Monday, March 5, 2012

निराशाजनक आंकड़े

मौजूदा वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर के घटकर 6.1 प्रतिशत पर पहुंच जाने से यह और अच्छे से स्पष्ट हो गया कि केंद्र सरकार अपना काम सही तरह नहीं कर पा रही है। यह वृद्धि दर कितनी निराशाजनक है, इसका पता इससे चलता है कि यह पिछले तीन साल के निम्नतम स्तर पर है और पिछले वित्त वर्ष की इसी अवधि के मुकाबले 2.2 प्रतिशत कम है। लगातार सातवीं तिमाही में विकास दर में गिरावट के आंकड़े सामने आने के बाद केंद्र सरकार के उन नीति-निर्माताओं पर यकीन करने का कोई कारण नहीं जो भविष्य में बेहतर तस्वीर दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी यह कोशिश लगातार नाकाम हो रही है। इसका एक प्रमाण यह है कि अगली तिमाही में भी हालात बदलने के कोई आसार नहीं। चिंताजनक केवल यही नहीं है कि रह-रहकर आर्थिक विकास दर के निराशाजनक आंकड़े सामने आ रहे हैं, बल्कि यह भी है कि राजकोषीय घाटा बढ़ता जा रहा है और सब्सिडी कम करने के उपायों पर अमल मुश्किल हो रहा है। ऐसा लगता है कि मनरेगा सरीखी योजनाओं के जरिये दोबारा सत्ता में आने में सफल रही संप्रग सरकार ने यह मान लिया कि उसे अपने दूसरे कार्यकाल मेंऔर कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। अब स्थिति यह है कि एक ओर सब्सिडी का बोझ बढ़ता जा रहा है और दूसरी ओर भारी-भरकम धनराशि वाली जनकल्याणकारी योजनाएं अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रही हैं। आज मनरेगा और एनआरएचएम जैसी योजनाएं भ्रष्टाचार के लिए अधिक चर्चा में हैं। विडंबना यह है कि इन योजनाओं में धन के दुरुपयोग पर लगाम लगाने की कोई ठोस व्यवस्था किए बगैर कुछ ऐसी ही अन्य योजनाओं को आगे बढ़ाने की कोशिश हो रही है। अब यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि संप्रग सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में आर्थिक विकास के लिए जो तौर-तरीके चुने वे अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ रहे हैं। कोई भी सरकार लोक-लुभावन नीतियों पर तभी आगे बढ़ती रह सकती है जब वह अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने में सक्षम रहे, लेकिन शायद संप्रग शासन के नीति निर्माता यह समझने के लिए तैयार नहीं कि आर्थिक विकास की बाधाओं को हटाने और विकास दर में गिरावट को रोकने के लिए ठोस फैसले लिए बगैर बात बनने वाली नहीं है। इससे इंकार नहीं कि आर्थिक विकास दर में गिरावट का एक बड़ा कारण अंतरराष्ट्रीय आर्थिक परिदृश्य भी है, लेकिन केवल वैश्विक माहौल को दोष देना सच्चाई से मुंह मोड़ना है। आर्थिक विकास में अनेक बाधाएं सिर्फ इसलिए खड़ी हो गई हैं, क्योंकि केंद्र सरकार फैसले लेने के बजाय हाथ पर हाथ रखे बैठी हुई है। नीतिगत फैसले लेने में अनावश्यक देरी का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह है कि निवेश के प्रति उपयुक्त माहौल का निर्माण भी नहीं हो पा रहा है। सरकार की निर्णयहीनता समस्याओं को बढ़ाने का ही नहीं, बल्कि उन्हें उलझाने का भी काम कर रही है। यह लगभग तय है कि आर्थिक विकास के ताजा आंकड़े बजट तैयार करने में लगे नीति निर्माताओं के लिए चिंता का विषय बनेंगे। आगामी बजट केंद्र सरकार की कठिन परीक्षा लेगा। इस कठिन परीक्षा के लिए वही उत्तरदायी है, क्योंकि उसने अपनी सुस्ती से समस्याओं को कहीं अधिक गंभीर बना दिया है।
साभार :- दैनिक जागरण

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