Thursday, February 16, 2012

महत्वपूर्ण मोड़ पर मोदी

एसआइटी से राहत मिलने की स्थिति में नरेंद्र मोदी के लिए राष्ट्रीय राजनीति की राह आसान होती देख रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता
इसकी कतई संभावना नहीं लगती कि 2002 दंगों के संदर्भ में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने को लेकर अहमदाबाद की स्थानीय अदालत में दायर अपील पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल (एसआइटी) की क्लोजर रिपोर्ट ही निर्णायक होगी। अगर अतीत को संकेत मानें तो गोधरा के बाद हुई हिंसा के शिकार मुसलमानों की त्रासदी को अब तक चर्चा में बनाए रखने वाली एक प्रतिबद्ध टोली इस मुद्दे को जिंदा बनाए रखने के लिए किसी भी कानूनी नुक्ते को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। इस बात की संभावना बहुत कम है कि ये लोग मोदी के खिलाफ एफआइआर दर्ज करा पाने में कामयाब हो जाएंगे। हालांकि इसके बावजूद वे अदालत में किसी न किसी दलील पर मुद्दे को जिंदा रखने से बाज आने वाले नहीं हैं। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि एक दशक के अथक कानूनी दांवपेंच के बाद भी कोई भी अदालत यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय भी मौतों के लिए व्यक्तिगत तौर पर मोदी को जिम्मेदार नहीं ठहरा पाया है। हां, उनकी निंदा जरूर होती रही है, जैसे कि हाल ही में गुजरात उच्च न्यायालय ने प्रशासन को ढिलाई का दोषी माना था। एक तरह से यह सही ही है, क्योंकि साबरमती एक्सप्रेस में आगजनी के बाद ही व्यापक पैमाने पर दंगे फैले थे और कड़ी कार्रवाई के अभाव में सरकार इन पर समय से काबू नहीं कर सकी थी। ऐसे में सरकार पर उंगली उठना स्वाभाविक ही है। हालांकि नागरिकों के जान-माल की रक्षा करने में राज्य की विफलता और इस आरोप में बड़ा अंतर है कि प्रशासन (जिसमें मुख्यमंत्री से लेकर पुलिस प्रमुख और थानेदार तक आते हैं) मुसलमानों को सबक सिखाने के लिए आपराधिक षड्यंत्र का दोषी था। इस अंतर से ही मोदी का राजनीतिक जीवन बचा है। मौतों को रोकने में सरकार की नाकामी पर नागरिक दो रूपों में प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। पहला, वे प्रशासन पर दबाव बना सकते हैं कि हिंसा के तमाम दोषियों को चिह्नित किया जाए और उन पर मामला दर्ज किया जाए। ऐसा बेस्ट बेकरी और कुछ अन्य मामलों में हो चुका है। दूसरे, नागरिकों और राजनीतिक दलों को प्रशासनिक विफलता को प्रतिस्पर्धी राजनीति के अखाड़े में ले जाने का हक है। यह भी हो चुका है। 2002 के चुनाव में दंगे सभी दलों का प्रमुख मुद्दा बने थे और 2007 के चुनाव में भी उन पर खासा जोर था। इन दोनों अवसरों पर मोदी को लोकतंत्र की उच्चतम अदालत (आम जनता) से जबरदस्त समर्थन मिला। असल में यह भी आभास होता है कि चुनावी अखाड़े में मोदी को पटकनी देने के लिए जिस राजनीतिक कौशल और क्षमता की आवश्यकता है वह कांग्रेस के पास नहीं है। इसीलिए कांग्रेस मोदी को अदालत में शिकस्त देने को प्रयासरत है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि सामाजिक कार्यकर्ता उन लोगों को दंडित करने के इच्छुक नहीं हैं जो गुलबर्ग हाउसिंग सोसाइटी पर हमला करने वाली उन्मादी भीड़ में शामिल थे। इसके बदले वे मोदी के पीछे पड़े हैं। इस मामले का यह पहलू बड़ी आसानी से भुला दिया गया है। वे किसी भी तरह यह सिद्ध करना चाहते हैं कि जाफरी की हत्या मुख्यमंत्री द्वारा दिए गए आदेश का परिणाम थी। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्होंने सारी तिकड़में भिड़ा ली हैं। उन्होंने एक पुलिस अधिकारी भी जुटा लिया है, जो एक बैठक की काल्पनिक बातें सुना रहा है। एसआइटी रिपोर्ट में इसे मनगढ़ंत बताया गया है। उन्होंने विशेष जांच दल के सदस्यों के खिलाफ भी विद्वेषपूर्ण अभियान चलाया है और उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठाए हैं। ये कार्यकर्ता नरेंद्र मोदी को दोषी ठहराने के अपने अंतिम लक्ष्य में तो सफल नहीं हुए, किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि वे समाज के एक तबके को प्रभावित करने में जरूर सफल रहे हैं। उदाहरण के लिए, मोदी को व्यक्तिगत रूप से दोषी ठहराने के इस टोली के प्रयासों का भारत और अन्य देशों के शक्तिशाली उदार प्रतिष्ठान पर असर पड़ा है और वे मुख्यमंत्री को एक प्रकार के क्रूर शासक की श्रेणी में रख रहे हैं। इस पूरे प्रकरण से इस तथ्य से ध्यान हट गया है कि 2002 के बाद गुजरात में एक भी सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ है। गुजरात का पिछला दशक शांति और तीव्र आर्थिक विकास का साक्षी रहा है। सुशासन के मामले में मोदी की उपलब्धियां भारी हैं। गुजरात के लोग एक अरसा पहले दंगों को भूल चुके हैं और वे नहीं चाहते कि कोई उन्हें उनकी याद दिलाए। यह बात स्थानीय कांग्रेस भी समझती है, किंतु कार्यकर्ताओं की मेहरबानी से राज्य को असहिष्णुता और प्रतिगामी विचार की प्रयोगशाला के रूप में चित्रित किया जाता है। एक घाघ राजनेता के रूप में मोदी ने इस अनावश्यक विषवमन को क्षेत्रीय गौरव की भावना जगाने में बखूबी इस्तेमाल किया है, किंतु दुष्प्रचार के कारण न मोदी को और न ही गुजरात को असाधारण विकास का श्रेय मिला है। अब सवाल यह है कि मोदी द्वारा एक और बाधा पार करने के बाद क्या इस रुख में कोई बदलाव आएगा? इसका पूरा जवाब 2012 के अंत में गुजरात में होने वाले चुनाव के परिणाम पर ही निर्भर नहीं करता। मोदी को निशाना बनाने का असल कारण यह नहीं है कि वह एक राष्ट्रीय दल के क्षेत्रीय बॉस हैं। उनके निंदकों का भी मानना है कि वह राज्य में और भी लंबी पारी खेल सकते हैं। उनका भय और साथ ही मेरा अनुमान यह है कि कुछ भाजपा नेता भी मोदी विरोधियों की तरह भयभीत हैं। उनका भय यह है कि अब मोदी हर लिहाज से एक राष्ट्रीय नेता हैं। अगर मोदी पर कानूनी हमला बेअसर हो जाता है तो मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश के रास्ते में कोई नहीं आ पाएगा। राष्ट्रीय स्तर पर मोदी एक प्रेरक नेतृत्व की भूमिका निभा सकते हैं, वर्तमान फीके और निराशावादी नेताओं के विपरीत वह एक उत्साही व जोशीले नेता के रूप में मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को अपने पीछे लाने में सक्षम हैं। इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि मोदी की लोकप्रियता में अभी काफी बढ़ोतरी होगी। वह राजनीति से बाहर रहने वाले और चुनावी लोकतंत्र को काजल की कोठरी मानने वाले एक बड़े तबके को प्रेरित करने की क्षमता रखते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर मोदी संप्रग के सबसे प्रबल विरोधी सिद्ध हो सकते हैं। 2014 के चुनाव में राहुल गांधी-नरेंद्र मोदी मुकाबला बेहद दिलचस्प होगा। मोदी में जबरदस्त ऊर्जा है। आवश्यकता है तो रणनीति और दांवपेंच की।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

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