राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 63वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देश के नाम जो संदेश दिया उसमें ऐसी कोई विशेष बात नहीं थी जिससे देश प्रोत्साहित होता और कमर कसकर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित होता। देश में इस समय जैसे राजनीतिक हालात हैं उनके आलोक में राष्ट्रपति ने अन्ना हजारे के अभियान को एक तरह से आक्रामक बताकर खारिज करने के साथ ही राजनेताओं को राहत देने की कोशिश अवश्य की, लेकिन देशवासी इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि राष्ट्रपति भी राजनीतिक व्यवस्था का ही अंग हैं। राष्ट्रपति ने जनता को यह कहकर आगाह किया कि खराब फल गिराने के लिए लोकतंत्र रूपी वृक्ष को इतना न हिलाया जाए कि वही गिर पड़े। यह कुछ अजीब सी उपमा है, क्योंकि कोई भी खराब फलों को गिराने के लिए पेड़ नहीं हिलाता। पेड़ तो फल और वह भी अच्छे फल की चाह में हिलाए जाते हैं। यह बात और है कि कई बार अच्छे फल नहीं गिरते। राष्ट्रपति ने यह उपमा लोकतांत्रिक संस्थाओं में सुधार के संदर्भ में आम जनता की बेचैनी को लेकर दी। यदि राष्ट्रपति यह मान रही हैं कि लोकतांत्रिक संस्थाओं में सड़े फलों जैसी कुछ खराबी-खामी आ गई है तो यह भी सही है कि राजनीतिक नेतृत्व उसे दूर करने के लिए उतना तैयार नहीं जितना होना चाहिए और जैसी जनता की अपेक्षा है। मौजूदा समय में यदि खराब फलों को परिभाषित करना हो तो वे भ्रष्टाचार के साथ-साथ राजनीतिक दलों की जाति-मजहब की मनमानी राजनीति के रूप में नजर आएंगे। अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ तो आंदोलन छेड़ रखा है, लेकिन जाति-मजहब की राजनीति की ओर किसी का ध्यान नहीं है और इसीलिए राजनीतिक दल मनमानी करने में लगे हुए हैं। फिलहाल पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की उठापटक के चलते अन्ना का आंदोलन असरहीन सा दिख रहा है और जो नजर आ रहा है वह है जाति और मजहब पर आधारित राजनीति। यदि जाति मजहब-आधारित राजनीति यानी वोट बैंक के लिए कुछ भी कर गुजरने की राजनीतिक दलों की प्रवृत्ति और भ्रष्टाचार रूपी खराब फल राजनीतिक व्यवस्था से अलग हो जाएं तो बहुत सी मुश्किलें आसान हो सकती हैं। यदि खराब फल गिराए ही नहीं जाएंगे तो अच्छे फल कहां से मिलेंगे? आम जनता को तो राहत तब मिलेगी जब खराब फल गिरें और उनकी जगह अच्छे फल लगें। दुर्भाग्य से यह उम्मीद पूरी होती नजर आती और इसका एक प्रमाण पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों की ओर से अपील, घोषणा पत्रों और विजन डाक्युमेंट के माध्यम से किए जा रहे वायदे हैं। राजनीतिक दल वोटों के लालच में आम जनता से ऐसे-ऐसे वायदे करने में लगे हुए हैं जिन्हें पूरा करना खासा मुश्किल है। राजनीतिक दल और विशेष रूप से राष्ट्रीय दल-कांग्रेस तथा भाजपा के पास इस सवाल का जवाब नहीं कि वे जैसे वायदे उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब आदि की जनता से करने में लगे हुए हैं वैसे काम उन राज्यों में क्यों नहीं कर रहे जहां शासन में हैं? विधानसभा चुनाव वाले राज्य और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश तो जाति-मजहब की राजनीति का अखाड़ा बन गया है। प्रत्येक दल खुद को कुछ खास जातीय और मजहबी समूहों का हितैषी साबित करने के लिए लालायित है। इसके लिए विशेष घोषणाएं भी की जा रही हैं। कोई आरक्षण बढ़ाने की बात कर रहा है तो कोई उसे खत्म करने की और कोई औरों से ज्यादा देने की। यह तो वह राजनीति है जिससे लोकतांत्रिक संस्थाओं में और अधिक सड़े फल लगेंगे। यदि लोकतांत्रिक संस्था रूपी वृक्ष सड़े फलों से ही आच्छादित हो गए तो फिर ऐसे वृक्ष तो अनुपयोगी होते जाएंगे। राष्ट्र के नाम संबोधन के जरिये राष्ट्रपति ने देश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों के बारे में तो विस्तार से बताया ही, उन आवश्यकताओं को भी रेखांकित किया जिनकी पूर्ति में देरी से अनेक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। तेज गति वाले विकास के लक्ष्य को हासिल करने के लिए सामाजिक, आर्थिक कार्यक्रम को सही ढंग से आगे बढ़ाने के साथ गरीबी, भुखमरी, कुपोषण और निरक्षरता को दूर करना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। इसी तरह युवाओं को रोजगार के साथ-साथ जिम्मेदार बनाने वाली शिक्षा भी प्राथमिकता के आधार पर दी जानी चाहिए। ऐसा नहीं है कि राजनेता इस सबके बारे में बातें न करते हों, लेकिन वे अपनी कथनी को करनी में तब्दील नहीं कर पा रहे हैं और इसीलिए देश में असंतोष बढ़ रहा है। बावजूद इसके राजनेता यही कहते हैं कि स्थितियां सुधर रही हैं और वे इसके लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं। राजनेता जिन्हें कोशिश बताते हैं उन्हें आम जनता बहानेबाजी समझती है। राजनेताओं और विशेष रूप से सत्तारूढ़ नेताओं के रवैये से आजिज जनता अक्सर उन्हें सत्ता से बाहर कर देती है, लेकिन जो नए लोग सत्ता में आते हैं वे भी शासन के पुराने तौर-तरीके अपना लेते हैं और सत्ता में बने रहने की कोशिश में वोट बैंक की राजनीति में जुट जाते हैं। देश के अनेक राज्यों में बारी-बारी से वही दल सत्ता में आते हैं जिन्हें पहले ठुकराया जा चुका होता है। आखिर हमारे राजनेता कब यह समझेंगे कि वे आम आदमी की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं? वे यह क्यों नहीं देख पा रहे कि समाज का एक बड़ा तबका निरक्षरता, गरीबी और बीमारियों की चपेट में है। यह वह तबका है जो नेताओं की ओर टकटकी लगाए देख रहा है, लेकिन वे हैं कि उसे कोरे आश्वासन देने में लगे हुए हैं। लोकतंत्र रूपी जो पौधा 26 जनवरी 1950 को संविधान को अंगीकार किए जाने के रूप में रोपा गया वह अब एक वृक्ष बन गया है और उसकी जड़ें भी बहुत मजबूत हो गई हैं, लेकिन उसकी आबोहवा बदल गई है। इस आबोहवा को बदलने का काम वैश्वीकरण की ताकतों के साथ-साथ शिक्षा के प्रसार और सूचना क्रांति के दौर ने किया है। इस वृक्ष को जैसा खाद-पानी चाहिए वह उपलब्ध नहीं हो रहा। इसमें संदेह नहीं कि समय के साथ बहुत कुछ सुधार और बदलाव हुआ है, लेकिन आम जनता की बेचैनी इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि उसे इस वृक्ष में तमाम सड़े फल दिख रहे हैं। सड़े फल देर-सबेर तो गिरेंगे ही, लेकिन बेहतर है कि समय रहते उनकी पहचान कर उन्हें गिरा दिया जाए। यह कहना ठीक नहीं कि इन सड़े फलों को गिराने के लिए जो कोशिश हो रही है उससे वृक्ष ही गिर सकता है, क्योंकि हर भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाओं की महत्ता और गरिमा से परिचित है। वह भ्रष्टाचार और जाति-मजहब की राजनीति के खिलाफ लड़ाई इन संस्थाओं को मजबूत करने के लिए लड़ रहा है, न कि उन्हें कमजोर करने के लिए। अच्छा यह होगा कि राजनेता अपनी जिम्मेदारी समझें। अभी वे भ्रष्टाचार दूर करने के लिए कोई ईमानदार कोशिश करने के बजाय अपनी मनमानी राजनीति के तहत पाखंड का प्रदर्शन अधिक कर रहे हैं, जैसा कि लोकपाल विधेयक पर बहस के दौरान संसद में देखने को मिला।
साभार:-दैनिक जागरण
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