Sunday, January 22, 2012

सुस्ती का नया सबूत

यह शुभ संकेत नहीं कि देश के प्रमुख उद्यमियों को ऊर्जा क्षेत्र की समस्याओं के समाधान के लिए सरकार से गुहार लगानी पड़े। दुर्भाग्य से उन्हें ऐसा करना पड़ा और इससे एक बार फिर यह सिद्ध हो गया कि केंद्रीय सत्ता जरूरी आर्थिक फैसले नहीं ले पा रही है। यह विचित्र है कि ईंधन की कमी, आयातित कोयले के मूल्य निर्धारण, कोयला आधारित बिजली परियोजनाओं में देरी और पर्यावरण एवं वन मंजूरी में विलंब आदि मुद्दों पर उद्यमी तो चिंतित हैं, लेकिन सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। इससे भी विचित्र है कि जब आर्थिक मामलों में सरकार की सुस्ती का उल्लेख किया जाता है तो ऐसा करने वालों को या तो गलत ठहराया जाता है या फिर उन्हें उतावलापन न दिखाने की नसीहत दी जाती है। हालांकि आर्थिक मामलों में केंद्र सरकार की ओर दिखाई जा रही शिथिलता को हर कोई रेखांकित कर रहा है, लेकिन सरकार के नीति-नियंता ऐसा जाहिर कर रहे हैं जैसे उनके स्तर पर कहीं कोई खामी नहीं। वे या तो वैश्विक परिस्थितियों की ओर संकेत करते हैं या फिर विपक्ष को दोष देते हैं। इससे इंकार नहीं कि अमेरिका और यूरोपीय देशों की दुर्बल आर्थिक स्थिति ने भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है और केंद्रीय सत्ता को नीतिगत आर्थिक मामलों में विपक्ष का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पा रहा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सरकार अपना काम सही तरीके से कर रही है। नववर्ष की पूर्व संध्या पर प्रधानमंत्री ने जिस तरह देश को यह आश्वासन दिया था कि अब वह एक ईमानदार और सक्षम सरकार देंगे उससे यही स्पष्ट हुआ था कि केंद्रीय सत्ता आर्थिक सुधारों की दिशा में आगे नहीं बढ़ सकी। इसके एक नहीं अनेक प्रमाण भी सामने आ चुके हैं। निराशाजनक यह है कि आर्थिक मामलों के साथ-साथ अन्य अनेक क्षेत्रों में भी वह जरूरी फैसले नहीं ले पा रही है। केंद्रीय सत्ता की निर्णय लेने की क्षमता उसके दोबारा सत्ता में आने के साथ ही बुरी तरह प्रभावित दिख रही है। रही-सही कसर एक के बाद एक सामने आए घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों ने पूरी कर दी। इसकी पुष्टि वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की ओर से गत दिवस दिए गए इस बयान से भी होती है कि वह इस समय अपने आपको उसी स्थिति में पाते हैं जैसे पिछले वर्ष इसी समय थे। अब केंद्र सरकार की ओर से यह संकेत दिए जा रहे हैं कि आगामी आम बजट में सब कुछ दुरुस्त कर लिया जाएगा, लेकिन यह आसान नहीं होगा। इसका एक प्रमुख कारण तो यह है कि लंबित आर्थिक फैसलों की सूची बहुत लंबी हो गई है और दूसरे, केंद्र सरकार की अंदरूनी उठापटक समाप्त होने का नाम नहीं ले रही है। स्थिति यह है कि कुछ महत्वपूर्ण फैसले सिर्फ इसलिए अटके पड़े हुए हैं, क्योंकि संबंधित केंद्रीय मंत्रालयों में सहमति नहीं बन पा रही है। कुछ मामलों में तो मंत्रिसमूह के गठन के बावजूद सहमति नहीं बन पा रही है। अभी तक यह माना जा रहा था कि तमाम विपरीत परिस्थिति के बावजूद मौजूदा वित्त वर्ष में आर्थिक वृद्धि दर सात प्रतिशत के ऊपर रहेगी, लेकिन अब उसके सात फीसदी से कम रहने की आशंका उभर आई है। विश्व बैंक की मानें तो चालू वित्त वर्ष के दौरान भारत की आर्थिक वृद्धि दर 6.8 प्रतिशत ही रह पाएगी। इसके लिए विश्व बैंक ने जिन कारणों को रेखांकित किया है उनमें प्रमुख है नीतिगत सुधारों के मामले में भारी अनिश्चितता। सरकार चाहे जैसा दावा क्यों न करे, उसके तौर-तरीकों से यह नहीं लगता कि अनिश्चितता का यह दौर समाप्त होने वाला है।
साभार:-दैनिक जागरण

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