Sunday, January 22, 2012

चुनाव, धनबल और कानून

चुनावों में धनबल पर अंकुश लगाने के चुनाव आयोग के प्रयासों पर राजनीतिक दलों को पलीता लगाते देख रहे हैं सुधांशु रंजन

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहां मतदाताओं की कुल संख्या 72 करोड़ से ज्यादा है जो बहुत से देशों की कुल आबादी से भी अधिक है। इतनी बड़ी आबादी के लिए चुनाव की व्यवस्था करना कोई आसान काम नहीं है। फिर भी यहां का चुनाव काफी हद तक स्वतंत्र तथा निष्पक्ष माना जाता है। 1952 का प्रथम चुनाव पूरी तरह स्वतंत्र एवं निष्पक्ष था जिसमें धनबल, बाहुबल या जाति की कोई भूमिका नहीं थी, किंतु धीरे-धीरे बाहुबल एवं धनबल का प्रदर्शन बढ़ने लगा। टीएन शेषन के नेतृत्व में चुनाव आयोग की सक्रियता के कारण बाहुबल का प्रयोग तो लगभग समाप्त हो गया, लेकिन धनबल की भूमिका अभी भी काफी सशक्त है। इधर कुछ वषरें से चुनाव आयोग की तत्परता के कारण प्रशासन करोड़ों की धनराशि चुनाव के वक्त जब्त कर रहा है। लेकिन चुनाव में खपने वाली भारी-भरकम धनराशि की तुलना में जब्त की जाने वाली यह राशि ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। अब तो चुनाव में नकद राशि के साथ-साथ शराब तक बांटी जाने लगी है। इस पर अंकुश लगाने की दिशा में उच्चतम न्यायालय एवं चुनाव आयोग लगातार प्रयास कर रहे हैं किंतु सफलता पूरी तरह नहीं मिल पाई है। दरअसल, राजनीतिक दलों ने उन प्रयासों को निष्प्रभावी करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। विभिन्न याचिकाओं के माध्यम से अदालतों के समक्ष यह प्रश्न उठता रहा है कि राजनीतिक दल, दोस्तों एवं संबंधियों द्वारा किए गए खर्च को भी उम्मीदवार के खर्च में शामिल माना जाना चाहिए या नहीं। प्रारंभ में अदालत इसे प्रत्याशी के खर्च में शामिल करने के पक्ष में नहीं थी। रणंजय सिंह बनाम बैजनाथ सिंह (1954) से लेकर बीआर राव बनाम एनजो रंजा (1971) मामलों में उच्चतम न्यायालय ने खर्च के बारे में यही रवैया अपनाया। किंतु 1975 में कंवरलाल बनाम अमरनाथ में व्यवस्था दी कि अत्यधिक संसाधन की उपलब्धता किसी उम्मीदवार को दूसरों के मुकाबले अनुचित लाभ प्रदान करती है जो अलोकतांत्रिक है। अदालत ने एक चेतावनी भी दी, चुनाव के पहले दिया गया चंदा चुनाव के बाद के वादे के रूप में काम करेगा जिससे आम आदमी के हितों पर कुठाराघात होगा। इसलिए उच्चतम न्यायालय ने राजनीतिक दल, दोस्तों एवं रिश्तेदारों द्वारा किए गए खर्च को उम्मीदवार के चुनावी खर्च का हिस्सा माना। अदालत के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए 1974 में जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 77 में संशोधन कर एक व्याख्या जोड़ दी कि ऐसे खर्च को उम्मीदवार के खर्च से अलग माना जाएगा। इस तरह चुनाव में ऊलजुलूल खर्च करने को वैधानिकता प्रदान की गई। 1994 में उच्चतम न्यायालय ने गडक वाईके बनाम बालासेह विखे पाटिल मामले में इस व्याख्या को खत्म करने पर जोर दिया। फिर गंजन कृष्णाजी बापट मामले में उच्चतम न्यायालय ने राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त एवं खर्च की गई राशि का सही हिसाब रखने के लिए नियम बनाने की जरूरत पर जोर दिया। 1996 में कॉमन कॉज मामले में उच्चतम न्यायालय ने जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 77 की व्याख्या कंपनी अधिनियम, 1956 के आलोक में की। कंपनी अधिनियम की धारा 293-ए के तहत कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा देना वैध है तथा आयकर अधिनियम की धारा 13-ए के अंतर्गत इस पर कर में छूट है, किंतु ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं है, जो राजनीतिक दलों को सही खाता रखने को मजबूर करे। इसलिए अदालत ने निर्णय दिया कि जो राजनीतिक दल आयकर रिटर्न नहीं भर रहे हैं वे आयकर कानून का उल्लंघन कर रहे हैं और केंद्रीय वित्त सचिव को इसकी जांच करने का निर्देश दिया। इस तरह अदालत ने लगातार स्वतंत्र चुनाव सुनिश्चित करने के लिए धनबल की भूमिका को कम करने का प्रयास किया। आयोग ने पिछले कई दशकों से अपनी महती जिम्मेदारी का निर्वाह सराहनीय ढंग से किया है, किंतु उसे राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त नहीं होता है। आज भी कई राजनेता चुनावी कदाचार के लिए चुनाव आयोग की सख्ती को जिम्मेदार मानते हैं। उनका तर्क है कि चूंकि आयोग ने प्रचार पर इतनी तरह की पाबंदियां लगा दीं कि लाचार होकर उम्मीदवारों ने नोट और शराब बांटनी शुरू कर दीं। दिक्कत यह है कि निरक्षर या कम शिक्षित लोग अपने मत की महत्ता नहीं समझते और शिक्षित लोग कतार में खड़े होकर मतदान करना अपना अपमान समझते हैं; इसलिए उनके लिए मतदान का दिन मुफ्त का अवकाश होता है। कई बार यह सुझाव दिया गया कि राज्य चुनाव खर्च को वहन करे। यानि प्रत्याशियों को कोई खर्च नहीं करना होगा और केवल सरकार उनके प्रचार की व्यवस्था करेगी। शायद यह भी समाधान नहीं है। अगर ऐसा हो भी जाता है तो क्या जरूरी है कि सभी उम्मीदवार साधु हो जाएं। मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी ने भी इसका विरोध इसी आधार पर किया है। वैसे कुछ हद तक तो राज्य चुनाव का खर्च वहन करता ही है। मसलन, उम्मीदवारों को रियायती दरों पर कई सुविधाएं देना और आकाशवाणी-दूरदर्शन पर विभिन्न दलों को प्रचार का समय दिया जाना इसमें शामिल है। लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों में तो फिर भी आयोग काफी हद तक धनबल पर रोक लगा पाता है, किंतु राज्यसभा चुनाव में थैलीशाह खुलकर विधायकों की खरीद-फरोख्त करते हैं और राज्यसभा में प्रवेश करते हैं। अभी तो कई राज्यसभा सदस्य ऐसे हैं जो उन राज्यों से निर्वाचित हुए हैं जहां चुनाव लड़ने से पहले वे कभी गए तक नहीं। धनबल के इस्तेमाल को रोकना भी असंभव नहीं है। आज चुनाव हिंसा मुक्त हो चुके हैं क्योंकि अपराधी समझ गए कि गुंडागर्दी करने पर वे कानून की गिरफ्त में होंगे। ऐसा ही संदेश धनबल के बारे में जाना चाहिए। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

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