Monday, January 10, 2011

कठघरे में सीबीआइ

आरुषि, बोफोर्स और राष्ट्रमंडल मामलों के आलोक में सीबीआइ की क्षमता पर सवालिया निशान लगा रहे हैं बीआर लाल
दिल्ली की ठंड का असर भले ही आम लोगों पर कुछ ज्यादा हो, लेकिन राजनीतिक गलियारों में गरमी और गहमागहमी का दौर है। इसका कारण है देश के दो बहुचर्चित मामलों-आरुषि तलवार और बोफोर्स कांड की जांच बंद करने के लिए सीबीआइ की पहल पर उठ रहे सवाल और राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी का पूछताछ के लिए सीबीआइ के दफ्तर में पेश होना। यहां यदि हम पहले आरुषि मामले में सीबीआइ की क्लोजर रिपोर्ट और उसकी जांच के निष्कर्षो को देखें तो यह साफ है कि यह मामला अभी बंद करने के स्तर पर नहीं पहुंचा था, क्योंकि जांच दल के अधिकारी अभी भी इस पर काम कर रहे थे और सुबूतों को जुटाने का काम जारी था। विभिन्न रपटों और मीडिया के माध्यम से प्राप्त जानकारी के मुताबिक भी सीबीआइ के हाथ अभी तक दोषियों को सजा दिला पाने लायक पर्याप्त सुबूत नहीं लगे हैं और जो सुबूत हाथ लगे हैं उनके आधार पर दोषियों को सजा नहीं दिलाई जा सकती। 16 मई, 2008 की रात आरुषि तलवार और नौकर हेमराज की हत्या के बाद के बाद जांच का प्रथम जिम्मा उत्तर प्रदेश पुलिस को मिला, जिसने सुबूतों को इकट्ठा करने में घोर लापरवाही बरती। जब मीडिया और जनता का दबाव बढ़ा तो पूरे मामले की जांच का काम सीबीआइ को सौंपा गया, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी और हत्यारों ने फोरेंसिक प्रमाणों को मिटा दिया था। ऐसी स्थिति में शुरुआती जांच के समय ही तत्कालीन सीबीआइ निदेशक ने एक बड़ी गलती यह की कि उन्होंने जांच प्रक्रिया की अधकचरी जानकारी देना शुरू कर दिया। यह एक अति संवेदनशील मसले पर अपनाया गया गैर पेशेवर रुख और नासमझी का प्रमाण था। अब एक बार फिर से ऐसी ही गलती क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करके दोहराई जा रही है। पूरे मामले को देखने से यही लग रहा है कि वर्तमान सीबीआइ निदेशक लंबित मामलों को निपटाने की जल्दी में हैं। निश्चित रूप से सीबीआइ के पास कई सारे मामले लंबित पड़े हैं, लेकिन इतने संवेदनशील मसले को महज संख्या से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। वैसे इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस निर्णय के पीछे कुछ दूसरी मजबूरियां भी उनके सामने हों। अदालत के सामने पेश की गई क्लोजर रिपोर्ट में सीबीआइ ने राजेश तलवार के तीन नौकरों राजकुमार, विजय मंडल और कृष्णा को बेगुनाह बताया है। इन तीनों नौकरों के निर्दोष साबित होने के बाद जांच अवधि के दौरान हुई परेशानियों और उनकी हिरासत के संबंध में कहा जा रहा है कि इसके लिए जिम्मेदार जांच अधिकारियों को सजा मिलनी चाहिए। मेरे विचार से यह मांग तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि किसी भी मामले की जांच-पड़ताल करने के लिए कानूनी प्रक्रिया के तहत संदेहास्पद व्यक्ति को आवश्यक पूछताछ के लिए हिरासत में रखा जा सकता है। इस कारण नौकरों को हुई परेशानी के लिए जांच अधिकारी दोषी नहीं हैं। इसी तरह यह भी सही है कि कुछ परिस्थितिजन्य साक्ष्य डॉ. राजेश तलवार के खिलाफ हंै, लेकिन जिस तरह कुछ ईटों से इमारत नहीं तैयार की जा सकती वैसै ही कुछ परिस्थितिजन्य सुबूतों के आधार पर किसी को सजा नहीं दिलाई जा सकती। इस समय एक बड़ा सवाल बोफोर्स की जांच बंद करने के लिए सीबीआइ की पहल का भी है। यह चर्चित मामला इतना लंबा खिंच चुका है कि इसके बारे में जितना कम कहा जाए, उतना ही अच्छा होगा। मीडिया में आई रपटों के मुताबिक आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण इस सौदे में तकरीबन 41 करोड़ रुपये की दलाली खाए जाने की बात कह रहा है। उसका कहना है कि विन चड्ढा अथवा उसके वारिस को दलाली की रकम का टैक्स चुकता करना चाहिए, जबकि सीबीआइ के पास इस तरह के कोई भी सुबूत नहीं हैं। यह एक अजीबोगरीब स्थिति है। स्पष्ट है कि कहीं कुछ दाल में काला अवश्य है। अब यह मामला अदालत के सामने है तो इस बारे में नीर-क्षीर निर्णय भी उसे ही करना है। 15 अरब डॉलर के बोफोर्स सौदे में कितनी दलाली खाई गई अथवा नहीं खाई गई यह एक अलग मसला है, लेकिन जहां ओतावियो क्वात्रोची की बात है तो यह सच है कि एसके जैन हवाला मामले में वह शामिल था। हवाला के माध्यम से हस्तांतरित होने वाले पैसों के लेन-देने में एसके जैन को तीन प्रतिशत और इटली निवासी ओतावियो क्वात्रोची को सात प्रतिशत कमीशन के तौर पर मिला था, यह एक आधिकारिक सच है जो मेरे कार्यकाल में सामने आया था। इसी तरह एक और बड़ा प्रकरण राष्ट्रमंडल खेलों में हुए बंदरबांट और घपले-घोटालों का है। राष्ट्रमंडल खेल समिति के महासचिव ललित भनोट समेत कुछ लोगों की गिरफ्तारी हो जाती है, जबकि पूरे आयोजन के लिए जिम्मेदार सुरेश कलमाड़ी से पूछताछ के लिए भी सीबीआइ को समय लेना पड़ता है। यह सरकार की उन पर अतिरिक्त कृपा नहीं तो और क्या है? कलमाड़ी के घर छापे मारने का निर्णय लेने में काफी देरी की गई, जिससे उन्हें सुबूतों को नष्ट करने अथवा छिपाने का पर्याप्त समय मिल गया। इसी तरह ए. राजा के घर छापा मारने में भी जानबूझकर अनावश्यक देरी की गई। स्पष्ट है कि यह सब एक तरह का अलिखित विशेषाधिकार बन गया है कि बड़े लोगों को किसी तरह बचाया जाए और उन्हें उनकी सुविधा के माकूल अवसर दिए जाएं। कुल मिलाकर सीबीआइ आज एक बंधक की भूमिका में काम करती नजर आ रही है। मेरे विचार से भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए वर्तमान स्वरूप वाली सीबीआइ सक्षम ही नहीं है। यहां हमें इस बात पर विचार करना होगा कि भ्रष्टाचार के मामलों में कौन लोग शामिल होते हैं? बड़े भ्रष्टाचार को अंजाम देने वाले लोग अक्सर बड़े पदों पर बैठे अधिकारी या राजनेताहोते हैं, जो किसी न किसी रूप में सत्ता से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े होते हैं। ऐसे में सरकार के नियंत्रण में काम करने वाली कोई एजेंसी सरकार से प्रभावित हुए बिना कैसे काम कर सकती है। सीबीआइ किसी मामले की स्वत: जांच नहीं कर सकती। इसके लिए उसे सरकार से अनुमति लेनी होती है और बड़े मामलों में या तो अनुमति मिलती नहीं है और यदि मिलती भी है तो काफी देरी से जिससे अपेक्षित परिणाम नहीं आ पाता। राजनीतिक हस्तक्षेप भी एक सामान्य बात है जिस कारण इस पर पक्षपात का आरोप लगता रहा है। सीबीआइ की विश्वसनीयता कायम रखने और अधिक प्रभावी बनाने के लिए जरूरी है कि इसे चुनाव आयोग से भी ज्यादा स्वायत्तता मिले। इसे किसी मामले की स्वत: जांच का अधिकार हो और इसकी कार्रवाई में राजनीतिक दखलंदाजी न हो।
(लेखक सीबीआइ के पूर्व संयुक्त निदेशक हैं)
साभार:-दैनिक जागरण


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