Thursday, February 16, 2012

एक नई रार

यह आश्चर्यजनक है कि हाल ही में गठित राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र के काम शुरू करने के पहले ही कुछ राज्यों ने उसके खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी है। आतंकवाद निरोधक केंद्र आगामी एक मार्च से सक्रिय होगा, लेकिन पश्चिम बंगाल और ओडि़शा को अभी से यह लगने लगा है कि यह संस्था उनके अधिकारों का अतिक्रमण कर सकती है। जहां ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार को चिट्ठी भेज कर यह पूछा है कि उसने आतंकवाद निरोधक केंद्र का गठन और उसके अधिकार तय करते समय राज्यों से विचार-विमर्श क्यों नहीं किया वहीं नवीन पटनायक ने इस मुद्दे पर अन्य राज्यों को एकजुट करना शुरू कर दिया है। आसार इसी बात के हैं कि कुछ और राज्य राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर सकते हैं। हालांकि इस संस्था के गठन में अहम भूमिका निभाने वाले केंद्रीय गृह मंत्रालय ने यह सफाई दी है कि एक स्थायी परिषद राज्यों से तालमेल करने का काम करेगी और इस परिषद में राज्यों के आतंकवाद निरोधक दस्ते के मुखिया भी शामिल होंगे, लेकिन यह समझना कठिन है कि इस मसले पर राज्यों से विचार-विमर्श करना जरूरी क्यों नहीं समझा गया? यह राज्यों से विचार-विमर्श न करने का ही दुष्परिणाम है कि ऐसे सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या आतंकवाद निरोधक केंद्र को राज्य सरकारों की मंजूरी बिना भी उनके यहां हर तरह की कार्रवाई का अधिकार होगा? इन सवालों का जवाब सामने आना ही चाहिए। इस संदर्भ में यह कोई तर्क नहीं हुआ कि आतंकवाद निरोधक केंद्र के काम शुरू करने पर ही यह पता चलेगा कि कहां क्या समस्याएं आ रही हैं? केंद्रीय सत्ता कितनी भी समर्थ हो, उसके लिए यह उचित नहीं कि वह राज्यों को विश्वास में लिए बिना संघीय ढांचे को प्रभावित करने वाले कदम उठाए। जहां केंद्र सरकार के लिए यह आवश्यक है कि वह उन मामलों में राज्यों को विश्वास में ले जिनमें उनके सक्रिय सहयोग की आवश्यकता है वहीं राज्यों के लिए भी यह जरूरी है कि वे अपने अधिकारों के मामले में अति संवेदनशीलता न दिखाएं। नि:संदेह कानून एवं व्यवस्था राज्यों का विषय है, लेकिन नक्सलवाद और आतंकवाद जैसे खतरों का सामना तभी किया जा सकता है जब उनके खिलाफ कोई सक्षम संघीय तंत्र बने। ऐसे किसी तंत्र की आवश्यकता इसलिए और बढ़ गई है, क्योंकि अब यह स्थापित हो चुका है कि राज्य सरकारें आंतरिक सुरक्षा के समक्ष उपस्थित खतरों का सही तरह से सामना नहीं कर पा रही हैं। वे केंद्र सरकार से ज्यादा से ज्यादा मदद तो चाहती हैं, लेकिन उसका सहयोग लेने और उसे अपने यहां सक्रियता दिखाने का कोई भी अवसर देने में आनाकानी करती हैं। राज्यों के इस रवैये के रहते आंतरिक सुरक्षा का तंत्र कभी भी मजबूत नहीं होने वाला। आंतरिक सुरक्षा को जितना बड़ा खतरा आतंकवाद से है उतना ही नक्सलवाद से भी। विगत दिवस केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने झारखंड के 17 जिलों में नक्सलियों की समानांतर सरकार चलने का दावा करते हुए राज्य सरकार पर यह आरोप भी लगाया कि वह माओवादियों का सहयोग ले रही है। पता नहीं इस आरोप में कितनी सच्चाई है, लेकिन इससे इंकार नहीं कि आंतरिक सुरक्षा के मामले में केंद्र-राज्यों में जिस सहयोग की आवश्यकता है वह नजर नहीं आ रहा है और इसके लिए दोनों ही जिम्मेदार हैं।
साभार :- दैनिक जागरण

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