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सच्चा पथ
ऋग्वेद में ईश्वर का आदेश है-यच्छुभं याथना नर: अर्थात् हे मानव जो शुभ है उस पर चलो। इस भौतिक संसार में रहते हुए हम भौतिक उपलब्धि प्राप्ति का ध्येय बनाते हैं। अपने परिश्रम के अनुसार लक्ष्य प्राप्त भी कर लेते हैं। धन की प्रचुरता होने पर यश मिलने पर मानव अहंकारी हो जाता है। धन का मद न हो, यह कठिन स्थिति है और जब धन या भौतिक उपलब्धियों की प्राप्ति के मद में हम धरातल पर नहीं रहते तो इस स्थिति में विवेक की नहीं सुनते और असत्य की राह पर चलने लगते हैं। कहते हैं-धतूरे को तो खाकर मानव पागल होता है, किंतु सोना तो पाकर ही मानव पागल हो जाता है। अत: ऐश्वर्य संपन्न होकर हमें अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है। यथार्थ के धरातल का हम हर क्षण अहसास करें कि हमें हमारा विवेक व धैर्य ही सत्पथ की ओर ले जाएगा। कोई निंदा करे अथवा प्रशंसा, लक्ष्मी आए अथवा चली जाए, मृत्यु आज हो या युगों पश्चात, न्याय पर चलने वाले कभी विचलित नहीं होते। यजुर्वेद में लिखा है- कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजी विषेच्छत् समा अर्थात सत्कर्म करता हुआ मनुष्य सौ वर्ष जीने की इच्छा करे। वेदों में दीर्घायु की कामना की गई है, किंतु सत्कर्म करते हुए। जीवन एक तप है। जीवन एक ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी राह है जो सत्पथ पर चलने वालों के लिए तलवार की धार पर चलने के सदृश है। जीवन की कठिन राह में कई राहें इतनी टेढ़ी आती हैं कि मानव को अत्यंत संभलकर चलना होता है। असत्य की खाई में गिरने के लिए उसमें कूदना नहीं पड़ता है बस थोड़ा सा विवेक छूटा, असत्य की ओर थोड़ा सा पैर खिसका और मानव खाई में जा गिरा। यदि ऐसा हो तो मानव को अपने उस कर्म का प्रायश्चित करते हुए भविष्य में संभलकर रहने का कठोर संकल्प लेना होगा और उस संकल्प पर डटे रहना होगा। अन्यथा वह खाई दलदल का रूप ले लेगी, जिसमें मानव स्वमेव धंसता जाएगा। तब वह सत्पथ से बहुत पीछे छूट जाएगा। यह सत्य है सत्पथ पर चले बगैर ईश्वर तक कदापि नहीं पहुंचा जा सकता, जो मानव का अंतिम ध्येय है।सरस्वती वर्मा
साभार :- दैनिक जागरण
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