Thursday, February 16, 2012

असुरक्षित सुरक्षा तंत्र

इजरायली दूतावास की कार के आतंकियों का निशाना बनने के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से दिल्ली पुलिस को दिए गए इस निर्देश में उसकी सुस्ती ही झलकती है कि राजधानी के सभी चौराहों पर क्लोज सर्किट टीवी कैमरा लगाने की योजना तैयार की जाए। इसका मतलब है कि अभी तक दिल्ली पुलिस ने ऐसी कोई योजना ही नहीं बना रखी थी और वह भी तब जब दिल्ली उच्च न्यायालय परिसर में हुए आतंकी हमले के बाद इसे लेकर खूब शोर-शराबा हुआ था। स्पष्ट है कि उच्च न्यायालय परिसर में विस्फोट के बाद दिल्ली के महत्वपूर्ण ठिकानों को सीसीटीवी कैमरे से लैस करने का जो तथाकथित आश्वासन दिया गया था वह नितांत खोखला था। आखिर सुस्ती की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है कि सघन सुरक्षा वाले इलाके में भी सीसीटीवी कैमरे नहीं लगाए जा सके? यदि प्रधानमंत्री आवास के आस-पास के इलाके में भी सुरक्षा को लेकर इतनी लापरवाही बरती जा सकती है तो फिर सामान्य इलाकों की सुरक्षा के स्तर के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। भले ही गृह मंत्रालय ने सीसीटीवी कैमरों के संदर्भ में दिल्ली पुलिस को दिए गए निर्देश में यह कहा हो कि इस काम में धन की कमी आड़े नहीं आने दी जाएगी, लेकिन इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि शीघ्र ही दिल्ली की सीसीटीवी कैमरों से निगरानी पुख्ता हो जाएगी। आखिर यह एक तथ्य है कि बार-बार आतंकी हमलों का शिकार बनने वाली मुंबई में भी अभी तक ऐसा नहीं हो सका है। इससे अधिक निराशाजनक और कुछ नहीं हो सकता कि हर आतंकी हमले के बाद यह सामने आता है कि सुरक्षा तंत्र को मजबूत करने के लिए जो उपाय बहुत पहले हो जाने चाहिए थे वे नहीं किए गए। चिंताजनक यह है कि महानगरों की सुरक्षा के मामले में भी हर स्तर पर ढिलाई दिख रही है। इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि सुरक्षा एजेंसियों के बीच आपसी तालमेल का अभी भी अभाव नजर आ रहा है। कभी-कभी तो यह अभाव अविश्वास की हद तक नजर आता है। इससे अधिक शर्मनाक और क्या होगा कि जिस समय आतंकी इजरायली दूतावास की कार को निशाना बना रहे थे, लगभग उसी समय दिल्ली पुलिस महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते के एक दल से उलझी हुई थी। दिल्ली पुलिस और महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते के बीच की तनातनी नई नहीं है। यह पहले भी अनेक बार सामने आ चुकी है और विगत दिवस का घटनाक्रम यही बताता है कि उसमें कहीं कोई कमी नहीं आई है। बात केवल दो राज्यों की पुलिस के बीच अविश्वास की ही नहीं, सुरक्षा एजेंसियों में समन्वय न होने की भी है। भले ही राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन कर दिया गया हो, लेकिन वह अभी भी पूरी क्षमता से काम नहीं कर पा रही है और इसका एक प्रमुख कारण पुलिस एवं सुरक्षा एजेंसियों से उसे पर्याप्त सहयोग न मिलना है। एनआइए को जिन असहयोगपूर्ण स्थितियों में काम करना पड़ रहा है उन्हें देखते हुए यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह संघीय पुलिस की तर्ज पर काम कर सकेगी। यह निराशाजनक है कि आतंकी खतरा बढ़ता जा रहा है, लेकिन संघीय पुलिस का कोई स्वरूप नहीं उभर पा रहा है। इसके लिए केंद्र से अधिक राज्य सरकारें उत्तरदायी हैं, जो एक ओर संसाधनों का रोना रोती हैं और दूसरी ओर कानून एवं व्यवस्था के मामले में केंद्र का सहयोग लेने से भी इंकार करती हैं।
साभार :- दैनिक जागरण

No comments: