Monday, January 10, 2011

भ्रष्ट व्यवस्था को संरक्षण

खाद्य पदार्थो की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि के पीछे भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली व्यवस्था को जिम्मेदार मान रहे हैं संजय गुप्त
आखिर जिसका डर सता रहा था वही हुआ, खाने-पीने की वस्तुओं की बढ़ती कीमतों ने खाद्य मुद्रास्फीति को 18 प्रतिशत तक पहुंचा दिया। यह आम आदमी की कमर तोड़ने वाली स्थिति है, क्योंकि खाद्य पदाथरें के साथ-साथ घर-गृहस्थी में काम आने वाली करीब-करीब उस प्रत्येक वस्तु के दाम बढ़ गए हैं जो मध्यम वर्गीय परिवारों की जरूरत बन गई है। इनमें से कुछ वस्तुएं ऐसी भी हैं जिनकी कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजारों में या तो घट रही हैं या फिर स्थिर हैं। केंद्र सरकार के महंगाई नियंत्रित करने के दावे खोखले ही नहीं झूठे भी साबित हुए हैं। पिछले दिनों गृहमंत्री पी। चिदंबरम ने यह कहकर देश को तगड़ा झटका दिया कि उन्हें इसका भरोसा नहीं कि सरकार के पास महंगाई रोकने के पर्याप्त उपाय हैं। दो बार वित्त मंत्री रह चुके चिदंबरम ने यह भी कहा कि बढ़ती महंगाई अपने आप में एक टैक्स है। महंगाई पर लगाम लगाने के पर्याप्त उपाय न होने की स्वीकारोक्ति कोई सामान्य बात नहीं और वह भी तब जब यह स्वीकारोक्ति केंद्र सरकार के एक वरिष्ठ एवं अर्थशास्त्री माने जाने वाले एक ऐसे मंत्री की ओर से की गई हो जो पिछले सात वर्ष से सत्ता में हो। इस स्वीकारोक्ति से स्पष्ट होता है कि सरकार महंगाई पर नियंत्रण के मामले में अंधेरे में तीर चला रही है। पिछले वर्ष जब मुद्रास्फीति दर दहाई अंकों पर पहुंची थी तब सरकार ने उस पर जल्द ही काबू पाने का आश्वासन दिया था, लेकिन वह खोखला साबित हुआ। इसके बाद सरकार की ओर से महंगाई बढ़ने के तरह-तरह के कारण गिनाए गए। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने यह तर्क दिया कि महंगाई इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि लोगों की आमदनी बढ़ रही है। इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया हुई, लेकिन बाद में इस तरह के वक्तव्य अन्य नेताओं की ओर से भी दिए गए। हाल में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भी यह कहा कि आमदनी बढ़ने के कारण महंगाई बढ़ रही है, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने राज्य सरकारों को जमाखोरों के खिलाफ कार्रवाई करने के निर्देश भी दिए। यदि यह मान लिया जाए कि पिछले कई वर्षो से विकास दर आठ प्रतिशत के आसपास रहने के कारण औसत भारतीयों की आमदनी बढ़ी है और इसके चलते खाने-पीने की वस्तुओं की खपत भी बढ़ गई है तो भी यह कोई ऐसी असामान्य बात नहीं। आखिर उसकी ओर से ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकी जिससे खाद्य पदार्थो और विशेष रूप से खाद्यान्न एवं सब्जियों का उत्पादन बढ़ता? पिछले दिनों हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की अध्यक्षता में गठित समिति ने यह सिफारिश की कि देश की आवश्यकता भर खाद्यान्न का उत्पादन करने के लिए विदेशों में खेती की जानी चाहिए। यदि ऐसा करने की नौबत आ चुकी है तो इसका मतलब है कि कृषि मंत्रालय हाथ पर हाथ धरे बैठा हुआ है और उसे इसकी कोई परवाह नहीं कि कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़े। कहने को तो भारत कृषि प्रधान देश है, लेकिन कृषि क्षेत्र की बदहाली बढ़ती जा रही है। हालांकि राज्यों और केंद्र में मुख्यत: किसानों के वोट से सरकारें बनती हैं, लेकिन सत्ता में बैठे लोग उनकी ही अवहेलना करते हैं। धीरे-धीरे ग्रामीण अर्थव्यवस्था सरकारी मदद पर आश्रित होती जा रही है। इसके विपरीत शहरों की अर्थव्यवस्था काफी कुछ निजी क्षेत्र पर निर्भर हो चुकी है। अब इस पर विचार किया जाना चाहिए कि कहीं ग्रामीण अर्थव्यवस्था इसलिए तो पंगु नहीं हो रही, क्योंकि वह सरकार की बैशाखियों पर टिकी है? कुछ अर्थशास्ति्रयों का मानना है कि सरकारी तंत्र पर निर्भरता के चलते कृषि क्षेत्र अपनी कमजोरी से उबर नहीं पा रहा। चूंकि सरकारी तंत्र पर कृषि क्षेत्र की निर्भरता राजनीतिक दलों को वोट दिलाती है इसलिए वे हालात बदलने के लिए तैयार नहीं। कृषि क्षेत्र पर सरकारी तंत्र की पकड़ बरकरार रहने का एक अन्य कारण घपलों-घोटालों को आसानी से अंजाम देना और उन पर पर्दा डालना भी नजर आता है। खाद्य पदार्थो के मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि के पीछे भी एक किस्म में भ्रष्टाचार ही दिखता है। भले ही चिदंबरम यह कह रहे हों कि सरकार के पास महंगाई रोकने के पर्याप्त उपाय नहीं, लेकिन इस पर यकीन करना कठिन है कि जो प्रशासनिक व्यवस्था ब्रिटिश काल के जमाने से चली आ रही हो वह पिछले एक दशक में इतनी कमजोर हो चुकी है कि नौकरशाहों को इसकी भनक तक न लगे कि कहां किस चीज की कमी होने वाली है और कहां जमाखोरी हो रही है? ऐसा लगता है कि महंगाई पर लगाम लगाने के उपाय इसलिए नहीं किए जा रहे, क्योंकि इससे ही सबकी जेबें भर रही हैं और अवैध कमाई का हिस्सा आसानी से नीचे से लेकर ऊपर तक पहुंच रहा है। आम आदमी के दुख-दर्द की तो किसी को परवाह ही नहीं और शायद हमारे राजनेता यह मान बैठे हैं कि मध्यम वर्गीय परिवार आर्थिक रूप से इतने सक्षम हो गए हैं कि वे बढ़ती महंगाई किसी न किसी तरह सहन कर लेंगे। विपक्षी दल महंगाई को लेकर शोर तो बहुत मचा रहें हैं, लेकिन अनेक राज्यों में उनका ही शासन है और वहां भी मूल्यवृद्धि पर कोई अंकुश नहीं। बढ़ती महंगाई के लिए राज्य केंद्र को दोषी ठहरा रहे हैं और केंद्र राज्यों पर दोषारोपण कर रहा है। इससे यदि कुछ स्पष्ट है तो यह कि कोई भी भ्रष्ट व्यवस्था में दखल देने के लिए तैयार नहीं। शायद इसी में राजनीतिक दलों का हित है यानी उनकी तिजोरियां आसानी से भर सकती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों की योजनाओं पर प्रति वर्ष अरबों रुपये फूंके जा रहे हैं, लेकिन उनकी बदहाली दूर नहीं हो रही। इसके आसार कम हैं कि उच्च पदों पर बैठे और खुद को भ्रष्टाचार से परे बताने वाले हमारे राजनेता नौकरशाही को ऐसा कोई मार्गदर्शन दे पाएंगे जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बदहाली दूर हो और ग्रामीण इलाके सरकारी तंत्र की जकड़न से मुक्त होकर अपने पैरों पर खड़े हो सकें। ऐसा तभी हो सकता है जब नई परिपाटियों का विकास किया जाएगा। यदि ग्रामीण क्षेत्रों का सही ढंग से विकास नहीं हुआ तो खाद्य महंगाई से छुटकारा मिलने वाला नहीं। संप्रग सरकार अपने दूसरे कार्यकाल का दूसरा बजट पेश करने की तैयारी कर रही है। यह समय ही बताएगा कि महंगाई के इस माहौल में वित्त मंत्री ऐसी कोई व्यवस्था का निर्माण कर पाएंगे या नहीं जिससे ग्रामीण इलाकों की दशा सुधरे और कृषि क्षेत्र की उत्पादकता बढ़े। वित्त मंत्री उन सुधारों से अच्छी तरह परिचित हैं जो लंबित हैं, लेकिन फिलहाल यह नहीं कहा जा सकता कि बजट में इन सुधारों को गति मिलेगी। यह समय सिर्फ निजी क्षेत्र की मांगों के अनुसार ही सुधार कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने का नहीं, बल्कि सरकारी पकड़ वाले क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने वाले सुधारों का श्रीगणेश करने का है। यह श्रीगणेश तभी हो सकता है जब पर्याप्त राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया जाएगा।
साभार:-दैनिक जागरण

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