Monday, January 10, 2011

भ्रष्टाचार को मिटाने का मंत्र

भारतीय जनजीवन के प्रत्येक अंग में फैले भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए जो कुछ जरूरी है उसे रेखांकित कर रहे हैं डॉ। गौतम सचदेव
भारत को आर्थिक महाशक्ति बनते देख अगर संसार उसकी प्रशंसा कर रहा है तो भारतीय जनजीवन के प्रत्येक अंग में फैलते भ्रष्टाचार के कैंसर को देखकर चिंतित भी है। भारत को संसार का चौथा सबसे भ्रष्ट देश घोषित किया जा चुका है। आए दिन अरबों के घोटालों के भंडाफोड़ विश्व के मीडिया में स्थान पा रहे हैं, जिससे भारत की साख पर बट्टा लग रहा है। भ्रष्टाचार के इस कैंसर का कारगर इलाज क्या है-कड़े कानून, कठोर दंड या कुछ और? केवल कड़े कानून बनाने से भ्रष्टाचार को खत्म नहीं किया जा सकता, लेकिन इनकी आवश्यकता से इनकार भी नहीं किया जा सकता। इनके साथ कठोर दंड की भी जरूरत है। हालांकि जिन देशों में चोरी-बेईमानी आदि अपराधों के दंड के तौर पर हाथ-पांव काट दिए जाते हैं, वहां भ्रष्टाचार पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ, लेकिन नियंत्रण में जरूर रहता है। भारत में तो भ्रष्टाचार बेकाबू हो चुका है। आज भारत बहुत हद तक भ्रष्टतंत्र बनकर रह गया है। उसके पास सब कुछ है-बुद्धिबल, कार्यकुशलता, प्राकृतिक संसाधन, धनोपार्जन की क्षमता और श्रमबल। अगर कमी है तो चरित्र और नैतिकता की, देशहित को प्राथमिकता देने की भावना की, जवाबदेही की और अपराधियों को यथाशीघ्र तथा यथोचित दंड देने की। भ्रष्टाचार के इस कैंसर का इलाज करते समय राजतंत्र और अर्थतंत्र की नीतियों और कार्यपद्धतियों पर विचार करना आवश्यक है। सबसे पहले इस बात का विश्लेषण होना चाहिए कि देश इस हालत तक पहुंचा कैसे? प्रांतवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद, भाषावाद और स्वार्थपूर्ण राजनीति ने क्यों और कैसे जड़ें जमाईं, जो भ्रष्टाचार को पनपाती आ रही हैं? क्या इन बुराइयों के लिए देश का संविधान ही तो जिम्मेदार नहीं है? क्या कुछ राज्यों को विशेषाधिकार देने और उनमें सब लोगों को संपत्ति खरीदने और बसने के अधिकारों से वंचित रखने से ही तो प्रांतवाद और अलगाववाद को बढ़ावा नहीं मिला? फिर सवाल उठता है आरक्षणवाद की उपयोगिता-अनुपयोगिता का। क्या इसने एक नए जातिवाद और नए भेदभाव को जन्म नहीं दिया, जो आरक्षण की सुविधाएं और लाभ पाने के लिए भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है और गुणवत्ता तथा योग्यता की उपेक्षा कर रहा है? इसके बाद शिक्षा पर विचार करने की जरूरत है। भारत में जो शिक्षा दी जा रही है, क्या वह राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करने और सदाचारी बनाने की दृष्टि से सही है और काफी है? कहीं यह शिक्षा ही तो दूषित नहीं, जो कुछ लोगों को स्वार्थी, लोभी और भ्रष्ट बना रही है? क्या वजह है कि स्वतंत्रता मिलने के 63 वर्ष बाद भी बहुत बड़ी संख्या में हमारे बीच के लोग अनपढ़ हैं या गरीबों के बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ने को विवश हो जाते हैं? बहुत से लोग बढ़ती जनसंख्या को भी भ्रष्टाचार का कारण मानते हैं। चारों ओर मची आपाधापी के लिए बढ़ती हुई जनसंख्या और घटते हुए अवसर एक हद तक जिम्मेदार हो सकते हैं, लेकिन सारा दोष जनसंख्या को नहीं दिया जा सकता। यह लोगों में चरित्र के Oास, अनैतिकता और बेईमानी के लिए जिम्मेदार नहीं है। एक और बड़ी जरूरत है देश की राजनीतिक व्यवस्था के विश्लेषण की, जो लोकतंत्र के नाम पर येन-केन-प्रकारेण वोट और नोट बटोरने की धूर्तता बनकर रह गई है। इस सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के लिए बहुत हद तक यह घटिया और दूषित राजनीति भी जिम्मेदार है, जो मतदाताओं को जातियों, धमरें, अगड़ों-पिछड़ों और ऊंचे-नीचे वगरें में बांटकर देखती है। इस राजनीति के शातिर और स्वार्थी खिलाड़ी सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते हैं। क्या मतदाताओं को यह बात सोचने को मजबूर नहीं करती कि चुनावों में खड़े होने वाले उम्मीदवार करोड़ों रुपये कैसे खर्च कर लेते हैं और पार्टियों के पास चुनावों के लिए अरबों रुपये कहां से आते हैं? जाहिर है कि पार्टियां और प्रत्याशी इसे निवेश समझते हैं और जानते हैं कि इस व्यापार में कभी घाटा नहीं होता। आज जरूरत है भारतीय आचार-व्यवहार, रीति-नीति, विधि-विधान और समूची शासन-पद्धति के विश्लेषण और परिवर्तन की तथा भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने के कारगर उपायों की। इसकी शुरुआत दागी छवि वाले और अशिक्षित व्यक्ति को चुनाव न लड़ने देने या फिर उन्हें चुनाव में वोट न देने से की जा सकती है। पार्टियों द्वारा चुनावों पर किए जाने वाले खर्च की कसकर पड़ताल होनी चाहिए और उनके भ्रष्ट तरीकों, अंधाधुंध प्रचार और पोस्टरबाजी पर कड़ा अंकुश लगना चाहिए। लोकतंत्र को भ्रष्ट और अवसरवादी लोगों का अखाड़ा नहीं बन जाना चाहिए। इसमें जिसे जो जिम्मेदारी सौंपी जाए, उससे उसका हिसाब मांगा जाना चाहिए। उसके बैंक खातों, संपत्तियों, ख़चरें और रहन-सहन के स्तर का निरंतर निरीक्षण-परीक्षण होते रहना चाहिए। लोकतंत्र के संचालन और नियंत्रण में अधिकाधिक लोगों की भागीदारी होनी चाहिए। लोग देश के लिए समय दें, उसे अपनी योग्यता, कार्यकुशलता और सेवाएं अर्पित करें। किसी भी लोकतंत्र में मतदाता को केवल जिस-तिस को वोट देने को ही अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं समझ लेना चाहिए। लोकतंत्र केवल अधिकार ही नहीं देता, जिम्मेदारियां भी सौंपता है। सबको उन्हें पूरा करना चाहिए। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन देश को बिग सोसाइटी बनाना चाहते हैं। बिग सोसाइटी यानी देश के प्रशासन और संचालन में जनता की अधिक-से-अधिक भागीदारी। ब्रिटेन की इस नई गठबंधन सरकार का यह सपना कितना साकार होगा, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन अगर भारत चाहे तो बिग सोसाइटी के इस विचार से प्रेरणा अवश्य ले सकता है और उसे अपनी जरूरतों और परिस्थितियों के अनुकूल ढाल सकता है। (लेखक बीबीसी के पूर्व प्रसारक हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

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