Sunday, January 29, 2012

संस्थाओं में सुधार

राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 63वें गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में संस्थाओं में सुधार लाने के लिए सतर्क रहने की जो हिदायत दी वह बिलकुल सही है। संस्थाओं और विशेष रूप से लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने वाली संस्थाओं में सुधार व्यापक विचार-विमर्श और जैसा कि राष्ट्रपति ने कहा, सतर्कता के साथ और दीर्घकालिक लक्ष्यों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए, लेकिन यह भी ठीक नहीं कि सुधार की प्रक्रिया इतनी शिथिल और जटिल हो कि वह आम जनता के धैर्य की परीक्षा लेती नजर आए। यह स्थिति इसलिए अस्वीकार्य है, क्योंकि देश यह महसूस कर रहा है कि वह अपेक्षित गति और क्षमता से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। खुद राष्ट्रपति ने यह कहा कि सामाजिक और आर्थिक एजेंडे पर आगे बढ़ने के लिए काफी जोरदारी से कार्य करने की आवश्यकता है। इससे इंकार नहीं कि एक गणतंत्र के रूप में भारत ने बहुत कुछ अर्जित किया है और इन उपलब्धियों की सराहना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी की जाती है, लेकिन अब यह भी एक स्थापित सत्य है कि हमारी संस्थाएं पर्याप्त क्षमता के साथ काम नहीं कर पा रही हैं और इसके चलते आम जनता की बेचैनी न केवल बढ़ती जा रही है, बल्कि वह विभिन्न रूपों में सामने भी आ रही है। कोई भी समाज और राष्ट्र समस्याओं से मुक्त नहीं हो सकता, लेकिन उनका सामना करने के नाम पर उनसे मुंह मोड़ते हुए भी नहीं दिखना चाहिए। आज ऐसा होता हुआ दिख रहा है और शायद इसीलिए हर चीज पर शंका करने की प्रवृत्ति सी हो गई है। नि:संदेह इस प्रवृत्ति के लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिन पर व्यवस्था के संचालन की जिम्मेदारी है। यदि देश में यह भाव बढ़ रहा है कि इस जिम्मेदारी का निर्वाह सही तरह नहीं किया जा रहा तो इसके लिए आम जनता को दोष नहीं दिया जा सकता है। जनता यह देख भी रही है और महसूस भी कर रही है कि व्यवस्था का संचालन करने वाले उसका उपयोग अपने हित में अधिक कर रहे हैं। आखिर इस तथ्य से कौन इंकार कर सकता है कि व्यवस्था में शामिल लोगों ने सार्वजनिक रूप से बिना किसी संकोच यह कहा कि कानून बनाने का काम संसद का है और जनता को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए? इस कथन में स्पष्ट रूप से यह निहित था कि आम जनता का काम वोट देना और फिर पांच साल तक के लिए सब कुछ जनप्रतिनिधियों अथवा सरकार पर छोड़ देना है। आखिर यह कौन सा लोकतंत्र है जहां यह अपेक्षा की जा रही है कि वोट देने के बाद जनता अपने प्रतिनिधियों से सवाल-जवाब करने की भी कोशिश न करे? नि:संदेह लोकतंत्र वोट के जरिये संचालित होता है, लेकिन वोटों के लिए किसी को कुछ भी करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। जब शासन और उसकी संस्थाओं के फैसलों में आम जनता की भागीदारी होनी चाहिए तब उससे दूरी बनाने की कोशिश सामंती प्रवृत्ति के प्रदर्शन के अतिरिक्त और कुछ नहीं। बेहतर होता कि राष्ट्रपति राष्ट्र के नाम संबोधन के माध्यम से उन्हें भी कुछ हिदायत देतीं जो नीति-नियंता हैं, क्योंकि वही ऐसे वृक्ष बन गए हैं जो हिलाने के बावजूद अविचलित बने रहते हैं।
साभार:-दैनिक जागरण

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