Thursday, February 16, 2012

सच्ची राह

श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-इस अनित्य और सुख रहित शरीर को प्राप्त कर। तू मेरा भजन कर। अनित्य और सुख रहित इस शरीर को पाकर हम जीते रहें और सुख भोगते रहें-ऐसी कामना को छोड़कर भगवान का भजन करते रहें। संसार में सुख है ही नहीं, केवल सुख का भ्रम है। ऐसे ही जीने का भी भ्रम है। हम जी नहीं रहे हैं, हर क्षण मर रहे हैं। इसलिए भगवान कहते हैं कि हमें क्षणिक विषय-वासनाओं के दल-दल में नहीं फंसना चाहिए। हम एक सुख के पीछे भागते हैं, परंतु उससे अनेक दुख पीछे लग जाते हैं। जो समदर्शी है, जो संसार के परिवर्तन को जानता है-सही मायने में वही ज्ञानी है, ज्ञाता है। जो भक्त है-वह जानता है कि यह संसार दुखरूप है। पीड़ा भी तभी तक है, जब तक परमात्मा हमारे जीवन में नहीं है। पीड़ा परमात्मा का अभाव है और आनंद परमात्मा की उपस्थिति का भाव। यदि जीवन में शांति है, प्रसन्नता है-तो समझ लेना चाहिए कि परमात्मा की करुणा बह रही है। यदि हम उस एक की शरण ले लें, तो सारी दरिद्रता मिट जाएगी। वह परमात्मा होता है अर्थात् दाता है। देता है तो हजारों हाथों से और लेता है तो भी हजारों हाथों से। वह चाहता है कि हम छल अथवा कपट रूपी चादर को ओढ़कर जीवन न बिताएं। वह चाहता है कि हम सरलता को साधें। वह चाहता है कि हमारे जीवन में प्रेम के फूल खिलें, करुणा की धारा बहे, क्षमा का भाव उपजे। जीवन में श्रेष्ठता लाएं, लोगों के काम आएं। देखिएगा, जीवन में आनंद कैसे नहीं आता है। परमात्मा का ध्यान हमेशा हमारे अंतर्मन में बना रहे, यह प्रार्थना की जानी चाहिए। आदि शंकराचार्य और भगवान बुद्ध ने कहा कि इस संसार में दुख ही दुख है, यह संसार अनित्य है, यहां जो आया है उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। परंतु जो जीवन कीक्षणभंगुरता को समझ जाते हैं और अपने जीवन को मुक्त करने हेतु लक्ष्य साध लेते हैं-वे इस सागर को पार कर जाते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण भी जीवन की यथार्थता को समझते हुए सचेत व सजग होते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। इसी में मानव कल्याण निहित है।
आचार्य अनिल वत्स
साभार :- दैनिक जागरण

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