Sunday, January 22, 2012

फौजी के सम्मान का सवाल

सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह की उम्र से संबंधित विवाद के लिए सरकार को जिम्मेदार मान रहे हैं प्रदीप सिंह
क्या थल सेना अध्यक्ष जनरल वीके सिंह अपने पद से इस्तीफा देंगे? क्या सरकार उन्हें बर्खास्त करेगी? क्या दोनों के बीच कोई समझैता होगा? क्या इतनी दूर तक जाने के बाद सेना अध्यक्ष किसी समझौते के लिए तैयार होंगे? या दोनों सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करेंगे। पूरा देश जानना चाहता है कि आखिर सरकार ने इस बारे में अब तक कोई फैसला क्यों नहीं लिया? क्यों उसने ऐसी परिस्थिति पैदा की कि देश के सेनाध्यक्ष को न्याय और अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए देश की सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा। क्या जो रहा है उसे टाला नहीं जा सकता था? क्या सरकार ने जो अब तक किया है उसके अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं था? ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब पूरा देश जानना चाहता है। सब तरफ सवाल हैं जवाब कहीं से नहीं आ रहा। एक सेनाध्यक्ष जिसकी बहादुरी और निष्ठा की कसम उसके विरोधी भी खाते हैं, जिसने उच्च सैन्य अधिकारियों के भ्रष्टाचार से भारतीय सेना की धूमिल होती छवि को सुधारने के लिए सख्त कदम उठाए, जो सेना के भीतर से भ्रष्टाचार से कामयाबी से लड़ रहा है उसके साथ ऐसा क्यों हो रहा है। क्या जनरल वीके सिंह अपने राजनीतिक आकाओं के लिए समस्या बन गए हैं? क्या भारत के सेना अध्यक्ष अपना कार्यकाल बढ़ाने के लिए यह सब कर रहे हैं? ऐसा मानने वालों की भी कमी नहीं हैं। ऐसा मानने वालों का आरोप है कि वे अपने निजी लाभ के लिए सेना जैसे संस्थान की प्रतिष्ठा गिरा रहे हैं। ऐसे लोगों का मानना है कि जनरल वीके सिंह को अपने पद से इस्तीफा देने के बाद मामले को अदालत में ले जाना चाहिए था। उनके करीबियों का मानना है कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया है जिसकी वजह से उन्हें इस्तीफा देना चाहिए। पूर्व सैन्य अधिकारियों का एक बड़ा वर्ग जनरल वीके सिंह के साथ खड़ा है। सरकार को भी पता है कि जनरल वीके सिंह अपनी जन्मतिथि के बारे में जो कह रहे हैं वह सही है। उनका जन्म पूना के सैनिक अस्पताल में हुआ। उनके पिता भी सेना में थे। उनके हाई स्कूल के सर्टीफिकेट में भी उनके जन्म का वर्ष 1951 ही दर्ज है। उन्हें राष्ट्रपति के जितने मेडल मिले हैं उन पर भी यही लिखा है। सेना के अधिकारियों का सारा रेकार्ड रखने वाले एजी (एडजुटेंट जनरल) ऑफिस में भी उनकी जन्मतिथि दस मई 1951 ही है। देश के चार मुख्य न्यायाधीशों (जिनमें न्यायमूर्ति जेएस वर्मा भी शामिल हैं) ने सेना को भेजी अपनी लिखित राय में जनरल वीके सिंह के पक्ष को सही माना है। सरकार का कहना है कि थल सेना अध्यक्ष बनने से पहले उन्होंने अपनी जन्मतिथि 10 मई, 1950 स्वीकार कर ली थी। अब दो सवाल उठते हैं। क्या सरकार के पास ऐसा कोई दस्तावेज है? दूसरा सवाल कि किसी की जन्मतिथि का फैसला दस्तावेजों के आधार पर होगा या उस व्यक्ति की स्वीकृति के आधार पर। सरकार ने अभी तक ऐसा कोई दस्तावेज पेश नहीं किया है- सिवाय उस पत्र के जिसमें जनरल वीके सिंह ने कहा है कि संस्था के हित में वह अपने सेनाध्यक्ष (जनरल दीपक कपूर) का आदेश मानने को तैयार हैं। यह पत्र उन्होंने उस समय लिखा था जब उनसे कहा गया कि उनके अड़ने की वजह से थल सेना में अधिकारियों की तरक्की रुक जाएगी। उन्हें आश्वस्त किया गया कि सेना की कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी के जरिए इसका न्यायोचित समाधान हो जाएगा, लेकिन उसके बाद रक्षा मंत्रालय ने इस संबंध में कुछ नहीं किया। मंत्रालय ने इस संबंध में उनकी वैधानिक याचिका खारिज कर दी। सुप्रीम कोर्ट में दायर अपनी याचिका में जनरल वीके सिंह ने कहा है कि उन्हें सम्मान के साथ रिटायर होने का अधिकार है। सरकार ने एक कैविएट दाखिल करके कहा है कि इस मामले में उसका पक्ष सुने बिना अदालत कोई फैसला न करे। अब प्रधानमंत्री खुद इस मामले को देख रहे हैं। सवाल है कि सरकार को जनरल वीके सिंह की बात मामने में ऐतराज क्या है? सरकार की ओर से कोई बात इस संबंध में नहीं कही गई है, पर अटार्नी जनरल की राय से इसका संकेत मिलता है। अटार्नी जनरल ने अपनी राय में कहा है कि जनरल वीके सिंह की जन्मतिथि 10 मई 1951 मानने से पहले से तय सक्सेशन चेन (उत्तराधिकार की श्रृंखला) गड़बड़ा जाएगी। दरअसल जनरल जेजे सिंह ने 2006 में रिटायर होने से पहले तय कर दिया था कि उत्तराधिकार की श्रृंखला क्या होगी। इसके जवाब में जनरल सिंह का प्रस्ताव था कि सरकार उत्तराधिकार की श्रृंखला को बरकरार रखे। सरकार उनकी जन्मतिथि 1951 मान ले और वह 2013 के बजाय 2012 में पद छोड़ने को तैयार हैं। जनरल वीके सिंह का कहना था कि अगर वह सरकार की बात मानकर अपनी जन्मतिथि 10 मई 1950 मान लेते हैं तो फौजियों और आम जनता की नजर में झूठे साबित हो जाएंगे। लोग कहेंगे कि वह चालीस साल तक झूठ बोलते रहे। सरकार ने इस प्रस्ताव को क्यों नहीं माना, इस बारे में कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है। केंद्र की संप्रग सरकार की समस्या यह है कि वह पहले अपने लिए गड्ढा खोदती है और उसमें गिरने के बाद निकलने के उपाय खोजती है। इस मामले में भी यही हो रहा है। पूरे देश में जिस मुद्दे पर बहस चल रही है उस पर सरकार तब जागी है जब जनरल वीके सिंह सुप्रीम कोर्ट चले गए। सरकार ने उनके सामने कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा। भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ने वाले जनरल के सम्मान को ठेस पहुंचाकर सरकार क्या संदेश देना चाहती है। सरकार और सेनाध्यक्ष की यह लड़ाई सेना बनाम नागरिक प्रशासन बनती जा रही है। यह जनतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। सरकार सेना जैसी मजबूत संस्था को तो कमजोर कर ही रही है, अपनी प्रतिष्ठा को भी चोट पहुंचा रही है। इससे सेना का मनोबल प्रभावित हो सकता है। सरकार के लिए अब जनरल वीके सिंह को बर्खास्त करना आसान नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाकर जनरल ने भी साफ कर दिया है कि वह इस मुद्दे का निपटारा होने से पहले इस्तीफा देने के मूड में नहीं हैं। जनरल वीके सिंह एक फौजी के सम्मान के लिए लड़ रहे हैं। वह उस कसम की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं जो उन्होंने हर फौजी की तरह खाई थी कि झूठ नहीं बोलेंगे, चोरी नहीं करेंगे और किसी और को ऐसा करने भी नहीं देंगे। सरकार इस बात को समझ ले तो मामला अब भी सुलझ सकता है, पर सवाल है कि क्या सरकार इसके लिए तैयार है? (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

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