Wednesday, March 28, 2012

राजनीति की विचित्र करवट

पिछले आठ सालों के दौरान कांग्रेस-सपा के नफरत-प्यार भरे संबंधों के बहाने राजनीतिक हालात का जायजा ले रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य
अखिलेश यादव के शपथग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री ने संसदीय कार्यमंत्री पवन बंसल के हाथों बधाई संदेश भेजा। सोनिया गांधी के दूत के रूप में वयोवृद्ध कांग्रेस नेता मोतीलाल वोरा ने भी समारोह में शिरकत की। इस घटना से 2004 के चुनाव के तत्काल बाद की एक घटना याद आ गई। समाजवादी पार्टी ने स्वयं अगुआई कर कांग्रेस को बिना शर्त समर्थन का पत्र राष्ट्रपति को भेज दिया था। इसके बावजूद सोनिया गांधी द्वारा गठबंधन में शामिल और सहयोग देने वालों को दिए गए रात्रिभोज में समाजवादियों को आमंत्रित नहीं किया। फिर भी सपा के तत्कालीन महामंत्री अमर सिंह माकपा नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के साथ भोज में पहुंच गए। उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। उसके बाद जब परमाणु संधि के मसले पर वामपंथी दल सरकार से अलग हो गए तो कांग्रेस ने पलटी मारते हुए सपा को पुचकारने में जरा भी विलंब नहीं किया। अमर सिंह ने सरकार बचाने के लिए क्या-क्या किया, इसका खुलासा अब अदालत में हो रहा है। प्रश्न उठता है कि जिस पार्टी के प्रतिनिधि को कांग्रेस ने 2004 में भोज से बाहर निकाल दिया था, आज उस दल में कौन सा आकर्षण पैदा हो गया है? जो दिग्विजय सिंह मुलायम के गुंडाराज से उत्तर प्रदेश को बचाने के लिए राहुल गांधी के साथ जी-जान से जुटे थे, आज सपा को केंद्रीय सरकार में शामिल होने का निमंत्रण दे रहे हैं। सवाल यह भी उठता है कि मुलायम सिंह की ऐसा क्या कमजोरी है कि 2004 के अपमान के बाद भी जब-जब संप्रग सरकार संकट में घिरी, वह उसके पक्ष में खड़े हो गए? जैसे कांग्रेस महात्मा गांधी के प्रति प्रतिबद्धता का राग अलाप कर गांधी परिवार की दास भर बनकर रह गई है, वैसे ही समाजवादी पार्टी भी नाम लेने भर को ही लोहियावादी बनी हुई है। सैद्धांतिक निष्ठा और आचरणीय शुचिता के मामले में सभी राजनीतिक संगठनों ने रंग बदलने में गिरगिट को भी मात दे दी है। डॉ. लोहिया का गैर कांग्रेसवाद तो उनके अंतिम अनुयायी जनेश्वर मिश्र के जाने के काफी पहले ही तिरोहित हो चुका था और महात्मा गांधी की मृत्यु के साथ ही कांग्रेस ने उनके दर्शन को भी दफन कर दिया था। सत्ता की प्रधानता राजनीतिक दलों का मुख्य ध्येय हो गई है। कांग्रेस उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद इस नतीजे पर संभवत: पहुंच गई है कि अब उसके भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी उसकी नैया पार नहीं लगा सकते। राहुल गांधी देश को दिशा देने के लिए पिछले दो वषरें से मुखरित रहने के बाद अब चुप हैं। कांग्रेस की प्राथमिकता किसी भी जुगाड़ से 2014 तक सरकार चलाते रहने की है। राज्यों के अधिकार क्षेत्र पर अतिक्रमण को उतारू संप्रग सरकार से क्षुब्ध मुख्यमंत्रियों की अभिव्यक्ति ने चौथे मोर्चे की चर्चा को उभारा है। पता नहीं तीसरा मोर्चा कहां है। मंचीय प्रदर्शन के बावजूद वह कभी अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन वामपंथियों को लग रहा है कि एक बार फिर से क्षेत्रीय पार्टियों के सहारे खड़े हो सकते हैं। इसके लिए उन्होंने मुलायम सिंह पर दांव लगाना शुरू कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी कुछ महत्वाकांक्षी व्यक्तियों की जकड़न से अपने को मुक्त नहीं कर पा रही है, लेकिन उसे विश्वास है कि 2014 के निर्वाचन में वे क्षेत्रीय पार्टियां उसके साथ मिलकर सरकार बनाने के लिए एकजुट हो जाएंगी, जिनका कांग्रेस से सीधा विरोध है। मनमोहन सरकार के 2014 तक चलने की संभावना है। ममता बनर्जी साथ छोड़ देती हैं तो भी वर्तमान सरकार के गिरने का खतरा नहीं है। लेकिन जिस चुनौती के लिए वह सर्वाधिक परेशान है वह है इसी वर्ष होने वाला राष्ट्रपति चुनाव। उसके पास पहली बार राष्ट्रपति पद के लिए अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए संख्याबल कम है। भाजपा और कांग्रेस के मतदाताओं अर्थात सांसदों और विधायकों की संख्या में बहुत कम अंतर है। उत्तर प्रदेश का मतदाता जिस ओर करवट लेगा वही निर्णायक होगा क्योंकि यहां के विधायकों के मतों का मूल्य अन्य राज्यों के विधायकों से कहीं ज्यादा है। जहां भाजपा और कांग्रेस दोनों ही इसका मूल्य समझकर मुलायम सिंह के प्रति उदार हैं, वहीं मुलायम सिंह अपनी इस हैसियत से बेखबर नहीं हैं। क्या कांग्रेस सिर्फ रामगोपाल यादव को राज्यसभा का उपसभापति बनाकर मुलायम सिंह का समर्थन हासिल कर सकती है? यह तो बहुत ही छोटा मूल्य होगा। ममता बनर्जी के गठजोड़ से बाहर जाने के बाद कांग्रेस को समाजवादी सांसदों का सहयोग लेने के लिए मूल्य भी चुकाना होगा- मुलायम सिंह को उप प्रधानमंत्री बनाकर। मुलायम सिंह अब खाली आश्वासन से संतुष्ट नहीं हो सकते। अब कांग्रेस की हैसियत पहले वाली नहीं है। उसके पास संख्या बल तो कम है ही, उसकी साख भी रसातल में पहुंच गई है। कांग्रेस और मुलायम सिंह दोनों ही इस समय उंगली पकड़कर पाहुंचा पकड़ने की जुगत में लगे हैं। जहां कांग्रेस राष्ट्रीय मसलों पर अब आम सहमति की बात करने लगी है वहीं मुलायम सिंह चुप्पी साधकर अनुकूलता का आकलन कर हैं। ममता ही नहीं द्रमुक और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी कांग्रेस को कदम पीछे हटाने के लिए बाध्य कर रही हैं। ऐसे में मुलायम सिंह कांग्रेस की डूबती नैया को किनारे पहुंचाने में अपनी शक्ति लगाएंगे या चौथे मोर्चे के कयास को बल देंगे या फिर अपनी शक्ति बढ़ाकर 2014 में निर्णायक भूमिका निभाने की तैयारी में जुट जाएंगे? यह स्पष्ट हो सकेगा जुलाई के राष्ट्रपति निर्वाचन के समय। राष्ट्रपति चुनाव दिशा संकेत दे सकता है, लेकिन जहां तक 2014 के निर्वाचन का सवाल है वह तो संप्रग और राजग के बीच ही होगा। क्षेत्रीय दलों को सौदेबाजी का अवसर निर्वाचन के बाद संख्या बल के आधार पर मिलेगा।
(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

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