Wednesday, March 28, 2012

खोखली प्रतिबद्धता का प्रदर्शन

बजट में शिक्षा के लिए किए गए आवंटन के आधार पर केंद्र सरकार की प्राथमिकता पर सवाल खड़े कर रहे हैं जगमोहन सिंह राजपूत
देश में यह बोर्ड परीक्षाओं का समय है। कपिल सिबल भले ही कहते रहें कि उन्होंनें बच्चों में परीक्षाओं का भय ग्रेड प्रणाली लागू कर समाप्त कर दिया है, बच्चे तथा उनके माता-पिता आज भी परीक्षाओं के दबाव तथा भय से उबर नहीं पाए हैं। सरकारी तंत्र तो आदेश देने के बाद निश्चिंत हो जाता है और मान लेता है कि मई 2009 के बाद शिक्षा से जुड़ी सभी समस्याओं का समाधान उसने कर लिया है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के 13 बिल लंबित हैं और आगे भी स्थिति सुधरने की कोई संभावना नहीं है। शिक्षा की प्राथमिकता कितनी पीछे है, इसका पहला उदाहरण था कपिल सिब्बल को एक अत्यंत जटिल मंत्रालय का भी अतिरिक्त भार। दूसरा और उससे भी सटीक उदाहरण है 2012-13 का बजट। आंकड़ों में यह कितना लुभावना लग सकता है कि वित्तमंत्री ने शिक्षा का बजट 61,427 करोड़ तक पहुंचा दिया है-यानी पिछले वर्ष के मुकाबले 18 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी। 22 करोड़ बच्चे स्कूलों में हैं और एक करोड़ के आसपास ऐसे हैं जो नामांकन तक नहीं पहुंच पाते हैं। यह है वह स्थिति जिसमें शिक्षा के मूल अधिकार का अधिनियम लागू किया गया है। संविधान में दिए हुए वायदों के अनुसार सरकार का सभी बच्चों को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा तथा आवश्यक जीवन-कौशल प्रदान करने है। सामान्य धारणा यह है कि सरकारी स्कूलों की बदहाली बढ़ती ही जा रही है। प्राइवेट पब्लिक स्कूलों की संख्या जिस तेजी से बढ़ रही है उसी तेजी से सरकारी स्कूलों की साख गिरती जा रही है। सरकारी दस्तावेजों में अब गुणवत्ता सुधार का जिक्र लगातार आने लगा है, मगर वह कागजों में ही सिमट कर रह जाता है। सरकारी स्कूलों में संख्याओं का बढ़ना ही प्रगति का द्योतक मान लिया जाता है। इस सोच में स्कूली शिक्षा में बजट आवंटन को 45,969 करोड़ पर पिछले वर्ष के 38957 के मुकाबले लाना क्या प्रगति का परिचायक है? क्या यह व्यावहारिक रूप में यथास्थिति ही नहीं बनाए रखेगा? शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के दो वर्ष बाद भी उसका प्रभाव दिखाई नहीं पड़ रहा है। आशा थी कि इस दिशा में विशेष प्रयास किया जाएगा और अनेक बड़े राच्यों की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए बजट आवंटन को उचित अनुपात में बढ़ाया जाएगा। ऐसा कुछ भी शायद सरकार के जेहन में भी नहीं आया है। पिछले कुछ महीनों में प्रथम नामक संस्था तथा एक अंतरराष्ट्रीय मूल्यांकन अध्ययन के नतीजों पर बड़ी चर्चा चली। कक्षा पांच के आधे से अधिक विद्यार्थी कक्षा 2 के स्तर पर भी नहीं पाए गए। देश में 70 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हंै या यो कहें कि पढ़ने