साभार :- दैनिक जागरण
Wednesday, March 28, 2012
अधूरे आश्वासन
भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने वालों की सुरक्षा के लिए सक्षम कानून बनाने को लेकर अन्ना हजारे के एक दिनी अनशन पर दिल्ली और शेष देश की प्रतिक्रिया कुछ भी हो, इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि उन कानूनों के निर्माण में अनावश्यक विलंब हो रहा है जो भ्रष्ट तत्वों को हतोत्साहित करने में सहायक हो सकते हैं। अन्ना हजारे के इस एक दिनी अनशन पर कांग्रेस प्रवक्ता के इस कथन का कोई मतलब नहीं कि कानून बनाना संसद का काम है। क्या किसी ने यह कहा है कि संसद को कानून नहीं बनाना चाहिए? सच तो यह है कि हर कोई इससे परिचित है कि कानून बनाना विधायिका का काम है, लेकिन बेहतर हो कि जो लोग विधायिका का हिस्सा हैं उन्हें यह अहसास हो कि वे अपना काम सही तरह से नहीं कर पा रहे हैं और इसका सबसे बड़ा उदाहरण लोकपाल विधेयक का पारित न हो पाना है। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि संसद में इस विधेयक को पारित करने का देश को जो आश्वासन दिया गया था वह पूरा नहीं हो सका? निराशाजनक यह है कि संसद का एक और सत्र शुरू हो जाने के बावजूद यह कहना कठिन है कि आने वाले दिनों में देश का राजनीतिक नेतृत्व एक कारगर लोकपाल व्यवस्था का निर्माण करने में सक्षम हो सकेगा। व्हिसल ब्लोअर एक्ट के संदर्भ में इस तथ्य का उल्लेख करने मात्र से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं कि सरकार भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने वालों की हिफाजत के लिए एक प्रभावी तंत्र बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। देश जानना चाहेगा कि आखिर यह प्रतिबद्धता कब पूरी होगी? यह सवाल इसलिए, क्योंकि व्हिसल ब्लोअर एक्ट को पारित कराना उतना जटिल नहीं जितना लोकपाल विधेयक को पारित कराना हो गया है। यह समझना कठिन है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने में सबसे आगे रहने का दावा करने वाली कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता उन नियम-कानूनों के संदर्भ में इतनी सुस्त क्यों है जो घपले-घोटालों पर अंकुश लगाने के लिए आवश्यक माने जा रहे हैं? निश्चित रूप से प्रतिबद्धता निष्कि्रयता का पर्याय नहीं हो सकती, लेकिन केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता और निष्कि्रयता में फर्क करना मुश्किल होता जा रहा है। वह जो कुछ कहती है उसे अमल में नहीं ला पाती। दुर्भाग्य से यह स्थिति केवल भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के कानूनों के निर्माण के मामले में ही नहीं, बल्कि अन्य अनेक मामलों में भी नजर आ रही है। केंद्र सरकार की निष्कि्रयता के चलते देश-दुनिया को यही संदेश जा रहा है कि वह निर्णयहीनता से इतनी अधिक ग्रस्त हो चुकी है कि उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा है। निश्चित रूप से मुद्दा यह नहीं है कि भ्रष्टाचार की रोकथाम के मामले में अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों के विचार क्या हैं? मुद्दा तो यह है कि उन सवालों को उठाने के लिए अन्ना हजारे, उनके साथियों और समर्थकों को बार-बार आगे क्यों आना पड़ रहा है जो कथित तौर पर केंद्रीय सत्ता की प्राथमिकता सूची में हैं? केंद्र सरकार को यह अधिकार है कि वह अन्ना हजारे, उनकी गतिविधियों और उनके बयानों की अनदेखी कर सकती है, लेकिन इसकी उपेक्षा नहीं कर सकती कि उसने देश को जो आश्वासन दिए थे वे पूरे नहीं हो पा रहे हैं।
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