Wednesday, March 28, 2012

घटक दलों का रवैया

गठबंधन के कारण कड़े फैसले लेने में मुश्किल पेश आने संबंधी प्रधानमंत्री के बयान पर केंद्रीय कृषि मंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार की नाराजगी इस आधार पर कुछ जायज हो सकती है कि उनके दल ने सरकार के लिए कभी कोई परेशानी नहीं खड़ी की, लेकिन क्या इससे इंकार किया जा सकता है कि संप्रग सरकार को अपने दूसरे कार्यकाल में महत्वपूर्ण फैसले लेने में नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं? क्या यह विचित्र बात नहीं कि संप्रग के घटक दल राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर भी एकमत नहीं हो पा रहे हैं? आखिर इस तरह केंद्रीय सत्ता का संचालन कैसे हो सकता है? इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इस तरह देश के हितों की रक्षा कैसे हो सकती है? यह ठीक नहीं कि घटक दल एक ओर सरकार को समर्थन देने की कृपा प्रदर्शित करते रहें और दूसरी ओर उसे वे फैसले भी न लेने दें जो आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य हो चुके हैं और जिनके अटके रहने के कारण राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ रही है। अब तो यह भी स्पष्ट है कि घटक दल अपनी ही भागीदारी वाली केंद्रीय सत्ता की फजीहत कराने में भी संकोच नहीं कर रहे हैं। आखिर वे यह अहसास क्यों नहीं कर पा रहे हैं कि केंद्र सरकार की नाकामी उनके हिस्से में भी आ रही है? सुधारवादी रेल बजट पेश करने वाले रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को प्रधानमंत्री के न चाहने के बावजूद जिस तरह एक प्रकार से जबरन हटाया गया उससे केंद्र सरकार की प्रतिष्ठा को तो जबरदस्त चोट पहुंची ही है, उसके और साथ ही संसद के अधिकारों का भी हनन हुआ है। नि:संदेह बात केवल दिनेश त्रिवेदी के हटाए जाने की ही नहीं, बल्कि उनके स्थान पर नए रेल मंत्री मुकुल राय की नियुक्ति की भी है। अभी सभी को यह स्मरण है कि तृणमूल कांग्रेस ने ऐसा ही रवैया खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश के फैसले पर भी अपनाया था। यह कैबिनेट का फैसला था, लेकिन ममता बनर्जी के दबाव में केंद्र सरकार को उससे पीछे हटना पड़ा। कैबिनेट से मंजूर भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक के साथ-साथ अन्य अनेक विधेयक सिर्फ इसलिए अटके हुए हैं, क्योंकि घटक दल उन्हें हरी झंडी देने से इंकार कर रहे हैं। अब यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि संप्रग के घटक दल संकीर्ण राजनीतिक हितों के कारण राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित नहीं कर पा रहे हैं। वे कई बार केंद्र सरकार के उचित फैसलों का सिर्फ इसलिए विरोध करने लगते हैं, क्योंकि उनके राज्य में सक्रिय विरोधी दल भी ऐसे फैसलों के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे होते हैं। राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर क्षेत्रीय दलों का रवैया उनके विरोधी दलों के तौर-तरीकों पर निर्भर करने से राज्य विशेष के हित तो सध सकते हैं, लेकिन राष्ट्रीय हितों की रक्षा नहीं होने वाली। यह संभव है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का नेतृत्व कर रही कांग्रेस शरद पवार के गम और गुस्से को दूर करने में सफल हो जाए, लेकिन ऐसा ही कुछ अन्य घटकों के बारे में नहीं कहा जा सकता। घटक दलों के असहयोग से आजिज आई सरकार ने उनके साथ निरंतर बैठकें करने का जो फैसला किया है वह बहुत उम्मीद नहीं जगाता, क्योंकि तथ्य यह है कि संप्रग सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में बिना किसी समन्वय समिति के काम कर रही है।
साभार :- दैनिक जागरण

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