Sunday, January 29, 2012

बेजा विवाद के जरूरी सवाल

सलमान रुश्दी से संबंधित विवाद के कारण हमारे गणतंत्र की परिपक्वता पर सवालिया निशान लगता देख रहे हैं डॉ. निरंजन कुमार
63वें गणतंत्र दिवस के उत्सव में एक ऐसा एब्सर्ड ड्रामा छिप गया जिसने दुनिया के सामने हमारे गणतंत्र की परिपक्वता पर एक सवालिया निशान लगा दिया। प्रसंग जयपुर साहित्य मेले का है, जो अपने समापन के साथ कई प्रश्न भी छोड़ गया। सवाल कई हैं-अभिव्यक्ति की स्वंतंत्रता का प्रश्न, देश के राजनेताओं की विश्वसनीयता का सवाल, विभिन्न सामाजिक-धार्मिक संगठनों की समझ पर सवाल और सबसे ज्यादा भारतीय राज्य की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा का सवाल। सलमान रुश्दी भारत में जन्मे, पर अब ब्रिटिश नागरिक हैं। उनके जयपुर साहित्य मेला में आगमन के मुद्दे को लेकर जो बवेला मचा उससे कई सवाल खड़े होते हैं। प्रथम तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही है। दरअसल विवाद उनकी पुस्तक द सैटेनिक वर्सेस को लेकर है, जो 1988 में लिखी गई थी। कहा जाता है कि इस पुस्तक में इस्लाम के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब के खिलाफ आपत्तिजनक चीजें लिखी गई हैं। इसको लेकर पूरी दुनिया के मुसलमानों में एक प्रतिक्रिया हुई, बल्कि ईरान में तो उनकी मौत का फतवा भी जारी हुआ। हालांकि 1998 में ईरान सरकार ने यह फतवा एक तरह से वापस ले लिया। दरअसल मुद्दा अभिव्यक्ति की आजादी का है। भारतीय संदर्भो में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का स्पष्ट उल्लेख हमारे संविधान में उल्लिखित है और इसे मूलभूत अधिकारों में रखा गया है। संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) के तहत भारतीय नागरिकों को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। इसका अभिप्राय है कि शब्दों, लेखों, चित्रों, मुद्रण अथवा किसी अन्य प्रकार से अपने विचारों को प्रकट करना। यहां पर एक बात समझ लेना जरूरी है कि एक तो यह अधिकार सिर्फ भारतीय नागरिकों (रुश्दी भारतीय नागरिक नहीं हैं) के लिए है। दूसरे, इसी अनुच्छेद 19 की धारा (2) में स्पष्ट उल्लेख है कि राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों से मित्रतापूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार, न्यायालय की अवमानना, मानहानि, अपराध के लिए उत्तेजित करना आदि के आधार पर सरकार इस अधिकार पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगा सकती है। स्पष्टत: विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार निरंकुश और निरपेक्ष नहीं है, बल्कि विभिन्न सीमाओं और अहर्ताओं के अधीन है। द सैटेनिक वर्सेस को लेकर धार्मिक भावनाओं को ठेस लगने की जो बात कही जाती है उसके मद्देनजर भारत सरकार ने इस पर कस्टम एक्ट के तहत प्रतिबंध लगाया हुआ है। हालांकि तकनीकी रूप से यह प्रतिबंध इसके सिर्फ आयात को लेकर ही है। कानून विशेषज्ञों का मानना है कि कानूनी रूप से अभी भी इसके पढ़ने, रखने या इंटरनेट से डाउनलोडिंग पर प्रतिबंध नहीं है, लेकिन तकनीकी मामले से परे जाकर सोचें तो प्रतिबंध पुस्तक के सार्वजानिक पाठ पर ही था। इस रूप में द सैटेनिक वर्सेस का सार्वजानिक पाठ न केवल नैतिक तौर से गलत है, बल्कि धारा 19( 2) के तहत सार्वजनिक व्यवस्था के बिगड़ने के आधार पर भी अवैधानिक होगा, लेकिन इसी तर्क से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर एमएफ हुसैन द्वारा बनाए हिंदू देवी-देवताओं के नग्नचित्र को भी देखा जाना चाहिए। यह अलग बात है कि शिवसेना और बजरंग दल के सदस्यों ने उनके साथ जो बदसलूकी की उसे कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता है। यह तो कहना ही होगा कि हुसैन का देश से भागना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण था। यह सरकार का उग्रपंथियों के सामने हथियार डाल देने जैसा था। कुछ यही स्थिति सरकार की वर्तमान मुद्दे पर भी रही, जब वोट बैंक के लालच में चरमपंथी धार्मिक मुस्लिम नेताओं के दवाब में आकर रुश्दी को हिंदुस्तान आने तक देना तो छोडि़ए, उन्हें वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये भी संबोधित करने नहीं दिया गया। केंद्र की कांग्रेसनीत सरकार इसके लिए चाहे लाख पल्ला झाड़ ले, वह इस आरोप से बच नहीं सकती कि देश की राजसत्ता और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा की उसने किरकिरी कराई है। द सैटेनिक वर्सेस और इसके सार्वजानिक पाठ पर प्रतिबंध एक बात है, लेकिन रुश्दी को भारत आने ही न देना या उनके अन्य साहित्यिक विषयों पर चर्चा न करने देना एक अन्य स्थिति है। अपने खिलाफ फतवा जारी होने के बाद रुश्दी कई बार भारत आ चुके हैं और जयपुर मेला में भी शिरकत कर चुके हैं, लेकिन तब आज यह हंगामा क्यों? निश्चय ही, जैसा स्वयं रुश्दी ने कहा है कि इसके पीछे आगामी चुनाव ही कारण हैं और कांग्रेसनीत सरकार ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहती जिससे उसे मुसलमानों के वोट खोने का खतरा हो। यहां कांग्रेस या अन्य पार्टियों को समझने की जरूरत है कि मुसलमानों के वोट चाहिए तो उनके वास्तविक मुद्दों को उठाइए। यही बात हिंदू संबंधित मुद्दों पर भाजपा के लिए भी कही जा सकती है या दलितों के संदर्भ में बसपा के लिए। आज यह सिद्ध हो चुका है कि भारतीय मुसलमानों की सामाजिक-शैक्षणिक-आर्थिकस्थिति लगभग दलितों के समकक्ष ही है। यह अनायास नहीं है कि युवा-शिक्षित मुसलमान इस पूरे बवेले से अलग था। यहां कठघरे में मुसलमानों के वे धार्मिक नेता भी हैं, जो आज के आम भारतीय मुसलमानों को समझ नहीं पा रहे हैं। धार्मिक मुद्दे बेशक महत्वपूर्ण हैं, लेकिन गैरजरूरी विवाद से भारतीय मुसलमान आगे जाकर वास्तविक मुद्दों पर बात करना चाहते हैं। कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ठीक ही कहा था कि भारतीय मुसलमान सलमान रुश्दी को बहुत पीछे छोड़ चुका है। यह ठीक है कि मजहब अभी भी हमारे चेतना का बहुत गहरा हिस्सा है, लेकिन इसके दुरुपयोग और किसी भी धर्म के उग्रपंथियों को इसके नाम पर देश और जनता को बंधक बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि सवाल सिर्फ नैतिकता और वैधानिकता का ही नहीं, बल्कि भारतीय राज्य के भविष्य का भी है। (लेखक दिल्ली विवि में एसोसिएटप्रोफेसर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

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