Wednesday, March 28, 2012

राजनीति का कृष्ण पक्ष

मध्यावधि चुनाव की चर्चाओं के बीच राजनीति की दिशा-दशा पर निगाह डाल रहे हैं डॉ. गौरीशंकर राजहंस
जब से उत्तर प्रदेश में सपा को विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत मिला है, पूरे देश में यह चर्चा हो रही है कि क्या इस मौके का फायदा उठाकर समाजवादी पार्टी देश में मध्यावधि चुनाव करा सकती है? सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह ने पहले तो राम मनोहर लोहिया की जन्म शताब्दी के अवसर पर कहा कि उनके कार्यकर्ता इसके लिए तैयार रहें कि मध्यावधि चुनाव 2014 के पहले भी हो सकते हैं। इसके ठीक बाद उन्होंने कहा कि सपा को केंद्र में सरकार बनाना है और यह तभी संभव है जब उत्तर प्रदेश की सारी सीटें सपा जीत ले। इसमें अधिक संदेह नहीं कि यदि उत्तर प्रदेश की तीन-चौथाई लोकसभा की सीटें भी सपा को मिल गई तो अन्य पार्टियों के साथ जोड़-तोड़ करके वह केंद्र में सरकार बना सकती है। आखिर इस देश में देवगौड़ा और गुजराल भी तो प्रधानमंत्री हुए हैं जिनकी पार्टियों को कोई मजबूत आधार प्राप्त नहीं था। अब ऐसा प्रतीत होता है कि चाहे मध्यावधि चुनाव हों या नियत समय पर 2014 में, किसी भी पार्टी को इतना बहुमत नहीं मिल सकता है कि वह अकेले सरकार बनाए। उसे निश्चित रूप से गठबंधन की सरकार बनानी होगी और गठबंधन सरकार में अलग-अलग पार्टियों के अलग-अलग एजेंडे होते हैं। मध्यावधि चुनाव के पक्ष और विपक्ष में कई तर्क दिए जा रहे हैं। कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि यदि कुछ महीनों के अंदर मध्यावधि चुनाव हो जाएं तो सपा को विधानसभा चुनाव में जो लोकप्रियता हासिल हुई है उसका लाभ उठाकर उसे लोक सभा में अधिक से अधिक सीटें मिल सकती हैं। देर होने पर सपा की लोकप्रियता घटने लगेगी और बहुत संभव है कि उसे उतनी भी सीटें नहीं मिलें जितनी उसे पहले मिली थीं। चुनाव में जाने के पहले सपा ने ऐसी घोषणाएं कर दीं जिसको पूरा करने के लिए हजारों करोड़ चाहिए। उत्तर प्रदेश सरकार का खजाना खाली है, फिर वह आखिर इतना पैसा कहां से लाएगी? दूसरी बात है कि जब से उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव हुआ है, पूरे राज्य में जगह-जगह सपा और बसपा के कार्यकर्ताओं में मारपीट हो रही है। इस कारण आम जनता को यह डर हो रहा है कि कहीं फिर से उत्तर प्रदेश में गुंडा राज कायम नहीं हो जाए। राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि आम जनता को रोजी-रोटी और मकान चाहिए। वह लैपटॉप और टैबलेट लेकर क्या करेगी? यह बात विशेषकर युवा वर्ग के लोगों के बारे में कही जाती है। सपा ने चुनाव के पहले यह घोषणा की थी कि बेरोजगार युवकों को 1000 रुपये महीना बेरोजागरी भत्ता दिया जाएगा। यह खबर आई है कि इस बेरोजगारी भत्ते के लिए जगह-जगह आवेदकों ने हंगामा मचा दिया और कई जगह तो उनकी अधिकारियों से मारपीट भी हो गई। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक है। ऐसे में लाखों लोगों को नियमित रूप से बेरोजगारी भत्ता सरकार कैसे दे पाएगी? यह योजना निश्चित रूप से फेल हो जाएगी और उस स्थिति में पहुंचने के पहले ही सपा चाहेगी कि मध्यावधि चुनाव हो जाए। साथ ही यह भी सही है कि तृणमूल का संबंध कांग्रेस के प्रति सौहार्दपूर्ण नहीं रह गया है। ऐसे में यदि किसी दिन सपा और बसपा ने समर्थन वापस ले लिया तो सरकार निश्चित रूप से गिर जाएगी। गठबंधन सरकार की मजबूरियां साफ झलक रही हैं। श्रीलंका से भारत का संबंध हाल तक निकटतम था। वहां गृहयुद्व में बुनियादी ढांचे का जो नुकसान हुआ था उसके पुनर्निर्माण में भारत जी जान से जुटा हुआ है, परंतु इस मामले में चीन भारत से कहीं आगे निकल गया है। श्रीलंका में चीन के बढ़ते हुए प्रभुत्व के कारण भारत सरकार पहले से चिंतित थी। अब द्रमुक और अन्नाद्रमुक के दबाव में श्रीलंका के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान कर भारत ने श्रीलंका को अप्रसन्न कर दिया है। गठबंधन सरकार की मजबूरियों के कारण केंद्र सरकार कई महत्वपूर्ण आर्थिक मामलों में कोई साहसपूर्ण कदम नहीं उठा पा रही है। संसार के कई देशों में गठबंधन सरकारें चल रही हैं, परंतु वहां जनता बार-बार सरकार पर दबाव डाल रही है कि वह ऐसा कोई काम नहीं करें जिससे मध्यावधि चुनाव की नौबत आ जाए। दूसरी ओर अपने देश में दुर्भाग्यवश हमारे राजनेता इस सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। वे जल्दी से जल्दी मध्यावधि चुनाव कराकर सत्ता में आना चाहते हैं। यदि मध्यावधि चुनाव हुए तो काला धन पानी की तरह बहेगा और देश में इतनी भयानक महंगाई आ जाएगी जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। गत रविवार को जंतर मंतर पर अन्ना हजारे ने केंद्र के खिलाफ हल्ला बोल दिया है और यह भी ऐलान किया है कि यदि उनके अनुसार 14 दागी केंद्रीय मंत्रियों पर एफआइआर दर्ज नहीं किया गया तो वे अगस्त से जेल भरो आंदोलन शुरू कर देंगे। उन्होंने और उनके समर्थकों ने जनलोकपाल बिल और चुनाव सुधारों की भी चर्चा की, परंतु सबसे अधिक खेद का विषय यह है कि अन्ना तो अपने भाषण में शालीन भाषा का प्रयोग करते रहे, परंतु उनके समर्थकों ने बदजुबानी की और राजनेताओं के खिलाफ ऐसी टिप्पणियां कर दीं जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। अनुभव यह बताता है कि लोगों को उभारना बहुत आसान होता है, परंतु उनको उभारने से अराजकता आ जाएगी। बाद में उन पर नियंत्रण पाना बहुत ही कठिन है। जेपी आंदोलन में भी 1977 में यही हुआ था। जनता की भावनाओं को उभार दिया गया था, लेकिन जो नेता जेपी आंदोलन की उपज थे उनमें से अधिक जब सत्ता में आए तब उन्होंने दोनों हाथों से जनता को लूटा। इसलिए जनभावना को उत्तेजित करने के पहले अन्ना को अपने समर्थकों को यह सीख देनी चाहिए कि वे अपनी जुबान पर नियंत्रण रखें और देश में कोई ऐसी स्थिति नहीं पैदा कर दें जिससे देश अराजकता के भंवर में फंस जाए। (लेखक पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

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