Wednesday, March 28, 2012

नए भंवर में भाजपा

अंशुमान मिश्रा मामले से भाजपा के सामने साख और नैतिकता का संकट उभरता देख रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता
पिछले सप्ताह भाजपा संसदीय दल की बैठक में यशवंत सिन्हा के भड़कने पर भाजपा को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए। अगर सिन्हा का गुस्सा नहीं फूटता तो इसकी पूरी संभावना थी कि एनआरआइ व्यवसायी अंशुमान मिश्रा और पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व के एक तबके के घालमेल से झारखंड पर एक बार फिर अवसरवाद का दाग लग जाता। इस बार दोषी भाजपा होती। पिछले कुछ दिनों से, खासतौर पर जब से भाजपा को पिछले दरवाजे से अंशुमान मिश्रा को राज्यसभा में भेजने से पीछे हटने को मजबूर होना पड़ा है, बौखलाए हुए अंशुमान मिश्रा अनेक समाचार चैनलों के स्टूडियो में अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। उनकी बयानबाजी बेहद चौंकाने वाली है और केंद्रीय भाजपा नेतृत्व के संबंध में होने वाली अफवाहों की पुष्टि कर रही है। सर्वप्रथम, अंशुमान मिश्रा की निर्दलीय उम्मीदवारी को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और कुछ अन्य नेताओं का सक्रिय समर्थन हासिल था। मिश्रा के निर्वाचन पत्रों पर भाजपा विधायकों के हस्ताक्षर के अलावा, झारखंड और उड़ीसा के पूर्णकालिक संगठन मंत्री पर्चा भरवाने उनके साथ गए थे। पार्टी के आलाकमान से संकेत मिले बिना ये दोनों काम संभव ही नहीं थे। दूसरे, अंशुमान मिश्रा की उम्मीदवारी का भाजपा संसदीय बोर्ड ने अनुमोदन नहीं किया था। यह सब निजी व्यवस्था के तहत हो रहा था। इससे सवाल उठता है कि अंशुमान मिश्रा में ऐसी क्या खूबी थी कि उन्हें किसी भी तरह से राज्यसभा में भेजने का प्रयास किया जा रहा था, यहां तक कि चोरी-छिपे भी। तीसरे, अंशुमान मिश्रा के शुरुआती विचार के विपरीत कि वह भाजपा में युवा भावनाओं के संवाहक हैं, अब उन्होंने खुद ही स्वीकार कर लिया है कि वह राजनीतिक वरदहस्त के इच्छुक व्यापारियों और भाजपा नेतृत्व के बीच की कड़ी के रूप में सक्रिय थे। उनका यह दावा राजनीतिक तूफान खड़ा करने की सोची-समझी चाल है कि उन्हें टेलीकॉम कंपनियों और 2जी स्पेक्ट्रम मामले की जांच कर रही लोकलेखा समिति के अध्यक्ष के बीच बैठक आयोजित कराने के लिए कहा गया था। भाजपा के शीर्ष नेता को निशाना बनाने को मिले इस नायाब अवसर को कांग्रेस हाथ से नहीं निकलने देने वाली। अंशुमान मिश्रा का कहना है कि वह लंदन से टपके कोई अजनबी नहीं हैं, बल्कि सालों से पार्टी को पैसा देते आ रहे हैं। यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि यह धनराशि भाजपा को चंदे के रूप में दी गई या फिर कुछ नेताओं की जेब गरम करने को? यह एक महत्वपूर्ण अंतर है। इस राशि का श्चोत क्या था? अपनी विचारधारात्मक परिकल्पाओं की पूर्ति के लिए उनके पास कोई भारी-भरकम उद्योग नहीं है, जहां से उनके पास मोटा पैसा आता हो। अंशुमान की खूबी व्यावसायियों को भाजपा के राजनेताओं के करीब लाना है। पश्चिम में इस प्रकार के बिचौलियों को लॉबिस्ट कहा जाता है। भारत में इस प्रकार के बिचौलियों को दलाल के नाम से संबोधित किया जाता है। इन सब सवालों के जवाब हमेशा अपुष्ट रहेंगे और अकसर काफी हद तक काल्पनिक भी। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अगर अंशुमान मिश्रा जैसे व्यक्तियों को राज्यसभा में भेजने के लिए राष्ट्रीय राजनीतिक दल प्रयास करेंगे तो इससे भारतीय राजनीति की गुणवत्ता में सुधार नहीं होने वाला। अंशुमान को राज्यसभा में भेजने के प्रयास से भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के मूल्यों के बारे में पता चलता है। क्या उन्हें नहीं पता है कि चंदे के बदले राज्यसभा में भेजना उन लाखों लोगों के विश्वास को तोड़ना है, जो पार्टी से जुड़े हुए हैं। अंशुमान मिश्रा ने खुद को अनावृत कर दिया है। उनकी भावनाओं को ठेस लगी है कि जिस क्लब की सदस्यता के लिए वह पैसा दे चुके हैं उसकी सदस्यता से उन्हें वंचित कर दिया गया है, किंतु जिन्होंने राजनीतिक जगत में अंशुमान मिश्रा जैसे लोगों के प्रवेश की अनुमति दी है अब खुद को निर्दोष सिद्ध करने का कपटी प्रयास कर रहे हैं। वे अंशुमान मिश्रा को राज्यसभा में भेजने के प्रयास के आरोप से पल्ला झाड़ रहे हैं। अंशुमान मिश्रा जैसे जीवों के प्रायोजकों को इस कृपादृष्टि का जवाब देना होगा। स्मरण रहे कि कुछ साल पहले ही भाजपा ने चोरी-छिपे अपने एक नेता के उम्मीदवार को उत्तर प्रदेश से निर्दलीय के रूप में राज्यसभा में भेजने का प्रयास किया था। इस व्यक्ति ने विधायकों का समर्थन हासिल करने के लिए उन्हें प्रलोभन देने का प्रयास किया था। यह प्रयास तो विफल हो गया, किंतु वह महानुभाव भाजपा में बने रहे और चुनाव के दौरान महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभालते रहे हैं। राजनीतिक पतन पर केवल भाजपा का ही एकाधिकार नहीं है। कांग्रेस इस दौड़ में काफी आगे है, किंतु यह तथ्य चौंकाने वाला है कि भाजपा भी अपनी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पार्टी की भाषा बोल रही है। कभी भाजपा साफ-सुथरी छवि की बातें करती थी, जो सार्वजनिक जीवन में मूल्यों की स्थापना के इच्छुक लोगों को काफी आकर्षित करती थी। जैसाकि लालकृष्ण आडवाणी कहा करते हैं, भाजपा राजनीति की एके हंगल है। खुद को कांग्रेस की बराबरी पर लाने के प्रयास में भाजपा अनैतिक लोकप्रियता की शिकार बन गई है। आज नेतृत्व के कुछ विशेषाधिकार हो गए हैं। अगर उन्होंने ईमानदारी की आमदनी के बल पर शानशौकत वाली जीवनशैली अपनाई हो तो किसी को कोई शिकायत नहीं होगी, किंतु वे इन सुविधाओं पर खुद का पैसा नहीं लगाते, बल्कि यह अपेक्षा रखते हैं कि कोई और आकर उनकी सेवा-सत्कार करेगा। ऐसे प्रायोजकों की कमी नहीं है। व्यवस्था में फिक्सरों की अहमियत तोहफों और मुफ्त की चार्टर्ड हवाई यात्राओं तक बढ़ गई है, किंतु चूंकि मुफ्त में कुछ नहीं मिलता इसलिए नेताओं को तब परेशान नहीं होना चाहिए जब राज्यसभा के चुनाव से पहले ही उनके समक्ष मांग रख दी जाती है। राजनीतिक सत्ता के विखंडन के दुष्परिणामों में एक यह है कि दलाल केवल सत्तारूढ़ दल तक ही सीमित नहीं रह गए हैं। विपक्षी दलों के पास भी अपनी उपस्थिति दर्शाने के लिए पर्याप्त ताकत है। इसीलिए एक चुनाव में हार से राजनेताओं की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे पता चलता है कि भाजपा में क्यों सत्ता की भूख मरती जा रही है? आखिर विपक्ष में रहकर भी तो लोगों पर कृपा की जा सकती है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

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