को बाध्य है। उन्हें अपेक्षित स्तर से नीचे की शिक्षा ही मिलती है। देश में लगभग 15 लाख स्कूल अध्यापकों के पद रिक्त हैं। इसकी बड़ी जिम्मेदारी राच्यों की है, मगर क्या केंद्र सरकार इस भयावह स्थिति से आंख मूंद सकती है। लगता तो यही है कि बजट का सारा ध्यान यथास्थिति बनाए रखने तक ही सीमित हो गया है। यदि ऐसा न होता तो केंद्र सरकार उच्च शिक्षा से लगातार अपना हाथ पीछे नहीं खींचती जाती, जैसा कि पिछले दशक में बेहिचक किया गया है। कपिल सिब्बल बार-बार दोहराते हैं कि उच्च शिक्षा में उपयुक्त आयु वर्ग की वर्तमान में 10-11 प्रतिशत की भागीदारी को 2020 तक दो गुने से ज्यादा करना है। इसका खोखलापन पूरी तरह उजागर होता है जब उच्च शिक्षा का आवंटन जो पिछले वर्ष 13,103 करोड़ था, केवल 15,458 करोड़ तक ले जाया जाता है। इससे क्या सुधार होंगे, क्या गुणवत्ता बढ़ेगी और क्या उच्च शिक्षा में युवाओं की भागीदारी दो गुनी से अधिक बढ़ाने की त्वरित आवश्यकता की आंशिक पूर्ति की तरफ कदम बढ़ सकेंगे? आश्चर्य और भी है। राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा मिशन के लिए 3124 करोड़ के आवंटन से शिक्षा की गुणवत्ता कैसे सुधर पाएगी या लगातार बढ़ रहे प्रवेशार्थियों को कैसे समाहित कर सकेगा। माध्यमिक शिक्षा वह स्तर है जहां कौशलों को लाना आवश्यक है-वे जीवन कौशल जो जीवन को सार्थकता, सृजनात्मकता तथा सहजता से जीने के लिए नई पीढ़ी को तैयार करते हैं। सरकार इसे केवल जीविकोपार्जन की तैयारी मानती है और उसमें भी कोताही करने में हिचकती नहीं है। वह केवल एक हजार करोड़ का आवंटन राष्ट्रीय कौशल विकास कोष के नाम पर करती है और यह अपेक्षा करती है कि इससे शिक्षा तथा कार्य जगत में प्रवेश के बीच की खाई पट जाएगी। जैसे-जैसे शिक्षा अधिक लोगों तक पहुंची है, लोगों में शैक्षिक भेदभाव को विश्लेषणात्मक ढंग से देखने की क्षमता बढ़ी है। लोग अब कठिन प्रश्न पूछने लगे हैं। जब नवोदय विद्यालय लगभग हर जिले में हैं या केंद्रीय विद्यालय हैं तो अब 6000 मॉडल स्कूल ब्लाक स्तर पर बनाने का औचित्य समझ पाना आसान नहीं है। सरकार जिस बिंदु पर चुप्पी साधे है वह यह है शिक्षा के लिए 6 प्रतिशत जीडीपी का आवंटन। कोठारी कमीशन के वाद 1968 में बनी शिक्षा नीति के बाद से लगातार हर सरकार यह आश्वासन देती रही है कि शिक्षा के आवंटन को इस प्रतिशत पर लाया जाएगा। केवल 2001 में यह चार प्रतिशत से कुछ ऊपर गया था अन्यथा सदा ही चार प्रतिशत से नीचे ही रहा है। इस समय सरकार की नीतिगत तथा कार्यगत शिथिलता निम्नतम स्तर पर है और ऐसे में भविष्यदृष्टी समझ की अपेक्षा तो उससे की ही नहीं जा सकती थी। फिर यह बजट शिक्षा में किसी भी प्रगति का कोई संकेत तक नहीं देता है। जब शिक्षा में एक और वर्ष की शिथिलता जारी रहने दी जाती है तो उसका नकारात्मक प्रभाव पीढि़यों तक दिखाई देता है।
(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

No comments: