Monday, March 5, 2012

सही काम का गलत तरीका

एनसीटीसी का मसला ठंडे बस्ते में चले जाने के लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार मान रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश

केंद्र सरकार के राष्ट्रीय आतंक रोधी केंद्र (एनसीटीसी) के गठन के कदम पर दर्जन भर मुख्यमंत्रियों की भृकुटियां तन गई हैं। एनसीटीसी को आतंकी गतिविधियों में लिप्त रहने या फिर इसकी योजना बनाने वाले किसी भी व्यक्ति की तलाशी लेने और उसे गिरफ्तार करने का अधिकार होगा। पहली नजर में यह विचित्र लग सकता है कि मुख्यमंत्री इस आतंकरोधी पहल का विरोध क्यों कर रहे हैं, जबकि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें भारत की एकता-अखंडता के लिए खतरा बन गए आतंकवाद को खत्म करने की प्रतिबद्धता जताती रहती हैं, किंतु गहराई से देखने पर समझ में आ जाता है कि समस्या राष्ट्रीय स्तर पर पूर्ण सशक्त आतंकवाद रोधी एजेंसी के गठन में नहीं है, बल्कि उस तरीके में है जिसमें केंद्र सरकार और खास तौर से गृहमंत्री इस विचार को क्रियान्वित करना चाहते हैं। आतंकवादी गतिविधियां रोकने के लिए मजबूत, समन्वित कार्रवाई की जरूरत पर राष्ट्रीय सहमति है। केंद्रीय गृह मंत्रालय को बस इतना करना था कि वह एनसीटीसी के गठन के बारे में राज्यों से विचार-विमर्श के आधार पर फैसला लेता। स्पष्ट है, राज्य इस औचक फैसले से स्तब्ध रह गए और गृहमंत्री के इस रवैये से चिढ़ गए कि मैं जानता हूं आपके लिए क्या अच्छा है? परिणामस्वरूप बैरभाव इतना बढ़ गया कि करीब एक दर्जन मुख्यमंत्री इसके विरोध में खुलकर खड़े हो गए। इनमें ऐसे मुख्यमंत्री भी शामिल हैं जो केंद्र में सत्तारूढ़ संप्रग गठबंधन के सहयोगी दलों से हैं। केंद्र सरकार का रवैया समझ से परे है। इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को देश के तमाम मुख्यमंत्रियों से बातचीत करके उन्हें राजी करना चाहिए था। इसके विपरीत उनका व्यवहार ऐसा था जैसे अभी भी एकल पार्टी का शासन है और केंद्र को जो सही लगेगा वह राज्यों पर थोप दिया जाएगा। सच यह है कि 70 फीसदी से अधिक मतदाताओं ने पिछले आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी को नकार दिया था, फिर भी वह उन खुशगवार दिनों में खोई है जब केंद्र और अधिकांश राज्यों में कांग्रेस का एकछत्र राज था। यद्यपि कांग्रेस एक गठबंधन का अंग है, लेकिन वह अब भी मानती है कि वह देश की एकमात्र शासक है। इसीलिए वह राज्यों से बात करने में अपनी हेठी समझती है। इसी कारण उसे तृणमूल कांग्रेस जैसे गठबंधन के छोटे साझेदारों के हाथों शर्मिदगी झेलनी पड़ती है। एनसीटीसी विवाद से हमें यही पता चलता है कि पार्टी गठबंधन धर्म और इससे भी महत्वपूर्ण गठबंधन आचरण के सरल नियमों का पालन करना नहीं सीख पाई है। मुख्यमंत्रियों को इस पर आपत्ति है कि एनसीटीसी को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) कानून के 43 ए और 43 बी प्रावधानों वाली शक्तियां दे दी गई हैं। यह एक मजबूत कानून है जो उन लोगों को दंडित करने के लिए बनाया गया है जो भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को चुनौती देते हैं अथवा आतंक या किसी अन्य माध्यम से शांति एवं व्यवस्था के लिए खतरा उत्पन्न करते हैं। ये प्रावधान एक केंद्रीय बल को संदिग्ध व्यक्तियों की गिरफ्तारी, तलाशी और छापेमारी अभियान चलाने का अधिकार देते हैं। राज्यों का कहना है कि ये प्रावधान संविधान द्वारा लोक व्यवस्था कायम रखने के लिए उन्हें दिए गए अधिकारों पर आघात करते हैं। उनकी दलील यह है कि कानून एवं व्यवस्था कायम रखना राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है और इस काम में केंद्र का दखल ठीक नहीं है। उनका यह भी कहना है कि केंद्र एनसीटीसी के जरिए उनके अधिकार क्षेत्र में दखल देने की सोची-समझी रणनीति पर चल रहा है। मुख्यमंत्रियों की चिंताओं का तब समाधान किया जा सकता है जब कुछ केंद्रीय मंत्री अपने अहंकारी रवैये का परित्याग करें और यह महसूस करें कि राज्यों में कुछ ऐसे नेता हैं जो राष्ट्रीय सुरक्षा और देश की एकता के लिए ज्यादा नहीं तो उतना ही चिंतित हैं जितना कि केंद्र सरकार। सच तो यह है कि केंद्र सरकार सरकारिया आयोग की रपट पर निगाह डाल सकती है जो संघ के सिद्धांत पर विश्वास करने वालों के लिए किसी बाइबिल से कम नहीं है। आयोग ने अपनी रपट में आंतरिक सुरक्षा पर संकट से निपटने के लिए केंद्रीय बलों की तैनाती के संदर्भ में अपने कुछ सुझाव दिए हैं। उसके मुताबिक किसी राज्य में सशस्त्र बलों की तैनाती के समय उस पर नियंत्रण, निगरानी और प्रशासन के अधिकार केंद्र अथवा उसके द्वारा नियुक्त अधिकारियों के पास होने चाहिए। अर्थात तैनाती के समय शक्ति, न्यायाधिकरण, विशेषाधिकार तथा बल के सदस्यों की जिम्मेदारी से संबंधित सभी पक्ष केंद्र सरकार के पास होने चाहिए। इससे केंद्र सरकार को बल के विभिन्न सदस्यों द्वारा की जाने वाली कार्रवाई के संदर्भ में जरूरी प्रशासनिक ढाल मिलती है। हालांकि आयोग राज्यों में केंद्रीय बलों की तैनाती के संदर्भ में इस तरह की शक्तियां केंद्र सरकार को देते हुए एक अन्य व्यवस्था भी करता है। उसके अनुसार केंद्र सरकार आंतरिक उपद्रव से निपटने के लिए संबंधित राज्य की पुलिस और कानून एवं व्यवस्था कायम रखने का दायित्व संभालने वाले प्रशासनिक तंत्र को किनारे कर अकेले जिम्मेदारी नहीं ले सकती और न ही केंद्र सरकार अपेक्षाकृत कम गंभीर नजर आने वाले संकट से निपटने के लिए राज्य की इच्छा के खिलाफ उसके यहां केंद्रीय बल को तैनात कर सकती है। इतना ही नहीं, आयोग यह भी कहता है कि बीएसएफ सरीखे अ‌र्द्धसैनिक बलों की तैनाती की स्थिति में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि तमाम संबंधित पुलिस कार्य राज्य की पुलिस द्वारा ही किए जाएं। आयोग के मुताबिक राज्य की पुलिस पर ही बुनियादी रूप से लोक व्यवस्था कायम रखने की जिम्मेदारी है और यह कतई नहीं होना चाहिए कि बीएसएफ अथवा सेना राज्य पुलिस के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कर ले। एनसीटीसी के प्रभावशाली रूप से काम करने के लिए जरूरी है कि सरकारिया आयोग की इन सिफारिशों पर सही तरह अमल हो और उनकी मूल भावना के अनुरूप काम किया जाए। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इस मामले में अभी तक केवल अपने हिसाब से काम किया है। सच तो यह है कि वह राज्यों से निपटने के मामले में बुनियादी शिष्टाचार प्रदर्शित करने में असफल रहा है। उसे इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि कई राज्यों में बहुत काबिल मुख्यमंत्री बेहद प्रभावशाली तरीके से शासन कर रहे हैं। राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने केंद्र सरकार के रवैये का विश्लेषण करते हुए बिल्कुल सही कहा है कि वह शासन की कला ही भूल गई है। सच्चाई यह है कि संप्रग सरकार 2004 में जब से केंद्र की सत्ता में आई है तभी से वह राजनय का परिचय नहीं दे पा रही है। यही कारण है कि आतंकवाद के खिलाफ एकीकृत मोर्चा बनाने के स्थान पर संकीर्ण स्वार्थो वाले खेल खेले जा रहे हैं और दुर्भाग्य यह है कि हम सभी को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

No comments: