स्वामी विवेकानंद की जयंती पर अमेरिकी समाज को राह दिखाने में उनके योगदान का स्मरण कर रहे हैं जगमोहन
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने नवंबर में अपनी भारत यात्रा के दौरान कई ऐसी बातें कहीं जो भारतीयों को सुनने में अच्छी लगीं। उन्होंने बड़े ही अच्छे शब्दों में भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता का उल्लेख किया, विशेषकर शांति और बहुलवाद पर उसके अटूट विश्वास का। मानवता और वैश्विक बंधुत्व के दो महान प्रचारकों-गांधी और विवेकानंद का भी विशेष उल्लेख हुआ। ओबामा ने अमेरिका की नैतिक कल्पनाशक्ति के विस्तार में भारतीय योगदान को भी रेखांकित किया। अमेरिका के नैतिक भाव के इस विस्तार में स्वामी विवेकानंद ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। हमारे समय के महान अमेरिकी शिक्षाविद् एलेनर स्टार्क के शब्दों में अमेरिका में पूरब की आवाज हावी हुई। इसने कुछ ही वर्षो के भीतर यहां के लोगों में नवजागरण के बीज बो दिए। शताब्दी में बदलाव के साथ पूरे देश में एक खामोश क्रांति का सूत्रपात हो गया। अमेरिकी लोगों को स्वामी विवेकानंद ने ऐसे विवेक और शक्ति के साथ अपना संदेश दिया जिससे उस समय उनको सुनने वाले हर व्यक्ति ने अपने जीवन को बदला हुआ पाया। उन सभी के मन-मस्तिष्क मुक्त हो गए। विवेकानंद ने अमेरिका की अच्छी-खासी आबादी पर अपना गहरा प्रभाव डाला। उन्होंने लोगों को नई प्रेरणा दी और नैतिक विभ्रम से बाहर निकलने का एक स्पष्ट मार्गं बताया। 19वीं शताब्दी के अंत तक अमेरिका एक विशाल आर्थिक महाशक्ति बन चुका था। इसके समाज अभूतपूर्व समृद्धि-संपन्नता अर्जित कर रहे थे। विज्ञान और तकनीक के कदम बहुत तेजी से आगे बढ़ रहे थे। लोगों के स्वास्थ्य के क्षेत्र में उसने नाटकीय सुधार किया था। नगर बड़े-बड़े महानगरों में तब्दील हो रहे थे, जो उसकी बढ़ती संपन्नता और ऐश्वर्य के साथ-साथ अत्यंत कुशल प्रबंधन के प्रतीक थे। उद्योग और उद्यम में विकास की रफ्तार ने पूरी दुनिया को चमत्कृत कर दिया। कम शब्दों में कहा जाए तो अमेरिका में भौतिक उन्नति विलक्षण, शानदार और दर्शनीय थी। उसी दौर में अमेरिका का एक संवेदनशील वर्गं यह महसूस कर रहा था कि उनके जीवन से कुछ न कुछ रोज ही खोता जा रहा है। उसने खुद को एक रोबो की तरह काम करते हुए पाया-यानी जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में गाड़ी लाल और हरी बत्ती देखकर रुकती-चलती थी। निजी जीवन की स्थिरता और शांति में खतरा लगातार बढ़ता जा रहा था। आम अमेरिकी समाज एक नई तरह की अशांति का अनुभव कर रहा था। यह अशांति लोगों के घरों, परिवार में बिखराव से उपजी थी। मादक पदार्थो का इस्तेमाल बढ़ने लगा। हथियारों के प्रति आकर्षण बढ़ा। धन और भौतिक सामग्री की कभी न खत्म होने वाली भूख ने अमेरिकी समाज में एक तरह की तबाही ही ला दी। आर्थिक और तकनीकी प्रगति एक ओर आसमान छू रही थी तो दूसरी ओर सामाजिक और नैतिक पतन नए निम्न तलाश रहा था। इस दौरान आय में असाधारण विषमताओं ने हालात और जटिल बना दिए। संपन्न अमेरिका के भीतर एक नया अमेरिका आकार लेने लगा। यह नया अमेरिका था-वंचित और पिछड़े लोगों का समाज। इन विषमताओं, विडंबनाओं और जीवन की जटिलताओं के बीच स्वामी विवेकानंद परिदृश्य में उभरे। अपनी दो यात्राओं (पहली 1893 से 1896 और दूसरी 1899-1900) में विवेकानंद ने अमेरिकी मनोभावों को इस तरह छू लिया जैसा किसी विदेशी दार्शनिक और गुरु ने अब तक नहीं किया था। उनका भाव, शैली, आशय, सभी कुछ विलक्षण था। वह विश्वविद्यालयों में बोले, चर्च, शहर के मशहूर केंद्रों और कुल मिलाकर हर तरह की सार्वजनिक और निजी बैठकों में उनकी वाणी ने अपना असर दिखाया। शिकागो में सभी धर्मो की विश्व संसद में उनके संबोधन के एक-एक शब्द ने पूरी दुनिया में उनकी ख्याति फैला दी। उन्होंने सामाजिक और नैतिक जीवन के लगभग सभी पहलुओं में अपने विशिष्ट विचार विशिष्ट शैली में दुनिया के सामने रखे, लेकिन वह अपने श्रोताओं को कभी यह बताना नहीं भूले कि यदि पूरी दुनिया में हमें खुशहाल, सौहार्द्रपूर्ण और संतुलित समाजों की रचना करनी है तो इस विश्व के सभी लोगों के लिए व्यावहारिक वेदांत को जीवन का निर्देशक तत्व बनाना होगा। विवेकानंद ने यह स्पष्ट कर दिया था कि व्यावहारिक वेदांत का उनका विचार धार्मिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक है। यह जीवन का नया सिद्धांत है, जो इस विश्वास पर आधारित है कि जीवन और प्रकृति की सभी चीजों में एक ही दैवीय चेतना भरी है और सभी विश्वास इस चेतना के साथ आपस में जुड़े हुए हैं। विवेकानंद यह बताते हुए कभी नहीं थके कि कभी किसी दूसरे को चोट मत पहुंचाओ, क्योंकि यह पूरा जगत एक है और किसी को चोट पहुंचाने का अर्थ है कि आप खुद को क्षति पहुंचा रहे हैं। विवेकानंद ने कहा कि उद्यम और जीवन के ऊंचे मानकों की तलाश की अमेरिकी भावना में कोई बुराई नहीं है, लेकिन सभी गतिविधियां अद्वैत संस्कृति के दायरे के भीतर होनी चाहिए और इस प्रक्रिया में एकीकृत अस्तित्व के किसी अन्य भाग पर किसी तरह का दुष्प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। उन्होंने अंधाधुंध तरीके से धन अर्जित करने की प्रवृत्ति की निंदा की। उस समय अमेरिकी लोग अपने विश्वास और आधुनिक विज्ञान के रहस्योद्घाटनों के विरोधाभासों को लेकर दुविधा का सामना कर रहे थे। यहां भी विवेकानंद ने उन्हें राह दिखाई। उन्होंने कहा कि लौकिक ऊर्जा उस व्यापक ऊर्जा से किसी भी तरह भिन्न नहीं है जिस पर वैज्ञानिक विश्वास करते हैं। उन्होंने लौकिक ऊर्जा के सभी रूपों-पदार्थ, विचार, बल, बुद्धि-विवेक को ईश्वरीय अंश मानते हुए उसी ऊर्जा का रूप बताया जो विज्ञान का आधार है।
(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
Wednesday, January 12, 2011
Monday, January 10, 2011
अनैतिकता पर अतिरिक्त कृपा
मनमोहन सिंह सरकार के आचरण से अनैतिक और संदिग्ध तत्वों को बल मिलता देख रहे हैं राजीव सचान
इसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का दुर्भाग्य कहें या उनके कर्मो का फल कि बोफोर्स मामला एक बार फिर सतह पर आ गया। यह प्रकरण जिस तरह इस तथ्य के साथ उभरा है कि ओट्टावियो क्वात्रोची और विन चड्ढा को दलाली दी गई थी उससे मनमोहन सिंह की मुसीबत बढ़ना तय है। विन चड्ढा की तो मौत हो चुकी है, लेकिन कमबख्त क्वात्रोची अभी जिंदा है। जिस तरह देश इस सच्चाई से परिचित है कि क्वात्रोची को गुपचुप रूप से भगाने का काम नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में हुआ उसी तरह इससे भी कि लंदन स्थित उसके बैंक खातों पर लगी रोक हटाने का काम मनमोहन सिंह के शासन में हुआ। बोफोर्स मामले में सामने आया नया तथ्य केंद्रीय जांच ब्यूरो की साख का भी कचरा करने वाला है, क्योंकि यह तथ्य ऐसे समय सामने आया है जब दिल्ली की एक अदालत को सीबीआइ की उस याचिका पर निर्णय देना है जिसमें उसने सबूतों के अभाव में क्वात्रोची के खिलाफ मामला बंद करने की अनुमति मांगी है। चूंकि देश को यह भी पता है कि प्रधानमंत्री के वायदे के बावजूद उन लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई जिन्होंने क्वात्रोची पर मेहरबानी दिखाई इसलिए कुछ कठिन सवाल नए सिरे से उनके सामने होंगे? चूंकि मनमोहन सरकार दागियों पर विशेष मेहरबानी दिखाती रही है इसलिए अनैतिक और संदिग्ध तत्वों को समर्थन देना उसका अलिखित एजेंडा नजर आने लगा है। यदि ऐसा नहीं होता तो केंद्र सरकार के सबसे बड़े संकटमोचक प्रणब मुखर्जी यह नहीं कहते कि ए। राजा ने कुछ गलत नहीं किया और उन्होंने तो स्पेक्ट्रम आवंटन में वही नीति अपनाई जो राजग शासन के समय तय की गई थी। यह एक पुराना और लचर तर्क है। अब यदि प्रणब मुखर्जी भी इस फटेहाल तर्क की शरण लेने को विवश हैं तो इसका मतलब है कि स्पेक्ट्रम घोटाले पर केंद्र सरकार को कुछ सूझ नहीं रहा। अगर राजा ने कुछ गलत नहीं किया तो उनकी स्पेक्ट्रम आवंटन नीति पर खुद प्रधानमंत्री को एतराज क्यों था? इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यदि राजा गलत नहीं थे तो फिर उनसे त्यागपत्र क्यों लिया गया? यदि स्पेक्ट्रम आवंटन में हेराफेरी नहीं हुई तो प्रधानमंत्री पौने दो लाख करोड़ रुपये की राजस्व क्षति का आकलन करने वाली नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रपट की छानबीन कर रही लोक लेखा समिति के समक्ष हाजिरी लगाने को क्यों तैयार हैं? इस सवाल के जवाब में यह एक पुराना प्रश्न उठ खड़ा होता है कि जब प्रधानमंत्री को लोक लेखा समिति के सामने हाजिर होने में हर्ज नहीं तो फिर संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष पेश होने में क्या परेशानी है? यदि केंद्र सरकार इस एक सवाल का कोई तर्कसंगत जवाब दे दे तो वह इस संदेह से मुक्त हो सकती है कि स्पेक्ट्रम घोटाले में कुछ छिपाने-दबाने की कोशिश नहीं की जा रही है। केंद्र सरकार और उसका नेतृत्व कर रही कांग्रेस यह माहौल बनाने की कोशिश में है कि स्पेक्ट्रम घोटाले में सरकार की भूमिका पर सिर्फ भाजपा को संदेह है। यथार्थ यह है कि यह संदेह सारे देश को है। यदि किन्हीं कारणों से भाजपा अथवा अन्य विपक्षी दल स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से कराने की मांग करने की जगह मौन साध लें तो भी जनता के मन में घर कर चुका संदेह मिटने वाला नहीं है। प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह का यह दायित्व बनता है कि वह जनता के संदेह को दूर करने के लिए हर संभव उपाय करें, लेकिन इसके उलट वह निष्कि्रयता दिखा रहे हैं और वह भी तब जब उनकी छवि पर बन आई है। यदि उनकी यह निष्कि्रयता कायम रही तो वह इतिहास में अनैतिक और भ्रष्ट तत्वों को प्रोत्साहन देने वाले शासक के रूप में भी याद किए जाएंगे। विडंबना यह है कि ऐसे तत्वों को प्रोत्साहन देने का काम केवल स्पेक्ट्रम घोटाले में ही नहीं किया जा रहा है। राष्ट्रमंडल घोटाले की जांच में भी यही हो रहा है। देश इस नतीजे पर पहुंच चुका है कि मनमोहन सिंह द्वारा नियुक्त केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस इस पद के लिए सर्वथा अनुपयुक्त भी हैं और दागदार भी, लेकिन केंद्र सरकार उनसे पीछा छुड़ाने के लिए तैयार नहीं। सवाल एक अकेले पीजे थॉमस का ही नहीं है, क्योंकि देश यह भी देख रहा है कि अन्य महत्वपूर्ण पदों पर कैसे-कैसे लोगों को नियुक्त किया गया? आखिर मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के रूप में केजी बालाकृष्णन ही सरकार की पहली पसंद क्यों थे? बालाकृष्णन के सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश पद से रिटायर होने के पहले ही यह तय हो गया था कि वह राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बनेंगे। अब उन पर राजा का बचाव करने और अपने संबंधियों को अनुचित तरीके से संपन्न बनाने के जो आरोप लग रहे हैं उसके छींटों से केंद्र सरकार बच नहीं सकती। केंद्र सरकार पर कुछ ऐसे ही छींटे उन आरोपों के कारण भी पड़ रहे हैं जो प्रसार भारती के सीईओ बीएस लाली पर लग रहे हैं। यदि लाली, बालाकृष्णन और थॉमस मनमोहन सिंह की पसंद नहीं थे तो फिर वह प्रधानमंत्री हैं ही क्यों? इस पर भी गौर करें कि इस नए वर्ष में मनमोहन सरकार क्या करने जा रही है? सूचना अधिकार कानून की धार कुंद करना पहले से ही उसके एजेंडे में है। इसके अतिरिक्त वह लोकपाल विधेयक पेश करने का इरादा जाहिर कर रही है, लेकिन इस विधेयक का मसौदा सिर्फ यह बताता है कि भ्रष्टाचार से लड़ाई का दिखावा करने वाली एक और नख-शिख-दंत विहीन संस्था का निर्माण करने की तैयारी हो रही है। यह लोकपाल आवश्यक अधिकारों से वंचित एक सलाह देने वाली संस्था भर तो होगा ही, उसके दायरे में केवल राजनेता होंगे, नौकरशाह और न्यायाधीश नहीं। केंद्रीय सत्ता के ऐसे आचरण से यदि किसी को सबसे अधिक बल मिल रहा होगा तो वे होंगे भ्रष्ट तत्व। आश्चर्य नहीं कि नया वर्ष सबसे अधिक उन्हें ही शुभ-लाभ दे।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
इसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का दुर्भाग्य कहें या उनके कर्मो का फल कि बोफोर्स मामला एक बार फिर सतह पर आ गया। यह प्रकरण जिस तरह इस तथ्य के साथ उभरा है कि ओट्टावियो क्वात्रोची और विन चड्ढा को दलाली दी गई थी उससे मनमोहन सिंह की मुसीबत बढ़ना तय है। विन चड्ढा की तो मौत हो चुकी है, लेकिन कमबख्त क्वात्रोची अभी जिंदा है। जिस तरह देश इस सच्चाई से परिचित है कि क्वात्रोची को गुपचुप रूप से भगाने का काम नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में हुआ उसी तरह इससे भी कि लंदन स्थित उसके बैंक खातों पर लगी रोक हटाने का काम मनमोहन सिंह के शासन में हुआ। बोफोर्स मामले में सामने आया नया तथ्य केंद्रीय जांच ब्यूरो की साख का भी कचरा करने वाला है, क्योंकि यह तथ्य ऐसे समय सामने आया है जब दिल्ली की एक अदालत को सीबीआइ की उस याचिका पर निर्णय देना है जिसमें उसने सबूतों के अभाव में क्वात्रोची के खिलाफ मामला बंद करने की अनुमति मांगी है। चूंकि देश को यह भी पता है कि प्रधानमंत्री के वायदे के बावजूद उन लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई जिन्होंने क्वात्रोची पर मेहरबानी दिखाई इसलिए कुछ कठिन सवाल नए सिरे से उनके सामने होंगे? चूंकि मनमोहन सरकार दागियों पर विशेष मेहरबानी दिखाती रही है इसलिए अनैतिक और संदिग्ध तत्वों को समर्थन देना उसका अलिखित एजेंडा नजर आने लगा है। यदि ऐसा नहीं होता तो केंद्र सरकार के सबसे बड़े संकटमोचक प्रणब मुखर्जी यह नहीं कहते कि ए। राजा ने कुछ गलत नहीं किया और उन्होंने तो स्पेक्ट्रम आवंटन में वही नीति अपनाई जो राजग शासन के समय तय की गई थी। यह एक पुराना और लचर तर्क है। अब यदि प्रणब मुखर्जी भी इस फटेहाल तर्क की शरण लेने को विवश हैं तो इसका मतलब है कि स्पेक्ट्रम घोटाले पर केंद्र सरकार को कुछ सूझ नहीं रहा। अगर राजा ने कुछ गलत नहीं किया तो उनकी स्पेक्ट्रम आवंटन नीति पर खुद प्रधानमंत्री को एतराज क्यों था? इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यदि राजा गलत नहीं थे तो फिर उनसे त्यागपत्र क्यों लिया गया? यदि स्पेक्ट्रम आवंटन में हेराफेरी नहीं हुई तो प्रधानमंत्री पौने दो लाख करोड़ रुपये की राजस्व क्षति का आकलन करने वाली नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रपट की छानबीन कर रही लोक लेखा समिति के समक्ष हाजिरी लगाने को क्यों तैयार हैं? इस सवाल के जवाब में यह एक पुराना प्रश्न उठ खड़ा होता है कि जब प्रधानमंत्री को लोक लेखा समिति के सामने हाजिर होने में हर्ज नहीं तो फिर संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष पेश होने में क्या परेशानी है? यदि केंद्र सरकार इस एक सवाल का कोई तर्कसंगत जवाब दे दे तो वह इस संदेह से मुक्त हो सकती है कि स्पेक्ट्रम घोटाले में कुछ छिपाने-दबाने की कोशिश नहीं की जा रही है। केंद्र सरकार और उसका नेतृत्व कर रही कांग्रेस यह माहौल बनाने की कोशिश में है कि स्पेक्ट्रम घोटाले में सरकार की भूमिका पर सिर्फ भाजपा को संदेह है। यथार्थ यह है कि यह संदेह सारे देश को है। यदि किन्हीं कारणों से भाजपा अथवा अन्य विपक्षी दल स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से कराने की मांग करने की जगह मौन साध लें तो भी जनता के मन में घर कर चुका संदेह मिटने वाला नहीं है। प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह का यह दायित्व बनता है कि वह जनता के संदेह को दूर करने के लिए हर संभव उपाय करें, लेकिन इसके उलट वह निष्कि्रयता दिखा रहे हैं और वह भी तब जब उनकी छवि पर बन आई है। यदि उनकी यह निष्कि्रयता कायम रही तो वह इतिहास में अनैतिक और भ्रष्ट तत्वों को प्रोत्साहन देने वाले शासक के रूप में भी याद किए जाएंगे। विडंबना यह है कि ऐसे तत्वों को प्रोत्साहन देने का काम केवल स्पेक्ट्रम घोटाले में ही नहीं किया जा रहा है। राष्ट्रमंडल घोटाले की जांच में भी यही हो रहा है। देश इस नतीजे पर पहुंच चुका है कि मनमोहन सिंह द्वारा नियुक्त केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस इस पद के लिए सर्वथा अनुपयुक्त भी हैं और दागदार भी, लेकिन केंद्र सरकार उनसे पीछा छुड़ाने के लिए तैयार नहीं। सवाल एक अकेले पीजे थॉमस का ही नहीं है, क्योंकि देश यह भी देख रहा है कि अन्य महत्वपूर्ण पदों पर कैसे-कैसे लोगों को नियुक्त किया गया? आखिर मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के रूप में केजी बालाकृष्णन ही सरकार की पहली पसंद क्यों थे? बालाकृष्णन के सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश पद से रिटायर होने के पहले ही यह तय हो गया था कि वह राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बनेंगे। अब उन पर राजा का बचाव करने और अपने संबंधियों को अनुचित तरीके से संपन्न बनाने के जो आरोप लग रहे हैं उसके छींटों से केंद्र सरकार बच नहीं सकती। केंद्र सरकार पर कुछ ऐसे ही छींटे उन आरोपों के कारण भी पड़ रहे हैं जो प्रसार भारती के सीईओ बीएस लाली पर लग रहे हैं। यदि लाली, बालाकृष्णन और थॉमस मनमोहन सिंह की पसंद नहीं थे तो फिर वह प्रधानमंत्री हैं ही क्यों? इस पर भी गौर करें कि इस नए वर्ष में मनमोहन सरकार क्या करने जा रही है? सूचना अधिकार कानून की धार कुंद करना पहले से ही उसके एजेंडे में है। इसके अतिरिक्त वह लोकपाल विधेयक पेश करने का इरादा जाहिर कर रही है, लेकिन इस विधेयक का मसौदा सिर्फ यह बताता है कि भ्रष्टाचार से लड़ाई का दिखावा करने वाली एक और नख-शिख-दंत विहीन संस्था का निर्माण करने की तैयारी हो रही है। यह लोकपाल आवश्यक अधिकारों से वंचित एक सलाह देने वाली संस्था भर तो होगा ही, उसके दायरे में केवल राजनेता होंगे, नौकरशाह और न्यायाधीश नहीं। केंद्रीय सत्ता के ऐसे आचरण से यदि किसी को सबसे अधिक बल मिल रहा होगा तो वे होंगे भ्रष्ट तत्व। आश्चर्य नहीं कि नया वर्ष सबसे अधिक उन्हें ही शुभ-लाभ दे।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
राजनीति का विचित्र हथियार
गुर्जर आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में आरक्षण की राजनीति के बदलते परिदृश्य पर निगाह डाल रहे हैं शेष नारायण सिंह
आरक्षण आज की राजनीति का एक अजीब हथियार बन गया है। राजस्थान का गुर्जर समुदाय अपने आपको मीणा समुदाय की तरह जनजाति घोषित करवाने के लिए आंदोलन चला रहा हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह के दौर में पिछड़ी जातियों को नौकरियों में आरक्षण दे दिया गया था, लेकिन ओबीसी के जिस वर्ग को उसमें शामिल किया गया था उसमें कुछ जातियां ऐसी थीं जो पहले से ही बेहतर आर्थिक-सामाजिक स्थिति में थीं। जाहिर है ओबीसी में जो कमजोर जातियां थीं, वे फिर सामाजिक बराबरी की रेस में पिछड़ती नजर आ रही हैं। बिहार में कई वषरें के कुप्रबंध के बाद जब नीतीश कुमार सत्ता में आए तो उन्होंने पिछड़े वगरें के आरक्षण के तरीके में थोड़ा परिवर्तन सुझाया और उसके नतीजे साफ नजर आए। सामाजिक परिवर्तन की राजनीति में नीतीश कुमार के इस प्रयोग के बाद सामाजिक न्याय के विमर्श में नया अध्याय शुरू हो गया है। अपने देश में सकारात्मक हस्तक्षेप के पुरोधा डॉ। भीमराव अंबेडकर और डॉ। राममनोहर लोहिया माने जाते हैं। इन नेताओं की सोच को कांग्रेस ने भी अपनाया और दलितों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की संविधान में व्यवस्था की। संविधान लागू होने के 60 साल बाद सकारात्मक हस्तक्षेप के राजनीतिक दर्शन में अब कुछ सुधार की जरूरत महसूस की जा रही है। आज के नेताओं में किसी में वह ताकत नहीं है कि वह आजादी की लड़ाई में शामिल नेताओं की तरह ऐसे तरीके भी अपना सके जो चुनावी गणित के हिसाब से अलोकप्रिय हों, लेकिन इतना तय है कि चुनावी लाभ-हानि को ध्यान में रख कर ही सही, सामाजिक बराबरी के बारे में चर्चा हो रही है। पिछड़े वगरें में ऊपरी पायदान पर मौजूद जाति के एक सदस्य नीतीश कुमार के लिए इन नीतियों को लागू कर पाना अपेक्षाकृत आसान था। नीतीश कुमार की इस राजनीतिक सोच को रोकने वाला कोई नहीं था, क्योंकि वह अपनी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं। दिल्ली में उनकी पार्टी के बड़े नेता शरद यादव हैं। शरद यादव की राजनीतिक हैसियत ऐसी नहीं है कि वह नीतीश कुमार के किसी फैसले को वीटो कर सकें, इसलिए अपनी जिम्मेदारी पर नीतीश ने फैसला किया और लागू किया। नीतीश ने दलित राजनीति को भी आरक्षण की कसौटी पर फिर से कसा और दलित जातियों में जो उच्च वर्ग विकसित हो गया है, उसकी पहचान की। दलितों में उच्च वर्ग परंपरागत रूप से मायावती को नेता मानने लगा है। बिहार में रामविलास पासवान भी इस वर्ग के वोट के खासे गंभीर दावेदार माने जाते हैं। शायद नीतीश कुमार को अंदाज था कि इन दोनों नेताओं को अपेक्षाकृत संपन्न दलितों में जो मुकाम हासिल है, उसे कमजोर कर पाना बहुत ही मुश्किल है। इसी सोच का नतीजा है कि उन्होंने दलित वोट बैंक को तोड़ दिया और महादलित नाम की एक नई राजनीतिक जमात की पहचान करवाने में सहयोग दिया। बिहार विधानसभा के चुनाव में जब लालू प्रसाद और रामविलास पासवान इकट्ठा खड़े हुए तो राजनीति की मामूली समझ वाले विश्लेषक मानकर चल रहे थे कि पिछड़े वर्ग और दलित नेताओं का यह मिलन अजेय है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। संपन्न दलितों और संपन्न पिछड़ों के नेता के रूप में लालू प्रसाद और रामविलास पासवान की पहचान बन गई, जो पता नहीं कब कायम रहेगी। उत्तर प्रदेश में भी यह प्रयोग किया गया था। यहां दलितों की राजनीति का व्याकरण अलग है। उत्तर प्रदेश में कांशीराम ने शुरुआती काम किया था, जिसकी वजह से उनकी पार्टी आज बहुत मजबूत स्थिति में है। मायावती को आज उत्तर प्रदेश के दलितों का सर्व स्वीकार्य नेता माना जाता है, लेकिन शुरू से ऐसा नहीं था। भाजपा की ओर से जब राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए तो उन्होंने राज्य की भावी राजनीति की इस दस्तक को पहचान लिया था। पिछड़ों की राजनीति के मामले में भी उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की ताकत बहुत ज्यादा थी। पिछड़े और दलित वोट बैंक को छिन्न-भिन्न करके अपनी पार्टी की स्थिति को मजबूत बनाने के लिए राजनाथ सिंह ने वही करने की कोशिश की, जिसे बाद में बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार ने अपनाया। नीतीश अपनी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं इसलिए वह अपनी योजना को लागू करने में सफल हुए, लेकिन राजनाथ सिंह की किस्मत वैसी नहीं थी। उनकी टांग खींचने के लिए तो उत्तर प्रदेश में ही बहुत लोग मौजूद थे और उन लोगों को दिल्ली के नेताओं का आशीर्वाद भी मिलता रहता था। बहरहाल, अब भाजपा के नेताओं की समझ में आ गया है कि राजनाथ सिंह की योजना को खटाई में डालना राजनीतिक गलती थी। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में पीस पार्टी से भी पिछड़ जाने के बाद भाजपा को राजनाथ सिंह फार्मूला याद आ रहा है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में राजनाथ सिंह ने सामाजिक न्याय समिति बनाई थी, जिसने अति पिछड़ों के लिए आरक्षण के अंदर आरक्षण की सिफारिश की थी। राजनाथ सिंह ने कहा था कि पिछड़ों के लिए तय आरक्षण में कुछ जातियां ही आरक्षण का पूरा लाभ उठा लेती हैं, जबकि अन्य पिछड़ी जातियां वंचित रह जाती हैं। समिति की सिफारिशें लागू हो पातीं उससे पहले ही आम चुनाव हो गए और भाजपा सत्ता में लौटी ही नहीं। इसके बाद भाजपा ने भी समिति की रिपोर्ट को भुला दिया। उत्तर प्रदेश में लगातार कम होते जनाधार से चिंतित पार्टी को अब इस समिति की रिपोर्ट की फिर से याद आई। प्रदेश अध्यक्ष सूर्यप्रताप शाही ने भी इस बात पर जोर दिया। अब लगता है कि भाजपा में भी सामाजिक न्याय और आरक्षण के मामले पर गंभीर आंतरिक चिंतन चल रहा है। जाहिर है, आरक्षण से जुड़े मुद्दों की राजनीति करवट ले रही है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
आरक्षण आज की राजनीति का एक अजीब हथियार बन गया है। राजस्थान का गुर्जर समुदाय अपने आपको मीणा समुदाय की तरह जनजाति घोषित करवाने के लिए आंदोलन चला रहा हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह के दौर में पिछड़ी जातियों को नौकरियों में आरक्षण दे दिया गया था, लेकिन ओबीसी के जिस वर्ग को उसमें शामिल किया गया था उसमें कुछ जातियां ऐसी थीं जो पहले से ही बेहतर आर्थिक-सामाजिक स्थिति में थीं। जाहिर है ओबीसी में जो कमजोर जातियां थीं, वे फिर सामाजिक बराबरी की रेस में पिछड़ती नजर आ रही हैं। बिहार में कई वषरें के कुप्रबंध के बाद जब नीतीश कुमार सत्ता में आए तो उन्होंने पिछड़े वगरें के आरक्षण के तरीके में थोड़ा परिवर्तन सुझाया और उसके नतीजे साफ नजर आए। सामाजिक परिवर्तन की राजनीति में नीतीश कुमार के इस प्रयोग के बाद सामाजिक न्याय के विमर्श में नया अध्याय शुरू हो गया है। अपने देश में सकारात्मक हस्तक्षेप के पुरोधा डॉ। भीमराव अंबेडकर और डॉ। राममनोहर लोहिया माने जाते हैं। इन नेताओं की सोच को कांग्रेस ने भी अपनाया और दलितों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की संविधान में व्यवस्था की। संविधान लागू होने के 60 साल बाद सकारात्मक हस्तक्षेप के राजनीतिक दर्शन में अब कुछ सुधार की जरूरत महसूस की जा रही है। आज के नेताओं में किसी में वह ताकत नहीं है कि वह आजादी की लड़ाई में शामिल नेताओं की तरह ऐसे तरीके भी अपना सके जो चुनावी गणित के हिसाब से अलोकप्रिय हों, लेकिन इतना तय है कि चुनावी लाभ-हानि को ध्यान में रख कर ही सही, सामाजिक बराबरी के बारे में चर्चा हो रही है। पिछड़े वगरें में ऊपरी पायदान पर मौजूद जाति के एक सदस्य नीतीश कुमार के लिए इन नीतियों को लागू कर पाना अपेक्षाकृत आसान था। नीतीश कुमार की इस राजनीतिक सोच को रोकने वाला कोई नहीं था, क्योंकि वह अपनी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं। दिल्ली में उनकी पार्टी के बड़े नेता शरद यादव हैं। शरद यादव की राजनीतिक हैसियत ऐसी नहीं है कि वह नीतीश कुमार के किसी फैसले को वीटो कर सकें, इसलिए अपनी जिम्मेदारी पर नीतीश ने फैसला किया और लागू किया। नीतीश ने दलित राजनीति को भी आरक्षण की कसौटी पर फिर से कसा और दलित जातियों में जो उच्च वर्ग विकसित हो गया है, उसकी पहचान की। दलितों में उच्च वर्ग परंपरागत रूप से मायावती को नेता मानने लगा है। बिहार में रामविलास पासवान भी इस वर्ग के वोट के खासे गंभीर दावेदार माने जाते हैं। शायद नीतीश कुमार को अंदाज था कि इन दोनों नेताओं को अपेक्षाकृत संपन्न दलितों में जो मुकाम हासिल है, उसे कमजोर कर पाना बहुत ही मुश्किल है। इसी सोच का नतीजा है कि उन्होंने दलित वोट बैंक को तोड़ दिया और महादलित नाम की एक नई राजनीतिक जमात की पहचान करवाने में सहयोग दिया। बिहार विधानसभा के चुनाव में जब लालू प्रसाद और रामविलास पासवान इकट्ठा खड़े हुए तो राजनीति की मामूली समझ वाले विश्लेषक मानकर चल रहे थे कि पिछड़े वर्ग और दलित नेताओं का यह मिलन अजेय है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। संपन्न दलितों और संपन्न पिछड़ों के नेता के रूप में लालू प्रसाद और रामविलास पासवान की पहचान बन गई, जो पता नहीं कब कायम रहेगी। उत्तर प्रदेश में भी यह प्रयोग किया गया था। यहां दलितों की राजनीति का व्याकरण अलग है। उत्तर प्रदेश में कांशीराम ने शुरुआती काम किया था, जिसकी वजह से उनकी पार्टी आज बहुत मजबूत स्थिति में है। मायावती को आज उत्तर प्रदेश के दलितों का सर्व स्वीकार्य नेता माना जाता है, लेकिन शुरू से ऐसा नहीं था। भाजपा की ओर से जब राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए तो उन्होंने राज्य की भावी राजनीति की इस दस्तक को पहचान लिया था। पिछड़ों की राजनीति के मामले में भी उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की ताकत बहुत ज्यादा थी। पिछड़े और दलित वोट बैंक को छिन्न-भिन्न करके अपनी पार्टी की स्थिति को मजबूत बनाने के लिए राजनाथ सिंह ने वही करने की कोशिश की, जिसे बाद में बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार ने अपनाया। नीतीश अपनी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं इसलिए वह अपनी योजना को लागू करने में सफल हुए, लेकिन राजनाथ सिंह की किस्मत वैसी नहीं थी। उनकी टांग खींचने के लिए तो उत्तर प्रदेश में ही बहुत लोग मौजूद थे और उन लोगों को दिल्ली के नेताओं का आशीर्वाद भी मिलता रहता था। बहरहाल, अब भाजपा के नेताओं की समझ में आ गया है कि राजनाथ सिंह की योजना को खटाई में डालना राजनीतिक गलती थी। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में पीस पार्टी से भी पिछड़ जाने के बाद भाजपा को राजनाथ सिंह फार्मूला याद आ रहा है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में राजनाथ सिंह ने सामाजिक न्याय समिति बनाई थी, जिसने अति पिछड़ों के लिए आरक्षण के अंदर आरक्षण की सिफारिश की थी। राजनाथ सिंह ने कहा था कि पिछड़ों के लिए तय आरक्षण में कुछ जातियां ही आरक्षण का पूरा लाभ उठा लेती हैं, जबकि अन्य पिछड़ी जातियां वंचित रह जाती हैं। समिति की सिफारिशें लागू हो पातीं उससे पहले ही आम चुनाव हो गए और भाजपा सत्ता में लौटी ही नहीं। इसके बाद भाजपा ने भी समिति की रिपोर्ट को भुला दिया। उत्तर प्रदेश में लगातार कम होते जनाधार से चिंतित पार्टी को अब इस समिति की रिपोर्ट की फिर से याद आई। प्रदेश अध्यक्ष सूर्यप्रताप शाही ने भी इस बात पर जोर दिया। अब लगता है कि भाजपा में भी सामाजिक न्याय और आरक्षण के मामले पर गंभीर आंतरिक चिंतन चल रहा है। जाहिर है, आरक्षण से जुड़े मुद्दों की राजनीति करवट ले रही है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
कठघरे में सीबीआइ
आरुषि, बोफोर्स और राष्ट्रमंडल मामलों के आलोक में सीबीआइ की क्षमता पर सवालिया निशान लगा रहे हैं बीआर लाल
दिल्ली की ठंड का असर भले ही आम लोगों पर कुछ ज्यादा हो, लेकिन राजनीतिक गलियारों में गरमी और गहमागहमी का दौर है। इसका कारण है देश के दो बहुचर्चित मामलों-आरुषि तलवार और बोफोर्स कांड की जांच बंद करने के लिए सीबीआइ की पहल पर उठ रहे सवाल और राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी का पूछताछ के लिए सीबीआइ के दफ्तर में पेश होना। यहां यदि हम पहले आरुषि मामले में सीबीआइ की क्लोजर रिपोर्ट और उसकी जांच के निष्कर्षो को देखें तो यह साफ है कि यह मामला अभी बंद करने के स्तर पर नहीं पहुंचा था, क्योंकि जांच दल के अधिकारी अभी भी इस पर काम कर रहे थे और सुबूतों को जुटाने का काम जारी था। विभिन्न रपटों और मीडिया के माध्यम से प्राप्त जानकारी के मुताबिक भी सीबीआइ के हाथ अभी तक दोषियों को सजा दिला पाने लायक पर्याप्त सुबूत नहीं लगे हैं और जो सुबूत हाथ लगे हैं उनके आधार पर दोषियों को सजा नहीं दिलाई जा सकती। 16 मई, 2008 की रात आरुषि तलवार और नौकर हेमराज की हत्या के बाद के बाद जांच का प्रथम जिम्मा उत्तर प्रदेश पुलिस को मिला, जिसने सुबूतों को इकट्ठा करने में घोर लापरवाही बरती। जब मीडिया और जनता का दबाव बढ़ा तो पूरे मामले की जांच का काम सीबीआइ को सौंपा गया, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी और हत्यारों ने फोरेंसिक प्रमाणों को मिटा दिया था। ऐसी स्थिति में शुरुआती जांच के समय ही तत्कालीन सीबीआइ निदेशक ने एक बड़ी गलती यह की कि उन्होंने जांच प्रक्रिया की अधकचरी जानकारी देना शुरू कर दिया। यह एक अति संवेदनशील मसले पर अपनाया गया गैर पेशेवर रुख और नासमझी का प्रमाण था। अब एक बार फिर से ऐसी ही गलती क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करके दोहराई जा रही है। पूरे मामले को देखने से यही लग रहा है कि वर्तमान सीबीआइ निदेशक लंबित मामलों को निपटाने की जल्दी में हैं। निश्चित रूप से सीबीआइ के पास कई सारे मामले लंबित पड़े हैं, लेकिन इतने संवेदनशील मसले को महज संख्या से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। वैसे इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस निर्णय के पीछे कुछ दूसरी मजबूरियां भी उनके सामने हों। अदालत के सामने पेश की गई क्लोजर रिपोर्ट में सीबीआइ ने राजेश तलवार के तीन नौकरों राजकुमार, विजय मंडल और कृष्णा को बेगुनाह बताया है। इन तीनों नौकरों के निर्दोष साबित होने के बाद जांच अवधि के दौरान हुई परेशानियों और उनकी हिरासत के संबंध में कहा जा रहा है कि इसके लिए जिम्मेदार जांच अधिकारियों को सजा मिलनी चाहिए। मेरे विचार से यह मांग तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि किसी भी मामले की जांच-पड़ताल करने के लिए कानूनी प्रक्रिया के तहत संदेहास्पद व्यक्ति को आवश्यक पूछताछ के लिए हिरासत में रखा जा सकता है। इस कारण नौकरों को हुई परेशानी के लिए जांच अधिकारी दोषी नहीं हैं। इसी तरह यह भी सही है कि कुछ परिस्थितिजन्य साक्ष्य डॉ. राजेश तलवार के खिलाफ हंै, लेकिन जिस तरह कुछ ईटों से इमारत नहीं तैयार की जा सकती वैसै ही कुछ परिस्थितिजन्य सुबूतों के आधार पर किसी को सजा नहीं दिलाई जा सकती। इस समय एक बड़ा सवाल बोफोर्स की जांच बंद करने के लिए सीबीआइ की पहल का भी है। यह चर्चित मामला इतना लंबा खिंच चुका है कि इसके बारे में जितना कम कहा जाए, उतना ही अच्छा होगा। मीडिया में आई रपटों के मुताबिक आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण इस सौदे में तकरीबन 41 करोड़ रुपये की दलाली खाए जाने की बात कह रहा है। उसका कहना है कि विन चड्ढा अथवा उसके वारिस को दलाली की रकम का टैक्स चुकता करना चाहिए, जबकि सीबीआइ के पास इस तरह के कोई भी सुबूत नहीं हैं। यह एक अजीबोगरीब स्थिति है। स्पष्ट है कि कहीं कुछ दाल में काला अवश्य है। अब यह मामला अदालत के सामने है तो इस बारे में नीर-क्षीर निर्णय भी उसे ही करना है। 15 अरब डॉलर के बोफोर्स सौदे में कितनी दलाली खाई गई अथवा नहीं खाई गई यह एक अलग मसला है, लेकिन जहां ओतावियो क्वात्रोची की बात है तो यह सच है कि एसके जैन हवाला मामले में वह शामिल था। हवाला के माध्यम से हस्तांतरित होने वाले पैसों के लेन-देने में एसके जैन को तीन प्रतिशत और इटली निवासी ओतावियो क्वात्रोची को सात प्रतिशत कमीशन के तौर पर मिला था, यह एक आधिकारिक सच है जो मेरे कार्यकाल में सामने आया था। इसी तरह एक और बड़ा प्रकरण राष्ट्रमंडल खेलों में हुए बंदरबांट और घपले-घोटालों का है। राष्ट्रमंडल खेल समिति के महासचिव ललित भनोट समेत कुछ लोगों की गिरफ्तारी हो जाती है, जबकि पूरे आयोजन के लिए जिम्मेदार सुरेश कलमाड़ी से पूछताछ के लिए भी सीबीआइ को समय लेना पड़ता है। यह सरकार की उन पर अतिरिक्त कृपा नहीं तो और क्या है? कलमाड़ी के घर छापे मारने का निर्णय लेने में काफी देरी की गई, जिससे उन्हें सुबूतों को नष्ट करने अथवा छिपाने का पर्याप्त समय मिल गया। इसी तरह ए. राजा के घर छापा मारने में भी जानबूझकर अनावश्यक देरी की गई। स्पष्ट है कि यह सब एक तरह का अलिखित विशेषाधिकार बन गया है कि बड़े लोगों को किसी तरह बचाया जाए और उन्हें उनकी सुविधा के माकूल अवसर दिए जाएं। कुल मिलाकर सीबीआइ आज एक बंधक की भूमिका में काम करती नजर आ रही है। मेरे विचार से भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए वर्तमान स्वरूप वाली सीबीआइ सक्षम ही नहीं है। यहां हमें इस बात पर विचार करना होगा कि भ्रष्टाचार के मामलों में कौन लोग शामिल होते हैं? बड़े भ्रष्टाचार को अंजाम देने वाले लोग अक्सर बड़े पदों पर बैठे अधिकारी या राजनेताहोते हैं, जो किसी न किसी रूप में सत्ता से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े होते हैं। ऐसे में सरकार के नियंत्रण में काम करने वाली कोई एजेंसी सरकार से प्रभावित हुए बिना कैसे काम कर सकती है। सीबीआइ किसी मामले की स्वत: जांच नहीं कर सकती। इसके लिए उसे सरकार से अनुमति लेनी होती है और बड़े मामलों में या तो अनुमति मिलती नहीं है और यदि मिलती भी है तो काफी देरी से जिससे अपेक्षित परिणाम नहीं आ पाता। राजनीतिक हस्तक्षेप भी एक सामान्य बात है जिस कारण इस पर पक्षपात का आरोप लगता रहा है। सीबीआइ की विश्वसनीयता कायम रखने और अधिक प्रभावी बनाने के लिए जरूरी है कि इसे चुनाव आयोग से भी ज्यादा स्वायत्तता मिले। इसे किसी मामले की स्वत: जांच का अधिकार हो और इसकी कार्रवाई में राजनीतिक दखलंदाजी न हो। (लेखक सीबीआइ के पूर्व संयुक्त निदेशक हैं) साभार:-दैनिक जागरण |
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भ्रष्ट व्यवस्था को संरक्षण
खाद्य पदार्थो की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि के पीछे भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली व्यवस्था को जिम्मेदार मान रहे हैं संजय गुप्त
आखिर जिसका डर सता रहा था वही हुआ, खाने-पीने की वस्तुओं की बढ़ती कीमतों ने खाद्य मुद्रास्फीति को 18 प्रतिशत तक पहुंचा दिया। यह आम आदमी की कमर तोड़ने वाली स्थिति है, क्योंकि खाद्य पदाथरें के साथ-साथ घर-गृहस्थी में काम आने वाली करीब-करीब उस प्रत्येक वस्तु के दाम बढ़ गए हैं जो मध्यम वर्गीय परिवारों की जरूरत बन गई है। इनमें से कुछ वस्तुएं ऐसी भी हैं जिनकी कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजारों में या तो घट रही हैं या फिर स्थिर हैं। केंद्र सरकार के महंगाई नियंत्रित करने के दावे खोखले ही नहीं झूठे भी साबित हुए हैं। पिछले दिनों गृहमंत्री पी। चिदंबरम ने यह कहकर देश को तगड़ा झटका दिया कि उन्हें इसका भरोसा नहीं कि सरकार के पास महंगाई रोकने के पर्याप्त उपाय हैं। दो बार वित्त मंत्री रह चुके चिदंबरम ने यह भी कहा कि बढ़ती महंगाई अपने आप में एक टैक्स है। महंगाई पर लगाम लगाने के पर्याप्त उपाय न होने की स्वीकारोक्ति कोई सामान्य बात नहीं और वह भी तब जब यह स्वीकारोक्ति केंद्र सरकार के एक वरिष्ठ एवं अर्थशास्त्री माने जाने वाले एक ऐसे मंत्री की ओर से की गई हो जो पिछले सात वर्ष से सत्ता में हो। इस स्वीकारोक्ति से स्पष्ट होता है कि सरकार महंगाई पर नियंत्रण के मामले में अंधेरे में तीर चला रही है। पिछले वर्ष जब मुद्रास्फीति दर दहाई अंकों पर पहुंची थी तब सरकार ने उस पर जल्द ही काबू पाने का आश्वासन दिया था, लेकिन वह खोखला साबित हुआ। इसके बाद सरकार की ओर से महंगाई बढ़ने के तरह-तरह के कारण गिनाए गए। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने यह तर्क दिया कि महंगाई इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि लोगों की आमदनी बढ़ रही है। इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया हुई, लेकिन बाद में इस तरह के वक्तव्य अन्य नेताओं की ओर से भी दिए गए। हाल में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भी यह कहा कि आमदनी बढ़ने के कारण महंगाई बढ़ रही है, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने राज्य सरकारों को जमाखोरों के खिलाफ कार्रवाई करने के निर्देश भी दिए। यदि यह मान लिया जाए कि पिछले कई वर्षो से विकास दर आठ प्रतिशत के आसपास रहने के कारण औसत भारतीयों की आमदनी बढ़ी है और इसके चलते खाने-पीने की वस्तुओं की खपत भी बढ़ गई है तो भी यह कोई ऐसी असामान्य बात नहीं। आखिर उसकी ओर से ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकी जिससे खाद्य पदार्थो और विशेष रूप से खाद्यान्न एवं सब्जियों का उत्पादन बढ़ता? पिछले दिनों हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की अध्यक्षता में गठित समिति ने यह सिफारिश की कि देश की आवश्यकता भर खाद्यान्न का उत्पादन करने के लिए विदेशों में खेती की जानी चाहिए। यदि ऐसा करने की नौबत आ चुकी है तो इसका मतलब है कि कृषि मंत्रालय हाथ पर हाथ धरे बैठा हुआ है और उसे इसकी कोई परवाह नहीं कि कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़े। कहने को तो भारत कृषि प्रधान देश है, लेकिन कृषि क्षेत्र की बदहाली बढ़ती जा रही है। हालांकि राज्यों और केंद्र में मुख्यत: किसानों के वोट से सरकारें बनती हैं, लेकिन सत्ता में बैठे लोग उनकी ही अवहेलना करते हैं। धीरे-धीरे ग्रामीण अर्थव्यवस्था सरकारी मदद पर आश्रित होती जा रही है। इसके विपरीत शहरों की अर्थव्यवस्था काफी कुछ निजी क्षेत्र पर निर्भर हो चुकी है। अब इस पर विचार किया जाना चाहिए कि कहीं ग्रामीण अर्थव्यवस्था इसलिए तो पंगु नहीं हो रही, क्योंकि वह सरकार की बैशाखियों पर टिकी है? कुछ अर्थशास्ति्रयों का मानना है कि सरकारी तंत्र पर निर्भरता के चलते कृषि क्षेत्र अपनी कमजोरी से उबर नहीं पा रहा। चूंकि सरकारी तंत्र पर कृषि क्षेत्र की निर्भरता राजनीतिक दलों को वोट दिलाती है इसलिए वे हालात बदलने के लिए तैयार नहीं। कृषि क्षेत्र पर सरकारी तंत्र की पकड़ बरकरार रहने का एक अन्य कारण घपलों-घोटालों को आसानी से अंजाम देना और उन पर पर्दा डालना भी नजर आता है। खाद्य पदार्थो के मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि के पीछे भी एक किस्म में भ्रष्टाचार ही दिखता है। भले ही चिदंबरम यह कह रहे हों कि सरकार के पास महंगाई रोकने के पर्याप्त उपाय नहीं, लेकिन इस पर यकीन करना कठिन है कि जो प्रशासनिक व्यवस्था ब्रिटिश काल के जमाने से चली आ रही हो वह पिछले एक दशक में इतनी कमजोर हो चुकी है कि नौकरशाहों को इसकी भनक तक न लगे कि कहां किस चीज की कमी होने वाली है और कहां जमाखोरी हो रही है? ऐसा लगता है कि महंगाई पर लगाम लगाने के उपाय इसलिए नहीं किए जा रहे, क्योंकि इससे ही सबकी जेबें भर रही हैं और अवैध कमाई का हिस्सा आसानी से नीचे से लेकर ऊपर तक पहुंच रहा है। आम आदमी के दुख-दर्द की तो किसी को परवाह ही नहीं और शायद हमारे राजनेता यह मान बैठे हैं कि मध्यम वर्गीय परिवार आर्थिक रूप से इतने सक्षम हो गए हैं कि वे बढ़ती महंगाई किसी न किसी तरह सहन कर लेंगे। विपक्षी दल महंगाई को लेकर शोर तो बहुत मचा रहें हैं, लेकिन अनेक राज्यों में उनका ही शासन है और वहां भी मूल्यवृद्धि पर कोई अंकुश नहीं। बढ़ती महंगाई के लिए राज्य केंद्र को दोषी ठहरा रहे हैं और केंद्र राज्यों पर दोषारोपण कर रहा है। इससे यदि कुछ स्पष्ट है तो यह कि कोई भी भ्रष्ट व्यवस्था में दखल देने के लिए तैयार नहीं। शायद इसी में राजनीतिक दलों का हित है यानी उनकी तिजोरियां आसानी से भर सकती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों की योजनाओं पर प्रति वर्ष अरबों रुपये फूंके जा रहे हैं, लेकिन उनकी बदहाली दूर नहीं हो रही। इसके आसार कम हैं कि उच्च पदों पर बैठे और खुद को भ्रष्टाचार से परे बताने वाले हमारे राजनेता नौकरशाही को ऐसा कोई मार्गदर्शन दे पाएंगे जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बदहाली दूर हो और ग्रामीण इलाके सरकारी तंत्र की जकड़न से मुक्त होकर अपने पैरों पर खड़े हो सकें। ऐसा तभी हो सकता है जब नई परिपाटियों का विकास किया जाएगा। यदि ग्रामीण क्षेत्रों का सही ढंग से विकास नहीं हुआ तो खाद्य महंगाई से छुटकारा मिलने वाला नहीं। संप्रग सरकार अपने दूसरे कार्यकाल का दूसरा बजट पेश करने की तैयारी कर रही है। यह समय ही बताएगा कि महंगाई के इस माहौल में वित्त मंत्री ऐसी कोई व्यवस्था का निर्माण कर पाएंगे या नहीं जिससे ग्रामीण इलाकों की दशा सुधरे और कृषि क्षेत्र की उत्पादकता बढ़े। वित्त मंत्री उन सुधारों से अच्छी तरह परिचित हैं जो लंबित हैं, लेकिन फिलहाल यह नहीं कहा जा सकता कि बजट में इन सुधारों को गति मिलेगी। यह समय सिर्फ निजी क्षेत्र की मांगों के अनुसार ही सुधार कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने का नहीं, बल्कि सरकारी पकड़ वाले क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने वाले सुधारों का श्रीगणेश करने का है। यह श्रीगणेश तभी हो सकता है जब पर्याप्त राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया जाएगा।
साभार:-दैनिक जागरण
आखिर जिसका डर सता रहा था वही हुआ, खाने-पीने की वस्तुओं की बढ़ती कीमतों ने खाद्य मुद्रास्फीति को 18 प्रतिशत तक पहुंचा दिया। यह आम आदमी की कमर तोड़ने वाली स्थिति है, क्योंकि खाद्य पदाथरें के साथ-साथ घर-गृहस्थी में काम आने वाली करीब-करीब उस प्रत्येक वस्तु के दाम बढ़ गए हैं जो मध्यम वर्गीय परिवारों की जरूरत बन गई है। इनमें से कुछ वस्तुएं ऐसी भी हैं जिनकी कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजारों में या तो घट रही हैं या फिर स्थिर हैं। केंद्र सरकार के महंगाई नियंत्रित करने के दावे खोखले ही नहीं झूठे भी साबित हुए हैं। पिछले दिनों गृहमंत्री पी। चिदंबरम ने यह कहकर देश को तगड़ा झटका दिया कि उन्हें इसका भरोसा नहीं कि सरकार के पास महंगाई रोकने के पर्याप्त उपाय हैं। दो बार वित्त मंत्री रह चुके चिदंबरम ने यह भी कहा कि बढ़ती महंगाई अपने आप में एक टैक्स है। महंगाई पर लगाम लगाने के पर्याप्त उपाय न होने की स्वीकारोक्ति कोई सामान्य बात नहीं और वह भी तब जब यह स्वीकारोक्ति केंद्र सरकार के एक वरिष्ठ एवं अर्थशास्त्री माने जाने वाले एक ऐसे मंत्री की ओर से की गई हो जो पिछले सात वर्ष से सत्ता में हो। इस स्वीकारोक्ति से स्पष्ट होता है कि सरकार महंगाई पर नियंत्रण के मामले में अंधेरे में तीर चला रही है। पिछले वर्ष जब मुद्रास्फीति दर दहाई अंकों पर पहुंची थी तब सरकार ने उस पर जल्द ही काबू पाने का आश्वासन दिया था, लेकिन वह खोखला साबित हुआ। इसके बाद सरकार की ओर से महंगाई बढ़ने के तरह-तरह के कारण गिनाए गए। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने यह तर्क दिया कि महंगाई इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि लोगों की आमदनी बढ़ रही है। इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया हुई, लेकिन बाद में इस तरह के वक्तव्य अन्य नेताओं की ओर से भी दिए गए। हाल में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भी यह कहा कि आमदनी बढ़ने के कारण महंगाई बढ़ रही है, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने राज्य सरकारों को जमाखोरों के खिलाफ कार्रवाई करने के निर्देश भी दिए। यदि यह मान लिया जाए कि पिछले कई वर्षो से विकास दर आठ प्रतिशत के आसपास रहने के कारण औसत भारतीयों की आमदनी बढ़ी है और इसके चलते खाने-पीने की वस्तुओं की खपत भी बढ़ गई है तो भी यह कोई ऐसी असामान्य बात नहीं। आखिर उसकी ओर से ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकी जिससे खाद्य पदार्थो और विशेष रूप से खाद्यान्न एवं सब्जियों का उत्पादन बढ़ता? पिछले दिनों हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की अध्यक्षता में गठित समिति ने यह सिफारिश की कि देश की आवश्यकता भर खाद्यान्न का उत्पादन करने के लिए विदेशों में खेती की जानी चाहिए। यदि ऐसा करने की नौबत आ चुकी है तो इसका मतलब है कि कृषि मंत्रालय हाथ पर हाथ धरे बैठा हुआ है और उसे इसकी कोई परवाह नहीं कि कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़े। कहने को तो भारत कृषि प्रधान देश है, लेकिन कृषि क्षेत्र की बदहाली बढ़ती जा रही है। हालांकि राज्यों और केंद्र में मुख्यत: किसानों के वोट से सरकारें बनती हैं, लेकिन सत्ता में बैठे लोग उनकी ही अवहेलना करते हैं। धीरे-धीरे ग्रामीण अर्थव्यवस्था सरकारी मदद पर आश्रित होती जा रही है। इसके विपरीत शहरों की अर्थव्यवस्था काफी कुछ निजी क्षेत्र पर निर्भर हो चुकी है। अब इस पर विचार किया जाना चाहिए कि कहीं ग्रामीण अर्थव्यवस्था इसलिए तो पंगु नहीं हो रही, क्योंकि वह सरकार की बैशाखियों पर टिकी है? कुछ अर्थशास्ति्रयों का मानना है कि सरकारी तंत्र पर निर्भरता के चलते कृषि क्षेत्र अपनी कमजोरी से उबर नहीं पा रहा। चूंकि सरकारी तंत्र पर कृषि क्षेत्र की निर्भरता राजनीतिक दलों को वोट दिलाती है इसलिए वे हालात बदलने के लिए तैयार नहीं। कृषि क्षेत्र पर सरकारी तंत्र की पकड़ बरकरार रहने का एक अन्य कारण घपलों-घोटालों को आसानी से अंजाम देना और उन पर पर्दा डालना भी नजर आता है। खाद्य पदार्थो के मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि के पीछे भी एक किस्म में भ्रष्टाचार ही दिखता है। भले ही चिदंबरम यह कह रहे हों कि सरकार के पास महंगाई रोकने के पर्याप्त उपाय नहीं, लेकिन इस पर यकीन करना कठिन है कि जो प्रशासनिक व्यवस्था ब्रिटिश काल के जमाने से चली आ रही हो वह पिछले एक दशक में इतनी कमजोर हो चुकी है कि नौकरशाहों को इसकी भनक तक न लगे कि कहां किस चीज की कमी होने वाली है और कहां जमाखोरी हो रही है? ऐसा लगता है कि महंगाई पर लगाम लगाने के उपाय इसलिए नहीं किए जा रहे, क्योंकि इससे ही सबकी जेबें भर रही हैं और अवैध कमाई का हिस्सा आसानी से नीचे से लेकर ऊपर तक पहुंच रहा है। आम आदमी के दुख-दर्द की तो किसी को परवाह ही नहीं और शायद हमारे राजनेता यह मान बैठे हैं कि मध्यम वर्गीय परिवार आर्थिक रूप से इतने सक्षम हो गए हैं कि वे बढ़ती महंगाई किसी न किसी तरह सहन कर लेंगे। विपक्षी दल महंगाई को लेकर शोर तो बहुत मचा रहें हैं, लेकिन अनेक राज्यों में उनका ही शासन है और वहां भी मूल्यवृद्धि पर कोई अंकुश नहीं। बढ़ती महंगाई के लिए राज्य केंद्र को दोषी ठहरा रहे हैं और केंद्र राज्यों पर दोषारोपण कर रहा है। इससे यदि कुछ स्पष्ट है तो यह कि कोई भी भ्रष्ट व्यवस्था में दखल देने के लिए तैयार नहीं। शायद इसी में राजनीतिक दलों का हित है यानी उनकी तिजोरियां आसानी से भर सकती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों की योजनाओं पर प्रति वर्ष अरबों रुपये फूंके जा रहे हैं, लेकिन उनकी बदहाली दूर नहीं हो रही। इसके आसार कम हैं कि उच्च पदों पर बैठे और खुद को भ्रष्टाचार से परे बताने वाले हमारे राजनेता नौकरशाही को ऐसा कोई मार्गदर्शन दे पाएंगे जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बदहाली दूर हो और ग्रामीण इलाके सरकारी तंत्र की जकड़न से मुक्त होकर अपने पैरों पर खड़े हो सकें। ऐसा तभी हो सकता है जब नई परिपाटियों का विकास किया जाएगा। यदि ग्रामीण क्षेत्रों का सही ढंग से विकास नहीं हुआ तो खाद्य महंगाई से छुटकारा मिलने वाला नहीं। संप्रग सरकार अपने दूसरे कार्यकाल का दूसरा बजट पेश करने की तैयारी कर रही है। यह समय ही बताएगा कि महंगाई के इस माहौल में वित्त मंत्री ऐसी कोई व्यवस्था का निर्माण कर पाएंगे या नहीं जिससे ग्रामीण इलाकों की दशा सुधरे और कृषि क्षेत्र की उत्पादकता बढ़े। वित्त मंत्री उन सुधारों से अच्छी तरह परिचित हैं जो लंबित हैं, लेकिन फिलहाल यह नहीं कहा जा सकता कि बजट में इन सुधारों को गति मिलेगी। यह समय सिर्फ निजी क्षेत्र की मांगों के अनुसार ही सुधार कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने का नहीं, बल्कि सरकारी पकड़ वाले क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने वाले सुधारों का श्रीगणेश करने का है। यह श्रीगणेश तभी हो सकता है जब पर्याप्त राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया जाएगा।
साभार:-दैनिक जागरण
भ्रष्टाचार को मिटाने का मंत्र



भारत को आर्थिक महाशक्ति बनते देख अगर संसार उसकी प्रशंसा कर रहा है तो भारतीय जनजीवन के प्रत्येक अंग में फैलते भ्रष्टाचार के कैंसर को देखकर चिंतित भी है। भारत को संसार का चौथा सबसे भ्रष्ट देश घोषित किया जा चुका है। आए दिन अरबों के घोटालों के भंडाफोड़ विश्व के मीडिया में स्थान पा रहे हैं, जिससे भारत की साख पर बट्टा लग रहा है। भ्रष्टाचार के इस कैंसर का कारगर इलाज क्या है-कड़े कानून, कठोर दंड या कुछ और? केवल कड़े कानून बनाने से भ्रष्टाचार को खत्म नहीं किया जा सकता, लेकिन इनकी आवश्यकता से इनकार भी नहीं किया जा सकता। इनके साथ कठोर दंड की भी जरूरत है। हालांकि जिन देशों में चोरी-बेईमानी आदि अपराधों के दंड के तौर पर हाथ-पांव काट दिए जाते हैं, वहां भ्रष्टाचार पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ, लेकिन नियंत्रण में जरूर रहता है। भारत में तो भ्रष्टाचार बेकाबू हो चुका है। आज भारत बहुत हद तक भ्रष्टतंत्र बनकर रह गया है। उसके पास सब कुछ है-बुद्धिबल, कार्यकुशलता, प्राकृतिक संसाधन, धनोपार्जन की क्षमता और श्रमबल। अगर कमी है तो चरित्र और नैतिकता की, देशहित को प्राथमिकता देने की भावना की, जवाबदेही की और अपराधियों को यथाशीघ्र तथा यथोचित दंड देने की। भ्रष्टाचार के इस कैंसर का इलाज करते समय राजतंत्र और अर्थतंत्र की नीतियों और कार्यपद्धतियों पर विचार करना आवश्यक है। सबसे पहले इस बात का विश्लेषण होना चाहिए कि देश इस हालत तक पहुंचा कैसे? प्रांतवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद, भाषावाद और स्वार्थपूर्ण राजनीति ने क्यों और कैसे जड़ें जमाईं, जो भ्रष्टाचार को पनपाती आ रही हैं? क्या इन बुराइयों के लिए देश का संविधान ही तो जिम्मेदार नहीं है? क्या कुछ राज्यों को विशेषाधिकार देने और उनमें सब लोगों को संपत्ति खरीदने और बसने के अधिकारों से वंचित रखने से ही तो प्रांतवाद और अलगाववाद को बढ़ावा नहीं मिला? फिर सवाल उठता है आरक्षणवाद की उपयोगिता-अनुपयोगिता का। क्या इसने एक नए जातिवाद और नए भेदभाव को जन्म नहीं दिया, जो आरक्षण की सुविधाएं और लाभ पाने के लिए भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है और गुणवत्ता तथा योग्यता की उपेक्षा कर रहा है? इसके बाद शिक्षा पर विचार करने की जरूरत है। भारत में जो शिक्षा दी जा रही है, क्या वह राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करने और सदाचारी बनाने की दृष्टि से सही है और काफी है? कहीं यह शिक्षा ही तो दूषित नहीं, जो कुछ लोगों को स्वार्थी, लोभी और भ्रष्ट बना रही है? क्या वजह है कि स्वतंत्रता मिलने के 63 वर्ष बाद भी बहुत बड़ी संख्या में हमारे बीच के लोग अनपढ़ हैं या गरीबों के बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ने को विवश हो जाते हैं? बहुत से लोग बढ़ती जनसंख्या को भी भ्रष्टाचार का कारण मानते हैं। चारों ओर मची आपाधापी के लिए बढ़ती हुई जनसंख्या और घटते हुए अवसर एक हद तक जिम्मेदार हो सकते हैं, लेकिन सारा दोष जनसंख्या को नहीं दिया जा सकता। यह लोगों में चरित्र के Oास, अनैतिकता और बेईमानी के लिए जिम्मेदार नहीं है। एक और बड़ी जरूरत है देश की राजनीतिक व्यवस्था के विश्लेषण की, जो लोकतंत्र के नाम पर येन-केन-प्रकारेण वोट और नोट बटोरने की धूर्तता बनकर रह गई है। इस सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के लिए बहुत हद तक यह घटिया और दूषित राजनीति भी जिम्मेदार है, जो मतदाताओं को जातियों, धमरें, अगड़ों-पिछड़ों और ऊंचे-नीचे वगरें में बांटकर देखती है। इस राजनीति के शातिर और स्वार्थी खिलाड़ी सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते हैं। क्या मतदाताओं को यह बात सोचने को मजबूर नहीं करती कि चुनावों में खड़े होने वाले उम्मीदवार करोड़ों रुपये कैसे खर्च कर लेते हैं और पार्टियों के पास चुनावों के लिए अरबों रुपये कहां से आते हैं? जाहिर है कि पार्टियां और प्रत्याशी इसे निवेश समझते हैं और जानते हैं कि इस व्यापार में कभी घाटा नहीं होता। आज जरूरत है भारतीय आचार-व्यवहार, रीति-नीति, विधि-विधान और समूची शासन-पद्धति के विश्लेषण और परिवर्तन की तथा भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने के कारगर उपायों की। इसकी शुरुआत दागी छवि वाले और अशिक्षित व्यक्ति को चुनाव न लड़ने देने या फिर उन्हें चुनाव में वोट न देने से की जा सकती है। पार्टियों द्वारा चुनावों पर किए जाने वाले खर्च की कसकर पड़ताल होनी चाहिए और उनके भ्रष्ट तरीकों, अंधाधुंध प्रचार और पोस्टरबाजी पर कड़ा अंकुश लगना चाहिए। लोकतंत्र को भ्रष्ट और अवसरवादी लोगों का अखाड़ा नहीं बन जाना चाहिए। इसमें जिसे जो जिम्मेदारी सौंपी जाए, उससे उसका हिसाब मांगा जाना चाहिए। उसके बैंक खातों, संपत्तियों, ख़चरें और रहन-सहन के स्तर का निरंतर निरीक्षण-परीक्षण होते रहना चाहिए। लोकतंत्र के संचालन और नियंत्रण में अधिकाधिक लोगों की भागीदारी होनी चाहिए। लोग देश के लिए समय दें, उसे अपनी योग्यता, कार्यकुशलता और सेवाएं अर्पित करें। किसी भी लोकतंत्र में मतदाता को केवल जिस-तिस को वोट देने को ही अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं समझ लेना चाहिए। लोकतंत्र केवल अधिकार ही नहीं देता, जिम्मेदारियां भी सौंपता है। सबको उन्हें पूरा करना चाहिए। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन देश को बिग सोसाइटी बनाना चाहते हैं। बिग सोसाइटी यानी देश के प्रशासन और संचालन में जनता की अधिक-से-अधिक भागीदारी। ब्रिटेन की इस नई गठबंधन सरकार का यह सपना कितना साकार होगा, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन अगर भारत चाहे तो बिग सोसाइटी के इस विचार से प्रेरणा अवश्य ले सकता है और उसे अपनी जरूरतों और परिस्थितियों के अनुकूल ढाल सकता है। (लेखक बीबीसी के पूर्व प्रसारक हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
Sunday, January 9, 2011
इतालवी अतिथि की चिंता
क्वात्रोची के संदर्भ में आयकर न्यायाधिकरण के फैसले पर दिग्विजय सिंह के संदेहों को अनावश्यक मान रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश
बोफोर्स तोप सौदे में 73 लाख डालर की दलाली लेने वाले इतालवी व्यवसायी ओट्टावियो क्वात्रोची के प्रति कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की चिंता वाकई अद्भुत है। साफ तौर पर दिग्विजय सिंह का इस पर विश्वास है कि अतिथि देवो भव का विचार सभी अतिथियों पर लागू होना चाहिए-भले ही वे अपराधी हों या कमीशन एजेंट। दिग्विजय सिंह के मुताबिक आयकर विभाग के अपीलीय न्यायाधिकरण ने अपने फैसले में बोफोर्स तोप सौदे में दलाली खाने वालों में क्वात्रोची का जो नाम लिया है वह तीन कारणों से संदेह पैदा करता है। पहला, इस निर्णय का समय बहुत बड़ी पहेली की तरह है। उनके मुताबिक न्यायाधिकरण को चार जनवरी को फैसला देना था, लेकिन उसने 31 दिसंबर को अपना निर्णय दे दिया। दूसरे, न्यायाधिकरण ने अपना फैसला तीन जनवरी को सार्वजनिक कर दिया अर्थात बोफोर्स मामला बंद करने संबंधी सीबीआइ की अपील पर अदालत का नजरिया सामने आने के ठीक एक दिन पहले। इस कथित जल्दबाजी से दिग्विजय सिंह को न्यायाधिकरण के मंतव्य पर संदेह होता है। दिगिवजय सिंह के संदेह का तीसरा आधार यह है कि न्यायाधिकरण विन चड्ढा के पुत्र हर्ष चड्ढा की अपील पर सुनवाई कर रहा था, लेकिन उसने क्वात्रोची को कमीशन का भुगतान किए जाने पर अपना ध्यान केंद्रित क्यों किया? दिग्विजय सिंह की इस साजिश संबंधी ध्योरी पर नजदीकी ध्यान दिए जाने की जरूरत है। सबसे पहले तो यह कि यदि संदेह के आधार सही भी हैं तो दिग्विजय सिंह सरीखे एक भारतीय नागरिक को इस बात से क्यों परेशानी हो रही है कि आयकर न्यायाधिकरण ने कमीशन एजेंटों (जिनमें एक विदेशी भी शामिल है) के संदर्भ में अपना फैसला तीन-चार दिन पहले सुना दिया। आखिर दिग्विजय किस जल्दबाजी की बात कर रहे हैं? क्या उन्हें नहीं मालूम कि न्यायाधिकरण का फैसला बोफोर्स द्वारा क्वात्रोची के खाते में दलाली की रकम जमा कराए जाने के 22 वर्ष बाद आया है? दूसरे, दिग्विजय सिंह को यह शिकायत क्यों है कि न्यायाधिकरण का फैसला तीन जनवरी को सार्वजनिक कर दिया गया? इसके विपरीत एक सजग नागरिक के रूप में उन्हें यह सवाल उठाना चाहिए था कि 31 दिसंबर को फैसला हो जाने के बावजूद इसे तीन जनवरी को क्यों सार्वजनिक किया गया? जिन्हें भारतीय संस्थानों में पारदर्शिता और जवाबदेही की परवाह है उन्हें इस देरी पर चिंतित होना चाहिए, न कि यह सवाल उठाना चाहिए कि फैसला एक ऐसे समय क्यों दिया गया जब क्वात्रोची के संदर्भ में महत्वपूर्ण अदालती निर्णय आना था। कांग्रेस पार्टी में जिम्मेदारी वाला पद संभालने वाले दिग्विजय सिंह की इस शिकायत का भी कोई औचित्य नहीं कि न्यायाधिकरण ने क्वात्रोची का उल्लेख क्यों किया? आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण का फैसला पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति इससे सहमत होगा कि दिग्विजय के संदेह का कोई आधार नहीं है। न्यायाधिकरण ने कहा है कि कमीशन एजेंटों पर प्रतिबंध के बावजूद बोफोर्स ने क्वात्रोची के कहने पर 15 नवंबर 1985 को एई सर्विसेज के साथ नया करार किया। इस समझौते के अनुसार यदि बोफोर्स को 31 मार्च 1986 के पहले सौदा मिल जाता तो वह सौदे की कुल राशि की तीन प्रतिशत राशि दलाली के रूप में भुगतान करेगी। यह विचित्र संयोग है कि बोफोर्स और भारत के समझौते पर 24 मार्च 1986 को हस्ताक्षर हुए। बोफोर्स ने भारत के रक्षा मंत्रालय को 10 मार्च, 1986 को भेजे गए पत्र में जानबूझकर दलाली से संबंधित समझौते का तथ्य छिपाया। न्यायाधिकरण ने उल्लेख किया है कि क्वात्रोची 28-2-1965 से 29-7-1993 तक भारत में रहे। इस दौरान केवल 4-3-1966 से 12-6-1968 की संक्षिप्त अवधि के दौरान वह देश से बाहर रहे। वह पेशे से एक चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं, जो एक इतालवी बहुराष्ट्रीय कंपनी मेसर्स स्नैमप्रोगेटी के लिए काम करते थे। न तो क्वात्रोची और न ही स्नैमप्रोगेटी को हथियार अथवा किसी अन्य रक्षा उपकरण का कोई अनुभव था। भारतीय अधिकारियों द्वारा स्विट्जरलैंड से प्राप्त किए गए बैंक प्रपत्रों के आधार पर न्यायाधिकरण ने बताया है कि भारत ने सौदे की 20 प्रतिशत राशि का भुगतान 2 मई 1986 को किया। इसमें से बोफोर्स ने तीन सितंबर 1986 को ज्यूरिख स्थित एई सर्विसेज के अमुक खाते में 7343941।98 डालर की रकम में जमा कर दी। यह रकम एडवांस के रूप में दी गई राशि का ठीक तीन प्रतिशत थी। इसके बाद क्वात्रोची ने इस रकम को एक खाते से दूसरे खाते में स्थानांतरित किया। ये सभी खाते उनके और उनकी पत्नी मारिया के नाम थे। न्यायाधिकरण ने यह भी बताया है कि क्वात्रोची ने एक खाता खोलने के लिए भारत में अपना फर्जी पता दिया। ऐसा लगता है कि न्यायाधिकरण को यह अंदाज था कि दिग्विजय सिंह सरीखे राजनेता उसके फैसले पर सवाल उठाएंगे। इसीलिए उसने कहा है कि भारतीय आयकर सभी तरह की आय पर लागू किया जाता है-फिर वह चाहे वैध हो अथवा अवैध या इसे कमाने वाला भारतीय हो अथवा विदेशी। उसने इस पर हैरानी भी जताई है कि क्वात्रोची तथा अन्य लोगों पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई? साफ है कि कांग्रेस में वफादारी की एकमात्र कसौटी यह है कि आलाकमान के इतालवी मित्रों के हितों की आप कितनी चिंता करते हैं। कांग्रेस के नेताओं के लिए इटली का कोई भी अतिथि देवता के समान ही है। यह दिग्विजय सिंह सरीखे नागरिक ही हैं जो भारत को एक शताब्दी से भी अधिक समय से गुलाम बनाए हुए हैं। उन्होंने इसकी झलक दिखा दी है कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बन जाती हैं तो कांग्रेस नेता चाटुकारिता की किस हद तक गिर सकते हैं। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
बोफोर्स तोप सौदे में 73 लाख डालर की दलाली लेने वाले इतालवी व्यवसायी ओट्टावियो क्वात्रोची के प्रति कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की चिंता वाकई अद्भुत है। साफ तौर पर दिग्विजय सिंह का इस पर विश्वास है कि अतिथि देवो भव का विचार सभी अतिथियों पर लागू होना चाहिए-भले ही वे अपराधी हों या कमीशन एजेंट। दिग्विजय सिंह के मुताबिक आयकर विभाग के अपीलीय न्यायाधिकरण ने अपने फैसले में बोफोर्स तोप सौदे में दलाली खाने वालों में क्वात्रोची का जो नाम लिया है वह तीन कारणों से संदेह पैदा करता है। पहला, इस निर्णय का समय बहुत बड़ी पहेली की तरह है। उनके मुताबिक न्यायाधिकरण को चार जनवरी को फैसला देना था, लेकिन उसने 31 दिसंबर को अपना निर्णय दे दिया। दूसरे, न्यायाधिकरण ने अपना फैसला तीन जनवरी को सार्वजनिक कर दिया अर्थात बोफोर्स मामला बंद करने संबंधी सीबीआइ की अपील पर अदालत का नजरिया सामने आने के ठीक एक दिन पहले। इस कथित जल्दबाजी से दिग्विजय सिंह को न्यायाधिकरण के मंतव्य पर संदेह होता है। दिगिवजय सिंह के संदेह का तीसरा आधार यह है कि न्यायाधिकरण विन चड्ढा के पुत्र हर्ष चड्ढा की अपील पर सुनवाई कर रहा था, लेकिन उसने क्वात्रोची को कमीशन का भुगतान किए जाने पर अपना ध्यान केंद्रित क्यों किया? दिग्विजय सिंह की इस साजिश संबंधी ध्योरी पर नजदीकी ध्यान दिए जाने की जरूरत है। सबसे पहले तो यह कि यदि संदेह के आधार सही भी हैं तो दिग्विजय सिंह सरीखे एक भारतीय नागरिक को इस बात से क्यों परेशानी हो रही है कि आयकर न्यायाधिकरण ने कमीशन एजेंटों (जिनमें एक विदेशी भी शामिल है) के संदर्भ में अपना फैसला तीन-चार दिन पहले सुना दिया। आखिर दिग्विजय किस जल्दबाजी की बात कर रहे हैं? क्या उन्हें नहीं मालूम कि न्यायाधिकरण का फैसला बोफोर्स द्वारा क्वात्रोची के खाते में दलाली की रकम जमा कराए जाने के 22 वर्ष बाद आया है? दूसरे, दिग्विजय सिंह को यह शिकायत क्यों है कि न्यायाधिकरण का फैसला तीन जनवरी को सार्वजनिक कर दिया गया? इसके विपरीत एक सजग नागरिक के रूप में उन्हें यह सवाल उठाना चाहिए था कि 31 दिसंबर को फैसला हो जाने के बावजूद इसे तीन जनवरी को क्यों सार्वजनिक किया गया? जिन्हें भारतीय संस्थानों में पारदर्शिता और जवाबदेही की परवाह है उन्हें इस देरी पर चिंतित होना चाहिए, न कि यह सवाल उठाना चाहिए कि फैसला एक ऐसे समय क्यों दिया गया जब क्वात्रोची के संदर्भ में महत्वपूर्ण अदालती निर्णय आना था। कांग्रेस पार्टी में जिम्मेदारी वाला पद संभालने वाले दिग्विजय सिंह की इस शिकायत का भी कोई औचित्य नहीं कि न्यायाधिकरण ने क्वात्रोची का उल्लेख क्यों किया? आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण का फैसला पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति इससे सहमत होगा कि दिग्विजय के संदेह का कोई आधार नहीं है। न्यायाधिकरण ने कहा है कि कमीशन एजेंटों पर प्रतिबंध के बावजूद बोफोर्स ने क्वात्रोची के कहने पर 15 नवंबर 1985 को एई सर्विसेज के साथ नया करार किया। इस समझौते के अनुसार यदि बोफोर्स को 31 मार्च 1986 के पहले सौदा मिल जाता तो वह सौदे की कुल राशि की तीन प्रतिशत राशि दलाली के रूप में भुगतान करेगी। यह विचित्र संयोग है कि बोफोर्स और भारत के समझौते पर 24 मार्च 1986 को हस्ताक्षर हुए। बोफोर्स ने भारत के रक्षा मंत्रालय को 10 मार्च, 1986 को भेजे गए पत्र में जानबूझकर दलाली से संबंधित समझौते का तथ्य छिपाया। न्यायाधिकरण ने उल्लेख किया है कि क्वात्रोची 28-2-1965 से 29-7-1993 तक भारत में रहे। इस दौरान केवल 4-3-1966 से 12-6-1968 की संक्षिप्त अवधि के दौरान वह देश से बाहर रहे। वह पेशे से एक चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं, जो एक इतालवी बहुराष्ट्रीय कंपनी मेसर्स स्नैमप्रोगेटी के लिए काम करते थे। न तो क्वात्रोची और न ही स्नैमप्रोगेटी को हथियार अथवा किसी अन्य रक्षा उपकरण का कोई अनुभव था। भारतीय अधिकारियों द्वारा स्विट्जरलैंड से प्राप्त किए गए बैंक प्रपत्रों के आधार पर न्यायाधिकरण ने बताया है कि भारत ने सौदे की 20 प्रतिशत राशि का भुगतान 2 मई 1986 को किया। इसमें से बोफोर्स ने तीन सितंबर 1986 को ज्यूरिख स्थित एई सर्विसेज के अमुक खाते में 7343941।98 डालर की रकम में जमा कर दी। यह रकम एडवांस के रूप में दी गई राशि का ठीक तीन प्रतिशत थी। इसके बाद क्वात्रोची ने इस रकम को एक खाते से दूसरे खाते में स्थानांतरित किया। ये सभी खाते उनके और उनकी पत्नी मारिया के नाम थे। न्यायाधिकरण ने यह भी बताया है कि क्वात्रोची ने एक खाता खोलने के लिए भारत में अपना फर्जी पता दिया। ऐसा लगता है कि न्यायाधिकरण को यह अंदाज था कि दिग्विजय सिंह सरीखे राजनेता उसके फैसले पर सवाल उठाएंगे। इसीलिए उसने कहा है कि भारतीय आयकर सभी तरह की आय पर लागू किया जाता है-फिर वह चाहे वैध हो अथवा अवैध या इसे कमाने वाला भारतीय हो अथवा विदेशी। उसने इस पर हैरानी भी जताई है कि क्वात्रोची तथा अन्य लोगों पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई? साफ है कि कांग्रेस में वफादारी की एकमात्र कसौटी यह है कि आलाकमान के इतालवी मित्रों के हितों की आप कितनी चिंता करते हैं। कांग्रेस के नेताओं के लिए इटली का कोई भी अतिथि देवता के समान ही है। यह दिग्विजय सिंह सरीखे नागरिक ही हैं जो भारत को एक शताब्दी से भी अधिक समय से गुलाम बनाए हुए हैं। उन्होंने इसकी झलक दिखा दी है कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बन जाती हैं तो कांग्रेस नेता चाटुकारिता की किस हद तक गिर सकते हैं। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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