Sunday, February 5, 2012

मनमोहन सिंह की भ्रष्टाचार के मामलों में खोखली प्रतिबद्धता

भ्रष्टाचार के मामलों की गूंज के बीच प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह कथन उत्साहित करने वाला नहीं कि सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता, शुचिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए अभी भी लंबा रास्ता तय करना है। नि:संदेह यह ऐसा काम नहीं जिसे बहुत आसानी से अंजाम दिया जा सके अथवा जिसके लिए कोई सीमा तय की जा सके। शासन-प्रशासन में पारदर्शिता, शुचिता और जवाबदेही लाना एक सतत और कठिन प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया को बल तब मिलेगा जब शीर्ष पर बैठे लोग उसे आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध दिखेंगे। दुर्भाग्य से यही वही चीज है जिसका केंद्र सरकार में घोर अभाव नजर आता है। आखिर प्रधानमंत्री कब तक केवल यह कहते रहेंगे कि उनकी सरकार सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार रोकने के लिए सभी कानूनी एवं प्रशासनिक उपाय करने के लिए प्रतिबद्ध है? प्रधानमंत्री की मानें तो पिछले एक साल के दौरान उनकी सरकार इस दिशा में काफी आगे बढ़ी है, लेकिन तथ्य यह है कि न तो लोकपाल विधेयक पारित हो सका, न न्यायिक जवाबदेही विधेयक और न ही व्हिसिल ब्लोअर्स संबंधी बिल। 2जी स्पेक्ट्रम के सभी 122 लाइसेंस रद करने के सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने देश को नए सिरे से यह स्मरण कराया है कि केंद्र सरकार न तो इस घोटाले के समय चेती और न ही बाद में। इतना ही नहीं उसने घोटाले के लिए जिम्मेदार लोगों को दंडित करने के लिए तब तक कुछ नहीं किया जब तक न्यायपालिका ने उसे इसके लिए विवश नहीं किया। यदि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में दखल नहीं देता तो शायद ए. राजा आज भी अपने पद पर सुशोभित होते और केंद्र सरकार बेशर्मी के साथ उनका बचाव कर रही होती। यह हास्यास्पद है कि अभी भी केंद्र सरकार अपनी गलती मानने के लिए तैयार नहीं। बात केवल 2 जी घोटाले की ही नहीं, बल्कि अन्य अनेक घोटालों और विशेष रूप से राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान हुए किस्म-किस्म के घोटालों की भी है। राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों के नाम पर घोटाले किए जा रहे थे और केंद्र सरकार उनसे अवगत होने के बावजूद हाथ पर हाथ धरे बैठी थी। केंद्र सरकार को यह अहसास होना चाहिए कि इन दोनों घोटालों ने उसकी अंतरराष्ट्रीय छवि को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। कांग्रेस और केंद्रीय सत्ता की ओर से भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर रुख अपनाने के चाहे जितने दावे किए जाएं वे यथार्थ से दूर नजर आते हैं। इससे भी गंभीर बात यह है कि कुछ सवालों के जवाब नदारद हैं। प्रधानमंत्री बार-बार यह तो कहते हैं कि वह भ्रष्टाचार रोकने के लिए जरूरी और प्रशासनिक उपाय करने के लिए संकल्पबद्ध हैं, लेकिन यह समझना कठिन है कि द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशें ठंडे बस्ते में क्यों पड़ी हुई हैं? इस आयोग ने केंद्र सरकार के पिछले कार्यकाल में ही उसे अपनी सिफारिशें सौंप दी थीं। इन सिफारिशों पर विचार के लिए एक मंत्रिसमूह का गठन भी किया गया था, लेकिन फिलहाल कोई नहीं जानता कि इन सिफारिशों का क्या हुआ और उन्हें लेकर मंत्रिसमूह कितना सक्रिय है? इससे इंकार नहीं कि केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए कुछ कदम उठाए हैं, लेकिन एक तो वे प्रतीकात्मक हैं और दूसरे, यह कहना कठिन है कि वे सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता, शुचिता और जवाबदेही लाने में सफल हुए हैं।
साभार:-दैनिक जागरण

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