Sunday, January 29, 2012

अन्ना का सही सवाल

अन्ना हजारे और उनके साथियों की ओर से कांग्रेस, भाजपा और सपा, बसपा के प्रमुख नेताओं को चिट्ठी लिखकर यह जो पूछा गया कि आखिर उन्होंने भ्रष्टाचार अथवा आपराधिक मामलों में विचाराधीन लोगों को प्रत्याशी क्यों बनाया वह आम जनता का सवाल है। इस सवाल का जवाब सामने आना चाहिए, क्योंकि राजनीतिक दल चाहते तो बहुत आसानी से दागदार छवि वाले लोगों को किनारे कर सकते थे। आमतौर पर राजनीतिक दल ऐसे सवालों का सीधा जवाब देने के बजाय तरह-तरह के बहाने गढ़ते हैं। कभी कहते हैं कि जब तक अदालत किसी को दोषी न करार दे तब तक उसे चुनाव लड़ने से रोकना अन्यायपूर्ण है। कभी यह तर्क देते हैं कि जिन्हें दागदार बताया जा रहा है वह तो विरोधी दल की बदले की राजनीति का शिकार है। जब इससे भी काम नहीं चलता तो वे यह कहकर सारी जिम्मेदारी जनता के सिर डाल देते हैं कि उसके पास दागदार उम्मीदवारों को वोट न देने का अधिकार है। चूंकि ऐसे ज्यादातर प्रत्याशी जाति-उपजाति अथवा मजहब के नाम पर चुनाव लड़ते हैं इसलिए आम जनता के समक्ष उनकी अच्छी-बुरी छवि कोई मुद्दा ही नहीं होती। इसके चलते बड़ी संख्या में दागदार प्रत्याशी जाति, उपजाति, मजहब, क्षेत्र आदि का सहारा लेकर जीत हासिल करने में समर्थ हो जाते हैं। यह निराशाजनक है कि उत्तर प्रदेश में इस बार शुद्ध जातीय, मजहबी आधार पर चुनाव लड़े जा रहे हैं। इन स्थितियों में यह आवश्यक हो जाता है कि आम जनता चेते और प्रत्याशियों के चयन में सावधानी बरते। इसकी अपेक्षा करना व्यर्थ है कि राजनीतिक दल दागदार लोगों को अपने से अलग करेंगे। वे ऐसा तब तक नहीं करने वाले जब तक दागी छवि वाले लोग चुनाव जीत सकने की क्षमता से लैस बने रहेंगे। टीम अन्ना ने समाजवादी पार्टी से कुछ अलग हटकर यह सवाल भी पूछा है कि वह यह बताए कि सरकार किसके साथ मिलकर बनाएगी? यह सवाल इसलिए पूछना पड़ा, क्योंकि आम धारणा यह है कि चुनाव बाद समाजवादी पार्टी सरकार बनाने के लिए कांग्रेस से हाथ मिला सकती है। यदि ऐसा हुआ, जिसके आसार भी दिख रहे हैं तो यह आम जनता के साथ एक किस्म की धोखाधड़ी होगी। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि चुनाव प्रचार के दौरान एक-दूसरे के कट्टर विरोधी नजर आने वाले दल चुनाव परिणाम के बाद एक-दूसरे से हाथ मिला लें? भले ही इस तरह के मेलमिलाप अथवा तालमेल को गठबंधन राजनीति के आवरण से ढक दिया जाता हो, लेकिन यह राजनीतिक अवसरवादिता के अलावा और कुछ नहीं। गठबंधन राजनीति के नाम पर राजनीतिक दलों को जनादेश को ठुकराने और उसकी मनमानी व्याख्या करने की इजाजत नहीं दी सकती। इस पर आश्चर्य नहीं कि राजनीतिक दल न तो दागदार लोगों को गले लगाने से इंकार कर रहे हैं और न ही गठबंधन राजनीति के नियम-कायदे तय करने के लिए तैयार हो रहे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि आम जनता अपने अधिकारों को लेकर उतनी सचेत नहीं हो रही जितना उसे अब तक हो जाना चाहिए। देखना है कि टीम अन्ना के सवाल उसे सचेत करने में सहायक बन सकेंगे या नहीं? यदि इस सवाल का सकारात्मक जवाब नहीं आता तो आम जनता के साथ-साथ लोकतंत्र भी घाटे में रहेगा।
साभार:-दैनिक जागरण

No comments: