं) साभार:-दैनिकजागरण
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भ्रष्टाचार के अनेक मसलों से संप्रग सरकार की मुश्किलें और अधिक बढ़ती देख रहे हैं अरुण नेहरू देश में इस समय राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला ऑक्टोपस की तरह है, जिसकी दर्जनों भुजाएं हैं जो चारों दिशाओं में चल रही हैं। जैसे ही एक भुजा परेशानी खड़ी करती है और उसे काबू में किया जाता है, दूसरी सक्रिय हो कर संप्रग सरकार को मुसीबत में डाल देती है। जैसे-जैसे यह मुद्दा जनता के बीच चर्चा का विषय बनता जा रहा है, कांग्रेस की दिक्कतें बढ़ती जा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में सीबीआइ जांच की कांग्रेस की पेशकश को विपक्ष ने नकार दिया है और वह संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) जांच पर अड़ा है। अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है। 2-जी के प्रमुख मुद्दे के अलावा सीवीसी और नीरा राडिया टेप प्रकरण और इस पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों ने भी कांग्रेस को संकट में डाल रखा है। यह बहुत गंभीर मसला है। टेप के मामले में राहत की बात बस इतनी ही है कि नीरा राडिया की ए राजा और द्रमुक के अन्य नेताओं के अलावा मंत्रिमंडल के किसी सदस्य से बातचीत नहीं हुई है। बातचीत में शामिल लोगों की साख पर बट्टा लगना ही है और मीडिया के एक वर्ग के लॉबिंग के प्रयास का भी नकारात्मक संदेश गया है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से टेप तलब किया है। मेरे विचार से इस मामले में अटकलें लगाने के बजाय हमें सुप्रीम कोर्ट के आदेश का इंतजार करना चाहिए। जैसे-जैसे स्पेक्ट्रम मामले में सीबीआइ जांच आगे बढ़ेगी, सीवीसी विवाद और गहराता जाएगा। दबाव में कार्रवाई से कांग्रेस को फायदा नहीं होगा। दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने समझदारी भरा बयान जारी किया है। मेरे विचार से सुधारवादी कदम उठाने से विपक्ष भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में सीबीआइ जांच के लिए तैयार हो सकता है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भ्रष्टाचार की जांच से जुड़े बहुत से मसले खुले हुए हैं। इनमें राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श सोसायटी और 2-जी स्पेक्ट्रम शामिल हैं। इसके अलावा आईपीएल और पर्यावरण हितों की अनदेखी के मामले भी नए-नए पेच खड़े कर रहे हैं। राजनीतिक स्तर पर भारी उथल-पुथल चल रही है और निहित स्वार्थ खुलकर खेल रहे हैं। व्यवस्था में सफाई के प्रयासों में बाधा पहुंचाने के लिए वित्तीय दबाव समूह पुरजोर कोशिश करेगा। अगर ए राजा के खिलाफ कार्रवाई की जाती है तो द्रमुक जबानी मिसाइलें छोड़नी शुरू कर देगी। साथ ही इस मसले में कड़ी कार्रवाई से बचने के लिए दलित कार्ड भी खेला जा रहा है, पर इस मुद्दे पर अब सरकार और झुकने को तैयार नहीं है। ऐसे में क्या द्रमुक सरकार को अस्थिर करने की स्थिति में है? मेरे ख्याल से द्रमुक ऐसे कदम नहीं उठाएगी, क्योंकि तमिलनाडु में यह सत्ता विरोधी रुझान का सामना कर रही है। साथ ही द्रमुक में भीषण परिवार युद्ध भी छिड़ा हुआ है। अन्नाद्रमुक के रूप में वहां समर्थ विपक्ष मौजूद है और पीएमके तथा अन्य छोटे दल किसी भी दिशा में लुढ़क सकते हैं। कांग्रेस के पास भी विकल्पों की कोई कमी नहीं है। एनसीपी प्रमुख शरद पवार से जुड़ा लवासा का मुद्दा भी सामने आया है, किंतु इसके तार आईपीएल से जुड़े होने के कारण यह मुद्दा और भड़केगा। टेलीकॉम घोटाले और लाइसेंसिंग प्रक्रिया से संबंधित बहुत से मुद्दे, विशेष रूप से स्वान टेलीकॉम ध्यान खींच रहे हैं। सीबीआइ, ईडी और आइटी के अलावा अन्य किसी के पास तथ्य नहीं हैं। इस संबंध में अटकलबाजियां लगाना उचित नहीं होगा, किंतु शरद पवार का यह बयान तो सही है ही कि औद्योगिक हितों को अनुचित तरीके से निशाना नहीं बनाना चाहिए, किंतु जहां तक 2-जी स्पेक्ट्रम का सवाल है इससे उद्योग जगत और राष्ट्रीय संपदा की कीमत पर बहुत छोटे समूह ने लाभ उठाया है। क्योंकि अब लाइसेंस राज अतीत की बात हो चुका है, इसलिए उद्योग जगत इनके खिलाफ उठाए जाने वाले कदमों का स्वागत ही करेगा। लवासा मामले का फैसला तो अदालत में ही संभव है, किंतु आदर्श सोसायटी में पर्यावरण और सुरक्षा की अनेक चिंताओं की अनदेखी के बावजूद परियोजना को अनुमति क्यों दी गई? निर्माता द्वारा भारी धनराशि खपा देने के बाद मामला काफी जटिल हो गया है। राष्ट्रमंडल खेलों में कोई राजनीतिक समूह शामिल नहीं है। जैसे ही सीबीआइ, ईडी और आइटी विभाग की जांच पड़ताल शुरू हुई, कांग्रेस बड़ी खूबसूरती से इससे अलग हो गई। सुरेश कलमाड़ी के सभी महत्वपूर्ण सहयोगियों को गिरफ्तार कर लिया गया है। उनसे पूछताछ जारी है, किंतु हर सूरत में संदेह की उंगली तो आयोजन समिति के अध्यक्ष की तरफ ही उठ रही है। शहरी विकास मंत्री, दिल्ली की मुख्यमंत्री और लेफ्टिनेंट गवर्नर तथा खेल मंत्री पर दोषारोपण उनकी साख पर नकारात्मक असर डालेगा। वैसे किसी भी वित्तीय मामले में उनकी संलिप्तता का दूर-दूर तक कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। हमारे पास निर्दोष व्यवस्था, निर्दोष सरकार और निर्दोष समाज नहीं है, जहां कानून का शासन चलता है। अगर व्यवस्था में परिवर्तन के बजाय वर्तमान मन:स्थिति के आधार पर फैसला आता है तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। (लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं) साभार:-दैनिकजागरण
जेपीसी के मुद्दे पर संसद में जारी गतिरोध में एक सकारात्मक संदेश देख रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित
संसदीय गतिरोध से राजनीति निर्वस्त्र हो रही है। भ्रष्टाचार राष्टीय बहस के केंद्र में है। राष्ट्रमंडल खेल आयोजन का भारी भ्रष्टाचार छुपाया नहीं जा सका। दूरसंचार घोटाला देश के कोने-कोने में चर्चा का विषय है। अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के साथ भ्रष्टाचार में भी उदारीकरण चलाना संप्रग को महंगा पड़ा है। संप्रग कंपनी के प्रबंधक हलकान हैं। सर्वोच्च न्यायपीठ ने मुख्य सतर्कता आयुक्त को इंगित किया है। दूरसंचार घोटाले की परतें खुल रही हैं। केंद्र सरकार दबाव में है। केंद्र सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में सीबीआइ जांच को तैयार है उसने आरोपी मंत्री ए। राजा से पल्ला झाड़ लिया है, लेकिन विपक्ष हमलावर है। विपक्ष संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से ही जांच की मांग कर रहा है। केंद्र ने इस मांग को खारिज कर दिया है। संसदीय कार्यवाही दो सप्ताह से ठप है। विपक्ष पर संसद न चलने देने के आरोप हैं। तर्क यह भी है कि नियंत्रक महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट अपने आप संसद की लोकलेखा समिति में जाएगी। समिति अनियमितताओं की जांच करेगी। तब अलग से जेपीसी की मांग का औचित्य क्या है? आम लोग लोकलेखा समिति और जेपीसी के फर्क नहीं जानते। सत्तापक्ष विपक्ष पर संसद न चलने देने का आरोप लगाकर भ्रष्टाचार के मुख्य मुद्दे को पीछे करना चाहता है, बावजूद इसके भ्रष्टाचार राष्ट्रीय बेचैनी है। जेपीसी और लोकलेखा समिति बेशक संसदीय समितियां हैं लेकिन लोक लेखा समिति संयुक्त संसदीय समिति नहीं होती। लोकसभा अध्यक्ष मावलंकर ने 10 मई 1954 के दिन लोकसभा में ही यह व्यवस्था दी थी कि यह संयुक्त समिति नहीं है। यह लोकसभा की समिति है। इसमें भी दोनों सदनों के सदस्य होते हैं। लोकलेखा समिति के गठन का लक्ष्य सार्वजनिक धन के सदुपयोग को जांचना है। लोकसभा विभिन्न मदों के लिए बजट पारित करती है। नियंत्रक महालेखा परीक्षक इस खर्च के सदुपयोग को जांचकर एक रिपोर्ट बनाते हैं। लोकसभा इस भारी रिपोर्ट की विवेचना स्वयं नहीं करती, वह यह कार्य लोकलेखा समिति से कराती है। बेशक इस समिति को भी साक्ष्य लेने, कोई भी दस्तावेज मंगाने और संबंधित प्राधिकारी को बुलाकर तथ्य जांचने के अधिकार हैं, लेकिन यह समिति नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) द्वारा तैयार रिपोर्ट का ही विवेचन करती है। वह कैग द्वारा खोजी गई वित्तीय अनुशासनहीनता को व्यापक फलक पर दस्तावेजी व मौखिक साक्ष्य लेकर जांचती है। तर्क हैं कि संप्रति इस समिति के सभापति मुरली मनोहर जोशी भाजपा नेता हैं तो भी जेपीसी की ही मांग क्यों की जा रही है? बेशक यह समिति दूरसंचार मामले से जुड़ी कैग रिपोर्ट का परीक्षण करेगी, लेकिन विपक्ष की मांग समग्र जांच की है। दूरसंचार घोटाला वित्तीय अनुशासनहीनता अथवा राजकोष अपव्यय का साधारण मसला नहीं है। यह मसला भ्रष्टाचार का है, मंत्री पद के दुरुपयोग का है, कतिपय संस्थाओं/व्यक्तियों को सीधे लाभ पहुंचाने और उनसे लाभ कमाने का है। इससे जुड़े भ्रष्टाचार का नेटवर्क बहुत बड़ा है। इसके खिलाडि़यों की संख्या, पहुंच और पकड़ का व्यापक दायरा है। जेपीसी की जांच का जाल दूर तक फैलाकर ही बड़े घोटाले के पीछे काम करने वाले बड़ों तक पहुंचने की राह आसान होगी। सरकार जेपीसी की जांच का सामना नहीं कर सकती। सीबीआइ जांच का दायरा भी बड़ा होता है, लेकिन सीबीआइ अपनी जांच प्रक्रिया में जांच दायरा तय करने व पूछताछ के लिए व्यक्तियों के चयन में चतुराई बरतती है। वह केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाली एजेंसी है। अपने बिगबास के संकेत पर काम करना उसकी विवशता है। सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी का अर्थ बहुत सीमित है। वह न्यायालय को जांच रिपोर्ट देती रह सकती है, न्यायालय समय-समय पर उचित मार्गदर्शन दे सकता है, पर सीबीआइ से व्यापक जांच की उम्मीद नहीं की जा सकती। ईमानदार जांच से नहीं डरते। प्रधानमंत्री सहित पूरी सत्ता ए. राजा को निर्दोष बताती रही है। प्रधानमंत्री ने पहले यों ही उनका पक्ष नहीं लिया होगा। अबकी बात दीगर है। अब मामला ज्यादा उछल गया है। पल्ला झाड़ने की बात ताजा रणनीति हो सकती है। आखिरकार सरकार जेपीसी की जांच से क्यों डरी हुई है? सरकार स्वयं अपनी ओर से जेपीसी के गठन का प्रस्ताव क्यों नहीं लाती? जाहिर है कि सरकार के सामने इस खेल के बड़े खिलाडि़यों के पर्दाफाश हो जाने का खतरा है। इसीलिए संसदीय गतिरोध दूर करने के लिए लोकसभाध्यक्ष द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में भी सरकार का रुख अडि़यल ही रहा। सत्तापक्ष ने जेपीसी गठन के विरोध में अनेक हास्यास्पद तर्क दिए और जेपीसी को बेकार की कसरत बताया गया। कांग्रेस संसदीय प्रणाली से प्रेरित नहीं होती। संसदीय गतिरोध का कारण सत्तापक्ष का अडि़यल रुख है। संसदीय संस्थाएं लोकतंत्र की रक्तवाही नलिकाएं होती हैं। सत्ता-विपक्ष को उनका सम्मान करना चाहिए। सत्तापक्ष के पास बहुमत है तो विपक्ष के पास सरकारी कामकाज की निगरानी करने का जनादेश। विपक्ष सच्चा चौकीदार है, सत्तापक्ष उससे आत्मसमर्पण क्यों चाहता है? बोफोर्स मसले पर 45 दिन के संसदीय गतिरोध के बाद 1987 में जेपीसी बनी थी। हर्षद मेहता मसले में संसद में 17 दिन बवाल हुआ, 1992 में गठित जेपीसी का कार्य उत्साहवर्द्धक था। समिति ने तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह को भी साक्ष्य के लिए बुलाकर एक नई परंपरा की शुरुआत की थी। 2001 में बनी जेपीसी ने 105 बैठकें की थीं। कोल्ड्र डिंक्स में रसायनों के सवाल पर 2003 में गठित जेपीसी ने उपयोगी संस्तुतियां की थीं। न्यायालय जेपीसी का विकल्प नहीं हो सकते। संसदीय गतिरोध शुभ नहीं होता, लेकिन इसका सारा अपयश विपक्ष के खाते ही डालना अनुचित है। संसद चलाना दोनों पक्षों की जिम्मेदारी है। विपक्ष ने परमाणु करार और उससे जुड़े तमाम कार्यो पर रचनात्मक भूमिका निभाई है। प्रश्नकाल विपक्ष का हथियार होता है। विपक्ष ने प्रश्नकाल जैसे महत्वपूर्ण अवसर का त्याग किया है। सत्तापक्ष ने इस मामले में बहुमत की बेजा ताकत दिखाई है। देश संसदीय बहसों पर टकटकी लगाता है। देश संसद का संदेश सुनता है। संसद की ताकत अपरिमित है। इस दफा बिना बहस ही उसने देश को एक उत्साहजनक संदेश दिया है कि यहां निरर्थक शोरगुल करने या मौन रहने वाले माननीय ही नहीं बैठते। यह प्राणवान संस्था है। ताजा संसदीय गतिरोध ने सारे राष्ट्र का ध्यान भ्रष्टाचार के मूल मुद्दे पर खींचने में भारी सफलता पाई है कि भ्रष्टाचारियों पर शिकंजा अपरिहार्य है। सत्तापक्ष कब तक बचेगा? (लेखक उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं) साभार:-दैनिकजागरण
2-जीस्प्केक्त्रम आवंटन घोटाले में ए राजा और संचार मंत्रालय के साथ-साथ प्रधानमंत्री की निष्कि्रयता को भी कठघरे में खड़ा कर रहे हैं ए सूर्यप्रकाश कठघरे में प्रधानमंत्री जबसे 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (कैग) की रिपोर्ट सार्वजनिक हुई है, कांग्रेस प्रधानमंत्री को आलोचना से बचाने का पुरजोर प्रयास कर रही है। संयुक्त संसदीय समिति की जांच का कड़ा विरोध करने के अलावा कांग्रेस के प्रवक्ता दिन-रात इस तथ्य से ध्यान हटाने पर काम कर रहे हैं कि जब देश में जनता के पैसे की सबसे बड़ी लूट चल रही थी, तब प्रधानमंत्री आंखें मूंदें बैठे थे। साथ ही वे लोगों को यह भी स्मरण कराना चाहते हैं कि मनमोहन सिंह एक सम्मानित व्यक्ति हैं। साक्ष्यों के अभाव में यह स्वीकार करना होगा कि फिलहाल मनमोहन सिंह की व्यक्तिगत साख पर कोई कलंक नहीं लगा है। किंतु यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। कैग की रिपोर्ट लाइसेंसिंग प्रक्रिया का गहन और समग्र परीक्षण करती है। रिपोर्ट में सरकार को पूरी तरह निष्कि्रय बताया गया है। यद्यपि रिपोर्ट में सीधे-सीधे प्रधानमंत्री पर उंगली नहीं उठाई गई है, फिर भी इसमें दर्ज घटनाक्रम से यह सवाल जरूर उठता है कि क्या मनमोहन सिंह ने 2007 में सरकारी जिम्मेदारियों से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया था। यह सच है कि रिपोर्ट में तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा और संचार विभाग (डॉट) को दोषी ठहराया गया है, किंतु कहानी यहीं खत्म नहीं होती। कैग का निष्कर्ष है कि डॉट ने अक्टूबर, 2003 में मंत्रिमंडल द्वारा जारी लाइसेंसिंग नियमों का पालन नहीं किया, न ही उसने टेलीकॉम आयोग से सलाह ली। यही नहीं, उसने वित्त मंत्रालय के निर्देशों का उल्लंघन किया, प्रधानमंत्री की राय की अनदेखी की, कानून और वित्त मंत्रालय की सलाह की अवहेलना की कि लाइसेंसिंग प्रक्रिया मंत्रियों के समूह के हवाले कर देनी चाहिए, मनमर्जी से अंतिम तिथि में परिवर्तन किया और अयोग्य दावेदारों को थोक के भाव लाइसेंस जारी कर दिए गए। ऐसा कोई और उदाहरण देखने को नहीं मिलता जब किसी मंत्री ने इतने बड़े पैमाने पर सरकारी कायदे-कानून ताक पर रख दिए हों। जब यह सब हो रहा था तो मनमोहन सिंह जी आप कहां थे? कैग ने यह भी सवाल उठाया है कि वित्त मंत्री ने अपनी राय को लागू क्यों नहीं किया कि स्पेक्ट्रम का आवंटन और मूल्य निर्धारण के लिए मंत्रिमंडल की अनुमति लेनी जरूरी है। इस मंत्रालय ने सुनिश्चित किया कि यह फाइलों में बहुत ईमानदारी और कुशलता से काम करता है। कैग के अनुसार लंबे अरसे बाद इस साल के शुरू में बार-बार स्मरण भेजने के बाद भी डॉट ने अंतर-मंत्रालय चर्चाओं में हिस्सा नहीं लिया। डॉट के रवैये से इसके फैसलों की वैधता पर संदेह उभरता है। यद्यपि कैग ने प्रधानमंत्री को दोषी नहीं ठहराया फिर भी उनका आचरण संदिग्ध है। रिपोर्ट के अनुसार प्रधानमंत्री, कानून मंत्रालय, वित्त सचिव, डॉट के सचिव और विभाग में वित्त सदस्य कीमतें बढ़ाए बिना जल्दबाजी में 2-जी स्पेक्ट्रम का आवंटन करना नहीं चाहते थे। दूसरे शब्दों में, मंत्रिमंडल में राजा द्वारा घटी दरों पर मूल्यवान राष्ट्रीय संपत्ति को बेचने के खिलाफ काफी असंतोष था। हैरानी की बात यह है कि नवंबर, 2007 में प्रधानमंत्री ने खुद भी राजा को पत्र लिखकर आपत्तियां दर्ज कीं। जब जून से नवंबर 2007 के बीच कानून और वित्त मंत्रालयों ने महसूस किया कि मामला मंत्रियों के समूह के हवाले किया जाना चाहिए, तो प्रधानमंत्री ने इस सलाह की अवहेलना कैसे की? उनकी निष्कि्रयता जायज नहीं है, क्योंकि सरकार के निर्णय लेने की प्रक्रिया नियमों से बंधी होती है। इन नियमों को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया (ट्रांसेक्शन ऑफ बिजनेस) रूल्स, 1961 कहा जाता है। इन्हीं के तहत मंत्रालय की शक्तियां निर्धारित होती हैं। कैग ने इन प्रावधानों को इंगित करते हुए कहा कि जब किसी मामले के वित्तीय संदर्भ होते हैं और उस पर वित्त मंत्रालय की मुहर लगनी जरूरी होती है तथा यदि किसी मामले को लेकर दो या उससे अधिक मंत्रालयों में मतभेद हों तो उसे मंत्रियों के समूह को सौंप देना चाहिए। फिर ऐसा क्यों नहीं हुआ? हालांकि जब हम इस प्रकार के सवालों के जवाब तलाशते हैं तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस के प्रवक्ता, मनीष तिवारी और जयंती नटराजन मनमोहन सिंह को एक सम्मानित व्यक्ति बताते फिरते हैं। घटनाओं के क्रम से यह साफ हो जाता है कि मनमोहन सिंह में अपनी निर्देशों पर अमल के लिए संचार मंत्री को बाध्य करने की शक्ति नहीं थी। यह कटु लग सकता है, किंतु मनमोहन सिंह की निष्कि्रयता को कर्तव्यविमुखता ही कहा जा सकता है। किसी भी नौकरशाह की पहली सहज प्रवृत्ति न्यूनतम जोखिम उठाते हुए फाइल पर टिप्पणी करना होती है ताकि वह फंसने से बच सके। इसीलिए मनमोहन सिंह ने संभवत: यह मानने हुए टिप्पणी की कि इससे वह बच जाएंगे। प्रधानमंत्री ने अपनी निष्कि्रयता के कारण देश को 1।76 लाख करोड़ रुपये की चपत लगा दी। हालांकि इस सबके बावजूद, कांग्रेस के संकटमोचक रोजाना ही हमें घुट्टी पिलाने की कोशिश करते हैं कि मनमोहन सिंह एक सम्मानित व्यक्ति हैं! मनमोहन सिंह का आचरण चकराने वाला है। जब कानून और वित्त मंत्रालय ने इस पक्ष में राय जाहिर की कि 2-जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस जारी करने का मामला मंत्रियों के समूह को सौंप देना चाहिए, कोई भी प्रधानमंत्री उनकी राय पर अमल न करने का जोखिम नहीं उठा सकता, खासतौर पर जब मामला एक ऐसे राष्ट्रीय संसाधन की बिक्री का हो, जिससे सरकार को मोटी रकम मिल सकती हो। तो भी, मनमोहन सिंह ने सुनिश्चित किया कि मामला मंत्रियों के समूह तक न पहुंच पाए। स्पष्ट तौर पर प्रधानमंत्री दोनों मंत्रालयों की सलाह को दरकिनार करने के लिए प्रधानमंत्री पर भारी दबाव पड़ा होगा। हर पहलू को ध्यान में रखते हुए और साथ ही मनमोहन सिंह के व्यक्तित्व, उनकी पृष्ठभूमि और दो मंत्रालयों की सुलझी हुई सलाह की अवहेलना में भारी जोखिम को देखते हुए कहा जा सकता है कि दबाव एक गठबंधन सहयोगी की तरफ से ही पड़ सकता है। इसलिए प्रथम दृष्टया भारी-भरकम साक्ष्यों के आलोक में ए राजा के आचरण और उनके खिलाफ आपराधिक मामला चलाना तो केवल पहला कदम ही होना चाहिए। इस भारी-भरकम घोटाले में किसी भी जांच का अंतिम लक्ष्य प्रधानमंत्री की निष्कि्रयता के कारणों का पता लगाना तथा उन लोगों को चिह्नित करना होना चाहिए जिन्होंने इस निष्कि्रयता से लाभ उठाया है। इस बीच, हमें स्मरण रखना चाहिए कि कांग्रेस पार्टी के प्रतिनिधि हमें बता रहे हैं कि मनमोहन सिंह एक सम्मानित व्यक्ति हैं! (लेखक संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं) साभार:-दैनिकजागरण
सिविलसेवा करीक्षा क्रणाली में संशोधन के कारण गैरअंग्रेजी भाषी छात्रों की असफलता सुनिश्चित मान रहे हैं डॉ। विजय अग्रवाल
हिंदी वालों के खिलाफ षड्यंत्र सिविल सेवा परीक्षा प्रणाली के लिए संघ लोक सेवा आयोग ने सन 2000 में वाईके अलघ के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई थी, जिसने अक्टूबर 2001 में अपनी रिपोर्ट यूपीएससी को सौंपी थी। अलघ कमेटी ने प्रारंभिक और मुख्य परीक्षा में कुछ परिवर्तन सुझाए थे। इन सुझावों को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए सरकार ने 2011 की प्रारंभिक परीक्षा के स्वरूप में बदलाव की घोषणा की है। फिलहाल मुख्य परीक्षा को नहीं छेड़ा गया है। प्रारंभिक परीक्षा के दूसरे प्रश्नपत्र के रूप में जहां परीक्षार्थी को किसी एक विषय का चुनाव करना पड़ता था, वहीं अब उसकी जगह सिविल सर्विस एप्टीट्यूट टेस्ट देना होगा। इस पेपर को शामिल किए जाने के पक्ष में एक सामान्य तर्क तो यही है कि इससे परीक्षार्थियों के चरित्र, निर्णय लेने की क्षमता, तार्किक क्षमता, समस्याओं के समाधान, मानसिक योग्यता व दृढ़ता, कम्यूनिकेशन स्किल्स, सामान्य समझ तथा गणित की सामान्य योग्यता आदि की जांच की जा सकेगी। यह पेपर बहुत कुछ कैट की परीक्षा जैसा ही है। इस प्रश्नपत्र को लागू किए जाने के पीछे मुख्य कारण यह है कि वैकल्पिक पेपर में स्केलिंग की पद्धति लागू की जाती थी, ताकि किसी विषय विशेष के विद्यार्थी को न तो अतिरिक्त लाभ मिल सके और न ही किसी को कोई नुकसान उठाना पड़े। अब प्रारंभिक परीक्षा में वैकल्पिक विषय को ही समाप्त कर दिया गया है। लेकिन बात तब तक नहीं बनेगी जब तक कि सरकार मुख्य परीक्षा में भी अलघ कमेटी के सुझाव को लागू न करे, क्योंकि उसमें जब तक वैकल्पिक विषय रहेंगे, तब तक स्केलिंग पद्धति रहेगी और जब तक यह पद्धति रहेगी तब तक संदेह भी बना रहेगा। मैं सिविल सर्विस एप्टीट्यूट टेस्ट में शामिल उस खतरनाक तथ्य की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा, जो हमें एक बार फिर से लार्ड मैकाले की याद दिलाता है। इस एप्टीट्यूट टेस्ट के सात मुख्य बिंदु हैं। इनमें अंतिम और सातवां बिंदु है-इंग्लिश लैंग्वेज कम्प्रीहेंसिव स्किल्स। सामान्यतया प्रारंभिक परीक्षा के प्रश्नपत्र में वस्तुनिष्ठ किस्म के 150 प्रश्न पूछे जाते हैं। इस पेपर में प्रत्येक बिंदु से औसतन 20 प्रश्न पूछे जाएंगे। जिस परीक्षा में हर साल लगभग चार लाख विद्यार्थी बैठते हों और जिसमें औसतन बारह हजार विद्यार्थियों का चयन होता हो, वहां एक-एक नंबर का अंतर बेहद मायने रखता है। इस पेपर का एक प्रश्न दो नंबर का होता है। इस तरह यदि किसी विद्यार्थी की अंग्रेजी अच्छी नहीं है उसके चालीस नंबर पहले ही खत्म हो चुके होंगे। यहां मुद्दा यही है कि अच्छी अंग्रेजी न जानने वाले विद्यार्थी के चयन की संभावना बची ही नहीं रह जाएगी। एप्टीट्यूट टेस्ट के समर्थकों का कहना है कि इसके लिए अंग्रेजी ज्ञान का स्तर केवल दसवीं कक्षा तक का है। यह सही नहीं है। जिस व्यक्ति को बहुत अच्छी अंग्रेजी नहीं आती, उसके लिए इसे हल कर पाना संभव नहीं है। अंग्रेजी के समर्थकों का यह भी कहना है कि अंग्रेजी जाने बिना केंद्र और राज्य का पत्राचार मुश्किल है। इस दलील में भी दम नहीं है। अपने 26 वर्ष के प्रशासकीय जीवन में मैंने 17 साल राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति भवन जैसी सर्वोच्च संस्थाओं में बिताए हैं और मुझे यह कहने में गर्व व आत्मसंतोष का अनुभव हो रहा है कि अंग्रेजी ज्ञान का अभाव मेरे रास्ते में कोई बाधा खड़ा नहीं कर सका। इस संबंध में प्रशासनिक चिंतक फ्रेडरिक रिग्स के विचारों को जानना जरूरी है। उन्होंने प्रशासन के संबंध में पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण की बात कही थी और जिसे पूरी दुनिया ने विशेषकर विकासशील देशों ने खूब सराहा और लागू भी किया। रिग्स के अनुसार किसी भी देश की प्रशासनिक प्रणाली वहां की सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों से पैदा होनी चाहिए। इसलिए उन्होंने स्पष्ट रूप से बताया कि विकसित देशों का प्रशासनिक स्वरूप विकासशील देशों के लायक नहीं हो सकता। अंग्रेजी का ज्ञान और प्रशासन की योग्यता के समानुपातिक संबंध का सिद्धांत न केवल मूर्खतापूर्ण है, बल्कि घोर षड्यंत्रकारी भी है। सन 1979 से सिविल सेवा परीक्षा के दरवाजे हिंदी एवं भारतीय भाषाओं के लिए खोल दिए गए थे। 2008 की मुख्य परीक्षा के आंकड़ों पर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि सभी के लिए अनिवार्य विषय सामान्य ज्ञान के प्रश्नपत्र में कुल 11,320 विद्यार्थी बैठे थे। इनमें से 5,117 विद्यार्थी हिंदी माध्यम के थे, 5,822 विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम के थे और शेष विद्यार्थी अन्य भाषाओं के थे। ये आंकड़े बताते हैं कि अब हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने वाले परीक्षार्थियों की संख्या आधे से अधिक हो गई है। अंतिम रूप से चयनित विद्यार्थियों का अनुपात भी यही है। अब जो एप्टीट्यूट टेस्ट लागू किया जा रहा है, उसमें इंग्लिश लैंग्वेज कम्प्रीहेंसिव स्किल को चुपचाप बड़े खूबसूरत तरीके से शामिल कर इन पचास प्रतिशत विद्यार्थियों को हमेशा-हमेशा के लिए बाहर कर देने का एक बौद्धिक षड्यंत्र रचा गया है। सरकार को अपने इस निर्णय पर फिर से विचार करना चाहिए ताकि भारतीय प्रशासन का स्वरूप न बिगड़ जाए और भारतीय प्रशासन भारतीयों के द्वारा और भारतीयों के लिए ही रहे। (लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं) साभार:-दैनिकजागरण