Thursday, February 16, 2012

नाजुक फैसले की घड़ी

ईरान पर प्रतिबंधों के संदर्भ में भारत को अमेरिका का पिछलग्गू बनने के बजाय अपने हितों की रक्षा करने की नसीहत दे रहे हैं ब्रह्मा चेलानी
विश्व की बड़ी शक्तियों की भूराजनीति ने भारत की कूटनीतिक दुविधा को बढ़ा दिया है। उन्होंने अरब विद्रोह के माध्यम से अनेक तेल समृद्ध देशों को अपने वश में कर लिया है और दो पश्चिम विरोधी शक्तियों-ईरान व सीरिया पर दबाव बढ़ा दिया है। ईरान और अमेरिका मनोवैज्ञानिक युद्ध में उलझे हुए हैं। अमेरिकी रक्षामंत्री लिओन पैनेटा की इजरायल द्वारा ईरान पर हमले की चेतावनी के जवाब में तेहरान ने धमकी दी है कि ऐसा होने पर वह विश्व के सबसे महत्वपूर्ण तेल मार्ग को बंद कर देगा। इन धमकियों में निहित खतरा सैन्य टकराव में बदल सकता है। यह ईरान के खिलाफ अमेरिका के अप्रत्यक्ष युद्ध की घोषणा से रेखांकित हो जाता है। अमेरिका ने ईरान की आर्थिक रीढ़ तोड़ने के लिए उस पर तेल व्यापार संबंधी प्रतिबंध लगाए हैं। यह देखते हुए कि ईरान की विदेशी मुद्रा का 80 फीसदी तेल के निर्यात पर निर्भर करता है, तेल निर्यात पर प्रतिबंध और ईरान के सेंट्रल बैंक की संपत्तियों को जब्त करने की कार्रवाई से ईरान-अमेरिका सैन्य टकराव की आशंका बढ़ जाती है। विडंबना यह है कि ये प्रतिबंध इसी टकराव को रोकने के लिए लागू किए गए हैं। इतिहास गवाह है कि तेल प्रतिबंध और सैन्य टकराव में सीधा संबंध है। अमेरिका को हिला देने वाले 1941 के पर्ल हार्बर हमले का एक कारण यह भी था कि अमेरिका, ब्रिटेन और हालैंड की तिकड़ी ने 1939 में जापान पर तेल व्यापार प्रतिबंध लगा दिए थे, जिसके कारण जापान की हालत पतली हो गई थी। इस पृष्ठभूमि में भारत के भी इस भूराजनीतिक जंग में फंस जाने या फिर इस अप्रत्यक्ष लड़ाई का खामियाजा भुगतने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इजरायल के त्वरित आरोप कि दिल्ली कार बम विस्फोट के पीछे ईरान का हाथ है, को इस खतरे की आहट माना जा सकता है। एक अहम सवाल कोई नहीं उठा रहा है कि जब विश्व भारत पर ईरान से तेल न खरीदने का दबाव बढ़ा रहा है, तो ऐसे में ईरान भारत की भूमि पर आतंकी हमला क्योंकर करेगा। यह संभवत: सबसे खराब समय होगा जब ईरान अपनी आखिरी आर्थिक जीवनरेखा-भारत के साथ संबंध तोड़ने के बारे में सोचेगा, जबकि आज से पहले कभी ईरानी आतंकवाद की कोई घटना भारत में नहीं हुई है। सवाल यह भी है कि इजरायली खुफिया एजेंसी द्वारा ईरान के अंदर ही ईरानी परमाणु वैज्ञानिकों की कथित हत्याएं करने के बाद ईरान महज एक इजरायली दूत की पत्नी पर हमला क्यों करना चाहेगा? दिल्ली कार विस्फोट को सिर्फ एक बचकानी हरकत कहा जा सकता है? अगर ईरान इन विस्फोटों के पीछे होता तो यह हमला इतना हलका और लापरवाही भरा नहीं होते। कुल मिलाकर इस घटना से भारत पर ईरान के साथ ऊर्जा संबंध तोड़ने का दबाव बढ़ा है। यह दुखद है कि अल्पकालिक लाभ के लोभ में अमेरिका फारस की खाड़ी में दीर्घकालिक समस्याएं पैदा कर रहा है। अरब जगत में लोकतांत्रिक पारगमन को प्रोत्साहन देकर दीर्घकालीन लाभ उठाने के बजाय अमेरिका सामंती शासन वाले तेल शेखों के साथ संबंध प्रगाढ़ कर रहा है। इनमें सऊद घराना और कतर के शाही घराने शामिल हैं। इसके अलावा उसने बहरीन में लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के क्रूर दमन को लेकर भी अपनी आंखें मूंदे रखीं। इससे आंशिक रूप से व्याख्या होती