Sunday, January 22, 2012

महत्वाकांक्षाओं का टकराव

राजनीति में सिद्धांतों और मूल्यों में आ रही गिरावट पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं निशिकान्त ठाकुर

पंजाब में विधानसभा चुनाव के लिए पर्चे भरने का दौर संपन्न हो गया। चुनाव की घोषणा के बाद से लेकर इस बीच तक जितनी तरह की जद्दोजहद देखी गई, उसमें कुछ भी किसी के लिए नया नहीं है। निर्वाचन आयोग की सख्ती के कारण कुछ प्रवृत्तियों पर रोक लगी है तो कुछ नई प्रवृत्तियां पनपी भी हैं। पहले जैसा शोरगुल और धूम-धड़ाका अब चुनावों के दौरान नहीं देखा जा रहा है, इसे एक शुभ संकेत के रूप में देखा जा सकता है। सबसे अच्छी बात यह है कि निरर्थक मुद्दे और असंभव वादे भी इस बार चुनाव में दिखाई नहीं दे रहे हैं। आयोग की सख्ती इसके पीछे एक वजह है, लेकिन दूसरे कारण भी हो सकते हैं। शायद राजनेताओं को इस बात का एहसास हो गया है कि मतदाता अब पहले जैसे भोले-भाले नहीं रहे। आम नागरिक अब पहले की तुलना में बहुत ज्यादा जागरूक और सचेत हो गया है। इसीलिए राज्य का विकास ही मुख्य मुद्दे के रूप में उभरा है। विकास कितना हुआ, कितना नहीं हुआ, किन मसलों पर काम करने की जरूरत है और राज्य की दिशा क्या हो, ये सवाल ही चर्चा के केंद्र में हैं। इसके बावजूद राजनीति और उसके जरिये विकास के प्रति आश्वस्त होने जैसा माहौल अभी दिखाई नहीं देता है। इसके मूल में केवल चुनावी मैदान में पार्टियों और उम्मीदवारों के बीच चल रही जंग एवं उसके तौर-तरीके ही नहीं, परदे के पीछे चली लड़ाई भी है। पार्टियों के भीतर जिस तरह का संघर्ष हुआ है, उसका अंदाजा मैदान में आए विद्रोही उम्मीदवारों की तादाद से लगाया जा सकता है। कांग्रेस यहां अकेले चुनावी मैदान में है, जबकि शिरोमणि अकाली दल (बादल) और भाजपा एक गठबंधन के रूप में मिल कर जोर आजमा रहे हैं। दोनों प्रमुख पक्षों के लोगों में यह प्रवृत्ति देखी जा रही है कि कई उम्मीदवार अपनी-अपनी पार्टी से विद्रोह कर बागी के तौर पर मैदान में आ गए हैं। यह अलग बात है कि किसी का उद्देश्य खुद जीतना है तो किसी का इरादा किसी दूसरे उम्मीदवार को हराने भर का है। जो लोग खुद जीतने और विधानसभा में पहुंचकर जनता की सेवा को अपना उद्देश्य बता रहे हैं, वे भी अपनी जीत के प्रति कितने आश्र्वस्त हैं, यह बात लगभग साफ है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इनमें से कुछ जीत भी सकते हैं। ऐसा प्राय: होता रहा है कि कुछ बागी उम्मीदवार निर्दल या दूसरे दलों के प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतते रहे हैं और बाद में वे राज्य की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते रहे हैं। लेकिन यह बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। वास्तव में यह संकेत है राजनीति में मूल्यों और सिद्धांतों के कमजोर होने का। जहां तक बात पंजाब की है, विधानसभा की यहां कुल मिलाकर 117 सीटें हैं। अगर एक पार्टी के टिकट के दावेदारों की ही असली सूची बनाई जाए तो वह एक हजार से कम पर नहीं रुकेगी। एक अनार सौ बीमार की यह स्थिति हर चुनाव में हर पार्टी के सामने होती है। इससे सबसे पहली बात जो जाहिर होती है, वह यह है कि राजनीति में अब आकर्षण का कारण जनसेवा और विचार तो रहे ही नहीं। सबके लिए आकर्षण का केंद्र पद, प्रतिष्ठा और उससे जुड़े अधिकार एवं लाभ हो गए हैं। पार्टियों में लोग आ ही इस इरादे से रहे हैं कि ज्वाइन करते ही उन्हें पार्टी में कोई महत्वपूर्ण पद मिल जाए और चुनाव आते ही लोकसभा या विधानसभा का टिकट। इस महत्वाकांक्षा को मूर्त रूप देने के लिए क्षेत्र में मेहनत कोई नहीं करना चाहता है। न तो कोई आम जनता के दुख-दर्द से रूबरू होना चाहता है और न पार्टी के कार्यक्रमों-आयोजनों में ही योगदान करना चाहता है। सबसे बड़ी योग्यता अब गणेश परिक्रमा मानी जाती है और इसी पर पूरा जोर दिया जाता है। इसका नतीजा यह हुआ है कि पार्टियों के भीतर आपसी संघर्ष बहुत बढ़ गया है। गलाकाट प्रतिस्पर्धा की इस स्थिति के चलते न केवल मानवीय मूल्य, बल्कि सिद्धांत और प्रमुख राजनीतिक घरानों के आपसी रिश्ते तक सभी छीजते दिख रहे हैं। विभिन्न दल एक-दूसरे के भीतर मचे इस संघर्ष से कोई सीख लेने की स्थिति में भी नहीं हैं। क्योंकि एक तो उनके यहां भी हालात वही हैं और दूसरे सभी एक-दूसरे की कमजोरियों से सिर्फ फायदा उठाने की ताक में हैं, खुद अपनी उन्हीं कमजोरियों का इलाज किए बगैर। गणेश परिक्रमा को खुद पार्टियों के जिम्मेदार नेता ही बढ़ावा दे रहे हैं। आमतौर पर यह देखा जाता है कि बड़े नेता स्वयं अपने हित में भी अपने मन के खिलाफ कोई बात सुनना नहीं चाहते हैं। वे सिर्फ उन्हीं लोगों को अपने निकट रखते हैं जो उनके मन की बात करें, भले ही वह उनके तथा पार्टी के लिए नुकसानदेह साबित हो। नतीजा यह हो रहा है कि बड़े नेताओं के इर्द-गिर्द चाटुकारों की फौज जुटती जा रही है और योग्य लोग उनसे दूर होते जा रहे हैं। चुनावों के दौरान जब टिकटों का बंटवारा होना होता है, उस वक्त भी यही आधार पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर हावी हो जाता है। बड़े राजनेता इस मामले में सबसे पहले अपने परिजनों-रिश्तेदारों को तरजीह देते हैं। इसके बाद उनके निकट के दूसरे लोग आते हैं। फिर पार्टी के वरिष्ठ लोग और वे लोग जिनके जीतने की उम्मीद होती है, चाहे जीत कैसे भी क्यों न मिले। ऐसा नहीं है कि उम्मीदवारों के चयन के लिए कोई वैज्ञानिक आधार पार्टियों के पास हैं ही नहीं। वैज्ञानिक आधार हैं और अगर उन पर कायदे से काम किया जाए तो शायद उम्मीदवारों, पार्टियों और देश की स्थिति ही कुछ और हो। दुर्भाग्य यह है कि उन आधारों को अक्सर दरकिनार कर दिया जाता है और दूसरी तरफ उम्मीदवारों की महत्वाकांक्षाएं भी उबलने लगती हैं। फिर जो घमासान मचता है उसमें नीतियों-सिद्धांतों से लेकर जनहित और विवेक तक सभी तिरोहित हो जाते हैं। सच तो यह है कि इसके चलते आम जनता से राजनीतिक पार्टियों का संपर्क और जुड़ाव ही खत्म होता जा रहा है। ज्यादातर पार्टियों के पास अब सिर्फ नेता बचे हैं, कार्यकर्ता दिखते ही नहीं हैं। इसीलिए चुनाव में धनबल की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती जा रही है। हालांकि सभी जानते हैं कि यह स्थिति बहुत दिनों तक चल नहीं पाएगी। इसके बावजूद आत्मविश्लेषण का समय किसी के भी पास नहीं है। बेहतर यह होगा कि पार्टियां और राजनेता इस सोच से उबरें और पहले के नेताओं की तरह जनसेवा को महत्व दें। निजी महत्वाकांक्षा कोई खराब बात नहीं है, लेकिन इस मामले में थोड़े धैर्य और संयम से काम लें। अपने एवं अपने लोगों के साथ-साथ दूसरों की योग्यता का भी सम्यक मूल्यांकन करें और यथोचित महत्व दें। यह न केवल समाज के हित है बल्कि दीर्घकालिक राजनीति में स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए भी जरूरी है। (लेखक दैनिक जागरण के स्थानीय संपादक हैं
साभार:-दैनिक जागरण

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