Thursday, February 16, 2012

आदर्श जीवन

शास्त्रों ने ब्रंाचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम के अनुसार आदर्श जीवन बिताने का निर्देश दिया है। इन आश्रमों में गृहस्थाश्रम की अवधि भी पच्चीस वर्ष तक निर्धारित की गई थी जब हम शतेन् जीवेम् शरद: का लक्ष्य रखते थे। वर्तमान समय में औसत आयु सौ सालों की नहीं है, अत: बहुत कुछ विचार-विमर्श के उपरांत 21 वर्ष वर के विवाह की और 18 वर्ष कन्या की आयु वैध मानी गई है। ब्रंाचर्याश्रम अब कन्या के लिए 18 वर्ष और वर के लिए 21 वर्ष मानना व्यावहारिक है, लेकिन समाज में इतनी फिसलन है कि अब बाल्यावस्था शैशवावस्था से शुरू हो जाती है और हम किशोरावस्था में अतिक्रमण करने लगते हैं। रोगों की जानकारी देना शिक्षा के लिए आवश्यक माना जाता है। प्रकारांतर से हमें ब्रंाचर्य का महत्व समझाने की आवश्यकता है। गृहस्थाश्रम का महत्व रोमन पादरी संत वैलेंटाइन ने स्वीकार किया और सैनिकों को भी विवाह करने की प्रेरणा दी। राजा क्लाडियस द्वितीय ने इसे राजद्रोह माना और संत वैलेंटाइन को मृत्यु-दंड दिया। गृहस्थाश्रम और परिवार समर्थक उस संत के मृत्योपरांत लोगों ने इसे प्रेमदिवस केरूप में मनाना आरंभ कर दिया और खुशियां मनाई। इस प्रेमदिवस को बाजारवाद ने बढ़ावा दिया और गृहस्थी बसाने के बजाय इस संत की मान्यता के विपरीत आचरण करने लगे। यह परिवार दिवस है। पुरुष में बुद्धि को संतुलित और संयमित करने के लिए हमें परिवार का महत्व समझना चाहिए और इसके द्वारा ही जीवन के अभीष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति हो सकती है, ऐसा मानकर गृहस्थाश्रम में यथा वैध अवस्था में ही प्रवेश करना चाहिए। इक्कीस साल से अधिक अवस्था हो जाने पर गृहस्थाश्रम में अनेक पारिवारिक समस्याएं सामने आती हैं। पारिवारिक दायित्वों कोपूरा करने के लिए दान, त्याग और संयमित जीवन बिताने की अर्हता बताई गई है। अत: यह आवश्यक है कि अन्य आश्रमों की व्यवस्था के लिए हम गृहस्थाश्रम को मजबूत बनाएं।
डा. राष्ट्रबंधु
साभार :- दैनिक जागरण

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