है कि अरब विद्रोह के बावजूद तेल शेखशाही के एकछत्र राज में कोई बदलाव नहीं आया। ईरान के खिलाफ अमेरिका के ऊर्जा व्यापार प्रतिबंधों के कारण तेल की बढ़ती कीमतों से इन शेखों का खजाना और बड़ा होता जा रहा है। पिछली आधी शताब्दी के अनुभव से पता चलता है कि शेखों को तेल से जितनी अधिक कमाई होती है, उतना ही अधिक ये कट्टरता और उग्रवाद को बढ़ावा देते हैं। वास्तव में, ये जितनी संपदा अर्जित करते हैं, इस क्षेत्र में स्वतंत्रता का उतना ही अधिक मोल बढ़ जाता है। इस आलोक में, अमेरिका द्वारा ईरान प्रतिबंध कानूनों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी करने के प्रयास से भारत के लिए दोहरी मुसीबत खड़ी हो गई है। पहली मुसीबत यह कि भारत की ऊर्जा आयात विविधिकरण नीति को झटका लगने का नतीजा यह होगा कि भारत की इस्लामिक कट्टरता को बढ़ावा देने वाले शेखों पर निर्भरता बढ़ जाएगी। पिछले कुछ सालों से भारत के कुल कच्चे तेल निर्यात में ईरान की हिस्सेदारी घट कर 11 फीसदी रह गई है। इस हिस्सेदारी के और गिरने से भारत के तेल शोधक कारखानों के सामने नया संकट आ जाएगा। दरअसल, कच्चे तेल के मूल तत्वों-गुरुता और सल्फर की मात्रा की दृष्टि से तेल शोधक कारखाने तैयार किए जाते हैं। ईरान से आयातित तेल घटने से तेलशोधक कारखानों में बड़े पैमाने पर परिवर्तन करने होंगे, जो काफी महंगा पड़ेगा। दूसरे, अमेरिका अफगानिस्तान से वापसी की हड़बड़ाहट में है और इसके लिए भारतीय हितों की अनदेखी कर तालिबान के साथ समझौता करना चाहता है। ऐसे में अमेरिकी प्रतिबंधों के घोड़े पर सवार होने से भारत एक ऐसे देश के साथ अपने संबंध खराब कर लेगा जो अफगानिस्तान संकट के आड़े दिनों में भारत के काम आ सकता है। अमेरिका की अफगानिस्तान से विदाई के बाद भारत के लिए ईरान की भूराजनीतिक भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाएगी। यह नहीं भूलना चाहिए कि ईरान-अमेरिका में लंबे समय से जारी छद्म युद्ध में अनेक मुद्दों पर अमेरिका का साथ देकर भारत पहले ही भारी नुकसान झेल चुका है। इसके बावजूद अमेरिका भारत-चीन और भारत-पाक मामलों में भारत का साथ नहीं देता। बुश प्रशासन ने भारत पर दबाव डालकर ईरान के साथ दीर्घकालीन तेल समझौते नहीं करने दिए और न ही ईरान-भारत गैस पाइपलाइन को सिरे चढ़ने दिया। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में 2005 और 2006 में ईरान के खिलाफ मतदान करके भारत ने ईरान के साथ 22 अरब डॉलर की तरल प्राकृतिक गैस संधि रद करवा डाली, जिसकी शर्ते भारत के हित के अनुकूल थीं। आज, जो देश ईरान के खिलाफ तेल व्यापार प्रतिबंध लागू करना चाहते हैं, वे ईरान से या तो तेल खरीदते ही नहीं हैं या फिर नामचारे का तेल खरीदते हैं। दूसरी तरफ, जिन देशों जैसे भारत, चीन, दक्षिण कोरिया और जापान आदि पर ईरान के खिलाफ प्रतिबंधों के लिए दबाव डाला जा रहा है, वे ईरानी तेल के महत्वपूर्ण आयातक हैं। भरोसेमंद विकल्प सुझाए बिना ही अमेरिका ईरान से तेल के आयात को लेकर भारत पर गैरजरूरी दबाव डाल रहा है। ईरान का मामला भारत के लिए कूटनीतिक परीक्षण बन गया है। अब देखना है कि भारत अपनी ऊर्जा और भूराजनीतिक हितों की सुरक्षा के उपाय करता है या फिर अमेरिका और इजरायल के अल्पकालिक हितों के लिए अपने हितों की बलि चढ़ा देता है।
(लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

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