Sunday, January 22, 2012

आर्थिक विकास को झटका

दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधार लागू करने में सरकार की हिचक को अर्थव्यवस्था में गतिरोध का कारण बता रहे हैं डॉ. आनंद पी. गुप्ता
उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद पिछले दो दशकों में आर्थिक विकास की दिशा में देश ने नई ऊंचाइयों को छुआ है। आज हमारी गिनती न केवल ताकतवर अर्थव्यवस्था वाले देश, बल्कि एक उभरती हुई विश्वशक्ति के रूप में भी होने लगी है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 1991 में जहां हमारा विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डॉलर भी नहीं था, आज वह बढ़कर लगभग 300 अरब डॉलर से अधिक हो गया है, लेकिन सच्चाई का स्याह पक्ष यह भी है कि अब सरकार एक ऐसे रास्ते पर चल पड़ी है जहां से हमारी आर्थिक तरक्की की रफ्तार धीमी पड़ रही है। अमेरिका और यूरोप का संकट फिलहाल खत्म होता नजर नहीं आ रहा। लेकिन देश के सामने अंतरराष्ट्रीय स्थितियों से कहीं ज्यादा बड़ा संकट सरकार की सोच, उसकी तैयारी और नीतियों में सही तालमेल के अभाव का है। अतीत के अनुभवों को देखते हुए सरकार चालू खाते के घाटे और पुनर्भुगतान के किसी भी संभावित संकट के प्रति तो सतर्क है, लेकिन विकास के लिए जरूरी दीर्घकालिक नीतियों और दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों को लागू करने से हिचक रही है। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) जैसे सुधार तत्काल लागू किए जाने की आवश्यकता है। इस दिशा में सरकार इच्छाशक्ति नहीं दिखा रही है। लगातार बढ़ती महंगाई और ब्याज दरों के कारण भी समस्या बढ़ी और औद्योगिक उत्पादन दर गिरी, लेकिन रिजर्व बैंक के पास इसके अलावा और दूसरा कोई उपाय नहीं था। यदि रिजर्व बैंक यह कदम न उठाता तो मांग बढ़ने से महंगाई और बढ़ती। रुपये की गिरती कीमत को रोकने के लिए भी रिजर्व बैंक से हस्तक्षेप की अपेक्षा ठीक नहीं, क्योंकि मात्र मौद्रिक उपाय प्रबंधन द्वारा इन गुत्थियों को सुलझाया नहीं जा सकता। इसके लिए सरकार को राजस्व घाटे पर नियंत्रण पाना होगा और नीतियों की प्राथमिकता समेत उनके सही क्रियान्वयन को सुनिश्चित करना होगा। लोक धन की बेतहासा लूट आज चिंता का विषय है। इससे लोगों में संदेश गया है कि सार्वजनिक या सरकारी धन किसी का नहीं है और इसे मनमाने तरीके से लूटा जा सकता है। मनरेगा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसी योजनाओं में बड़े पैमाने पर हुई धांधली इस बात का प्रमाण है। पिछले सात वर्षो में सरकार की प्राथमिकता सिर्फ सत्ता में बने रहने और चुनाव जीतने के लिए लोकलुभावन नीतियां लागू करने पर केंद्रित रही है। इस संदर्भ में हालिया उदाहरण खाद्य सुरक्षा बिल का है, जिसके तहत देश की करीब दो-तिहाई गरीब आबादी को सस्ते दाम में चावल, गेहूं और मोटा अनाज मिलेगा। योजना के तहत बड़ी संख्या में लोगों को दो रुपये किलो गेहूं, तीन रुपये किलो चावल और एक रुपये किलो मोटा अनाज दिया जाएगा। यहां सवाल उठता है कि जब इतना सस्ता अनाज बांटा जाएगा तो कोई अपने लिए खेती-किसानी क्यों करेगा? स्वाभाविक है कि कृषि प्रभावित होगी और देश खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता की स्थिति खो देगा। इस तरह हमें फिर से अनाज विदेशों से आयात करना होगा और विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव बढ़ेगा। यहां और भी प्रश्न हैं, जैसे गरीबों का निर्धारण व आकलन कैसे होगा, जब सार्वजनिक वितरण प्रणाली पहले ही विफल है तो इस योजना के सही क्रियान्वयन का तरीका या तंत्र क्या होगा और पैसा कहां से आएगा? इसी तरह खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का निर्णय लिए जाने से पहले दूसरे कई निर्णय लिए जाने आवश्यक थे, जिनमें ऊर्जा क्षेत्र में सुधार अत्यधिक जरूरी था। पर सरकार ने ऐसा करने की बजाय हड़बड़ी में एफडीआइ को पहले स्वीकृति देने की तैयारी कर ली। हमारे कुल विदेशी मुद्रा भंडार के 22 से 23 प्रतिशत के बराबर लिए गए अल्पकालिक ऋणों के भुगतान की समयसीमा 2012 में पूरी हो रही है और देश के वर्तमान राजनीतिक व आर्थिक माहौल में विदेशी निवेशकों का विश्वास डगमगा रहा है। ऐसे में यदि उन्होंने अपना पैसा वापस मांग लिया यानी रोलओवर न किया तो देश के सामने एक बड़ा संकट खड़ा हो सकता है। सरकार इस बात को समझ रही है। 1991 के संकट को हम भूले नहीं हैं। यही कारण है कि जहां एक ओर चुनाव जीतने के लिए लोकलुभावन नीतियां बनाई जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर विदेशी निवेशकों को खुश करने के लिए आर्थिक सुधारों की दिशा में आगे बढ़ने का संकेत दिया जा रहा है। सरकार का यह कहना भी सही नहीं है कि अर्थव्यवस्था की खराब होती हालत के लिए अंतरराष्ट्रीय हालात जिम्मेदार हैं। सच्चाई यह है कि हमारी घरेलू नीतियां व सरकार के अदूरदर्शितापूर्ण कदम हालात को अधिक जटिल बना रहे हैं। आखिर किसने सरकार को आर्थिक सुधार करने से रोक रखा है? रास्ता यही है कि सरकार अपनी नीतियों की प्राथमिकता फिर से तय करे, लोकधन की लूट को रोकने के लिए समुचित कदम उठाए और जनसांख्यिकीय बढ़त का फायदा उठाने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य तथा विकास कार्यक्रमों पर अधिक ध्यान दे ताकि हमारे युवा देश के विकास का इंजन बन सकें। आज इस बात की भी आवश्यकता है कि खर्च किए जा रहे सार्वजनिक धन का लाभ आम लोगों को वास्तविक रूप में मिले। इसके लिए फरवरी 2005 में सरकार ने आउटकम बजट का प्रावधान किया था जिस पर अमल भी हो रहा है, लेकिन प्रभावी न होने से यह लगभग विफल हो चुका है। इसलिए जरूरत सही नीतियों के निर्माण के साथ ही उनके सही क्रियान्वयन की भी है। (लेखक आइआइएम, अहमदाबाद में अर्थशास्त्र के सीनियर प्रोफेसर रहे हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

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