Wednesday, March 28, 2012

निर्धनता की शर्मनाक अनदेखी

गरीबी के संदर्भ में योजना आयोग के आंकड़ों के आधार पर नीति-नियंताओं की नीयत पर सवाल खड़े कर रहे हैं डॉ. निरंजन कुमार
योजना आयोग द्वारा गरीबी रेखा के नए निर्धारण से उठे ताजा विवाद को पूरे परिप्रेक्ष्य में समझने के पहले गरीबी और गरीबी के अनुभव की कथा से इस लेख की शुरुआत करना चाहता हूं। दो पक्षों की इस कथा में एक तरफ भारतीय मूल के दो युवक हैं, जिन्होंने अमेरिका में उच्च शिक्षा प्राप्त की और देश की सेवा के लिए वापस आते हैं। वे गांधीजी का अनुकरण करते हुए उस भारत को समझना चाहते हैं जो असली भारत की तस्वीर है। गांधीजी ने कहा था कि लोगों की सेवा के लिए सिर्फ सहानुभूति ही नहीं समानुभूति भी जरूरी है। इसीलिए अमेरिका रिटर्न दो भारतीय नौजवान तुषार वशिष्ठ और मैथ्यू चेरियन गरीबी रेखा के लिए निर्धारित अत्यल्प पैसे में जीवन गुजारने का प्रयोग करते हैं। दूसरी तरफ गगनचुंबी अट्टालिकाओं के एयर कंडीशनर में बैठे हुए योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे हमारे नीति-निर्धारक हैं, जिन्हें देश की गरीबी और गरीबों पर इतनी शर्म आ रही है कि गरीबी हटाने के लिए जैसे गरीबों को ही हटाने का कार्यक्रम बना लिया है। अहलूवालिया ने कहा कि कुछ लोग देश को जानबूझकर गरीब दिखाना चाहते हैं, जबकि देश में गरीबों की संख्या तो बहुत कम हो गई है। वर्तमान विवाद योजना आयोग के इस दावे से उठा कि 2004-05 से 2009-10 में गरीबी में पर्याप्त कमी आई है और यह 7.4 प्रतिशत घटकर अब 29.8 प्रतिशत तक रह गई है और इस नकली कमी को दिखाने के लिए गरीबी रेखा की सीमा को ही शर्मनाक रूप से बहुत कम कर दिया। यह सीमा रेखा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति 22.42 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 28.65 रुपये तय की गई। अहलूवालिया जैसे हमारे नीति-निर्धारकों को शायद सपने में भी नहीं अहसास है कि गरीबी क्या होती है। अभी कुछ ही महीनों पहले सुप्रीम कोर्ट और सामजिक कार्यकर्ताओं के साथ- साथ सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के कुछ सदस्यों की फटकार से योजना आयोग और सरकार तब बैकफुट पर आ गई थी जब मोंटेक सिंह ने गरीबी रेखा को 32 और 26 (वर्तमान से कुछ ज्यादा ही) रुपये तय किया था, लेकिन लगता है कि सरकार उस घटना से सबक नहीं लेना चाहती है। उस समय की गरीबी रेखा के निर्धारण के बाद तुषार और मैथ्यू ने इतने कम रुपये में जीवन जीने का प्रयोग किया। शुरुआत उन्होंने 100 रुपये प्रतिदिन खर्च से की। एक महीने इस जिंदगी के बाद उन्होंने महसूस किया कि 100 रुपये में सिर्फ खाने, पहनने, रहने के साथ अति साधारण जीवन ही जिया जा सकता है। उत्तम शिक्षा, स्वास्थ्य, अच्छा जीवन स्तर और उच्च सामजिक गतिशीलता फिर भी एक सपना ही है। फिर इन दोनों ने एक गांव में जाकर 26 रुपये प्रतिदिन में जीने का प्रयोग किया। एक महीने का यह अनुभव अत्यंत मर्मातक सिद्ध हुआ। इन्होंने पाया कि इस पैसे में वे सिर्फ 1100 से 1200 कैलोरी का भोजन कर सकते थे। एक सामान्य इंसान को 2100 से 2400 कैलोरी भोजन की जरूरत होती है (जबकि मेहनतकश लोगों को तो 3000 से भी ज्यादा कैलोरी चाहिए)। इनका न केवल ग्लूकोज स्तर घट गया, बल्कि जीवन की बुनियादी सुविधाएं खाने-रहने-पहनने को वे तरसने लगे थे। सारा समय वे सिर्फ खाने के बारे में सोचते थे। उत्तम शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, अच्छे जीवन की कल्पना और जीवन में आगे बढ़ने की तमन्ना तो सपने में भी नहीं आती थी। मेहनत करने की क्षमता नहीं के बराबर रह गई थी। शायद कुछ ऐसी ही है भारत के गरीबों के लिए हमारे योजना आयोग की योजना, जिसे बहुसंख्य भारतीयों की समस्याओं से जैसे कोई मतलब ही न हो। संप्रग सरकार के ही द्वारा गठित अन्य आयोगों और समितियों के निष्कर्ष कुछ और ही हैं। अप्रैल 2009 में आई अर्जुनसेन गुप्ता रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 77 प्रतिशत से ज्यादा लोग प्रतिदिन 20 रुपये से कम पर जिंदगी बसर कर रहे हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित एनसी सक्सेना समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि भोजन कैलोरी के आधार पर 50 प्रतिशत से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। इसी तरह ऑक्सफोर्ड पावर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिएटिव ने 2010 में यूनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम के लिए मल्टी डाइमेंशनल पावर्टी इंडेक्स तैयार किया, जिसमे बताया गया है कि 53.7 प्रतिशत भारतीय लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं। आज सरकार का समर्थन कर रहे सपा जैसे दल भी योजना आयोग के आंकड़ों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। सरकार और योजना आयोग पिछली बार फटकारे जाने के बाद भी फिर ऐसा क्यों कर रहे हैं? इसके कई कारण हैं। एक तो यह कि गरीबों की कम संख्या दिखाकर ये वाहवाही लूटना चाहते हैं तो दूसरी तरफ विभिन्न योजनाओं के तहत गरीबों पर खर्च की जाने वाली राशि, खास तौर से प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के माध्यम से होने वाले व्यय में सरकार कटौती करना चाहती है। तीसरे, इस तरह सरकारी धन को बचाकर आर्थिक सुधार के नाम पर कारपोरेट जगत को दी जाने वाली सब्सिडी में वृद्धि करना चाहती है और अंतत: गरीबी दूर करने में असफलता के लिए जिम्मेदार विभिन्न घोटालों, भ्रष्टाचार, नीतिगत नाकामियों, नेताओं और अफसरों के निकम्मेपन और देश के संसाधनों के दुरुपयोग आदि पर पर्दा डालना चाहती है, लेकिन इन्हें अहसास नहीं कि उनके इन कदमों से क्या सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक दुष्परिणाम हो रहे हैं। एक तरफ यह सामाजिक असंतोष को जन्म दे रहा है और देश में बढ़ते हुए अपराध, नैतिक गिरावट आदि के लिए एक हद तक जिम्मेदार है तो दूसरी तरफ आर्थिक रूप से भी यह नुकसानदेह है। तीसरे, राजनीतिक रूप से भी यह स्थिति खतरनाक है। देश में चल रहे नक्सलवादी जैसे विभिन्न उग्रपंथी आंदोलनों की जड़ में भी ऐसी ही जनविरोधी नीतियां हैं। (लेखक दिल्ली विवि में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

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