Wednesday, March 28, 2012

गरीबों के साथ फिर गड़बड़ी

योजना आयोग ने जिस तरह गरीबी निर्धारण के मानदंड तय करने के लिए विशेषज्ञों के एक समूह के गठन का फैसला लिया उससे एक बार फिर केंद्र सरकार की फजीहत ही हुई है। इस फजीहत के लिए वही जिम्मेदार है। केंद्र सरकार इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकती कि कुछ समय पहले जब योजना आयोग के आकलन के आधार पर उसने शपथपत्र देकर यह कहा था कि गांवों में 26 और शहरों में 32 रुपये प्रतिदिन व्यय करने वाले लोग निर्धन नहीं माने जा सकते तो उसका हर स्तर पर विरोध हुआ था। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस विरोध के बावजूद केंद्र सरकार ने योजना आयोग की उस रपट को स्वीकार कर लिया जिसमें यह माना गया है कि गांवों में 22 और शहरों में 28 रुपये प्रतिदिन खर्च कर सकने वाले लोग गरीब नहीं माने जाने चाहिए। देश के लिए यह समझना कठिन है कि आखिर चंद महीनों में गरीबी रेखा तय करने के मानदंड बदल कैसे सकते हैं? इससे भी अधिक आश्चर्यजनक यह है कि आय संबंधी गरीबी का पैमाना घटाया कैसे जा सकता है? इससे तो यह लगता है कि न तो योजना आयोग ने अपना काम सही ढंग से किया और न ही केंद्र सरकार ने। गरीबी निर्धारण में जिस तरह एक बार फिर गड़बड़ी हुई उससे नए सिरे से इसकी पुष्टि होती है कि केंद्र सरकार और उसके नीति-नियंता जमीनी यथार्थ से पूरी तरह कट गए हैं। केंद्र सरकार की ओर से किसी को यह बताना चाहिए कि किन कारणों से योजना आयोग के इस आकलन को स्वीकार कर लिया गया कि गांवों में 22 और शहरों में 28 रुपये प्रतिदिन से अधिक आय वाले लोग गरीब नहीं कहे जाएंगे? क्या केंद्र सरकार को इसका अहसास नहीं था कि उसके लिए इन मानदंडों को उपयुक्त ठहराना टेढ़ी खीर साबित होगा? इस पर आश्चर्य नहीं कि विपक्ष तो योजना आयोग पर हमलावर है ही, खुद सत्तापक्ष के प्रतिनिधि भी उसका बचाव नहीं कर सके। यदि विपक्षी दल योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के साथ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं तो इसके लिए किसी अन्य को दोष नहीं दिया जा सकता। फिलहाल यह कहना कठिन है कि गरीबी निर्धारण के तौर-तरीके तय करने के लिए योजना आयोग के तहत जो विशेषज्ञ समूह गठित किया जाना है वह किस नतीजे पर पहुंचेगा, लेकिन आम जनता यह महसूस करने के लिए विवश है कि केंद्र सरकार जानबूझकर गरीबी निर्धारण के ऐसे तौर-तरीकों को मान्यता प्रदान करना चाहती है जिससे यह साबित किया जा सके कि निर्धन परिवार कम आय में भी गुजर-बसर करने में समर्थ हैं। केंद्र सरकार इस यथार्थ की अनदेखी नहीं कर सकती कि भारत में एक बड़ी आबादी निर्धनता के दलदल में फंसी हुई है। केंद्र सरकार गरीबों की संख्या के बारे में चाहे जैसे दावे क्यों न करे, एक नहीं अनेक स्तरों पर यह सामने आ चुका है कि भारत मानव विकास सूचकांक के लिहाज से दयनीय स्थिति में है। केंद्र सरकार को यह समझना ही होगा कि सच्चाई की अनदेखी करने से उसका काम आसान होने वाला नहीं है। यदि एक बड़ा तबका निर्धनता में गुजर-बसर करता रहता है तो देश का समग्र विकास नहीं होने वाला। आवश्यक केवल यह नहीं है कि केंद्र सरकार गरीबी निर्धारण के तौर-तरीकों के मामले में ईमानदारी का परिचय दे, बल्कि यह भी है कि उसे उन उपायों पर भी ध्यान देना चाहिए जिससे एक सामान्य परिवार अपना जीवन यापन सही तरह से कर सके।
साभार :- दैनिक जागरण

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