Sunday, January 29, 2012

आत्म¨चतन का पर्व

गणतंत्र को समस्त जनाकांक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरते नहीं देख रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित
उल्लास का आकाश और निराशा की गहरी खाई। उल्लास और निराशा एक साथ नहीं आते। लेकिन गणतंत्र दिवस में दोनों एक साथ हैं। हम भारत के लोगों ने 26 नवंबर 1949 के दिन भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित व आत्मार्पित किया था। यही संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र की 63वीं वर्षगांठ का उल्लास स्वाभाविक है, लेकिन निराशा की खाइयां ढेर सारी हैं। सीमाएं अशांत हैं। चीन की आंखें लाल हैं। हमारे सत्ताधीश निष्कि्रय हैं। विदेशी घुसपैठ जारी है। आतंकवादी भारतीय गणतंत्र से युद्धरत हैं, देश के भीतर भी आतंकवादी हैं। माओवादी संविधान और गणतंत्र के विरुद्ध हमलावर हैं, देश का बड़ा हिस्सा रक्तरंजित है। अलगाववादी सक्रिय हैं। केंद्र को चुनौती देते राज्य हैं और राज्यों के अधिकारों पर आक्रामक केंद्र। संघीय ढांचे को खतरा है। राज्य विभाजन की मांगें हैं। लाखों किसान आत्महत्या कर चुके। राजनीति गणतंत्र और संविधान के प्रति निष्ठावान नहीं। संसद का तेज घटा है। कार्यपालिका भ्रष्टाचार की पर्यायवाची हो गई। संविधान में पंथ आधारित आरक्षण का नाम तक नहीं, लेकिन केंद्र ने मुस्लिम आरक्षण की घोषणा की। गणतंत्र और संविधान के शपथी ही संविधान के सामंत बन गए हैं। संविधान स्वयं में कुछ नहीं होता। संविधान पारित होने के दिन अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में कहा था, यह संविधान किसी बात के लिए उपबंध करे या न करे राष्ट्र का कल्याण उस रीति व उन व्यक्तियों पर निर्भर करेगा जो शासन करेंगे। उन्होंने दो बातों को लेकर खेद भी व्यक्त किया, केवल दो खेद की बाते हैं। मैं विधायिका के सदस्यों के लिए कुछ योग्यताएं निर्धारित करना पसंद करता। असंगत है कि प्रशासन करने या विधि के शासन में सहायकों के लिए हम उच्च अर्हता का आग्रह करें, लेकिन विधि निर्माताओं के लिए निर्वाचन के अलावा कोई अर्हता न रखें। विधि निर्माताओं के लिए बौद्धिक उपकरण अपेक्षित हैं, संतुलित विचार करने की साम‌र्थ्य व चरित्र बल भी। दूसरा खेद यह है कि हम स्वतंत्र भारत का अपना संविधान भारतीय भाषा में नहीं बना सके। संविधान सभा की शुरुवात में ही धुलेकर ने हिंदी में संविधान बनाने की मांग की। वीएन राव द्वारा तैयार संविधान का पहला मसौदा अक्टूबर 1947 में आया। डॉ. अंबेडकर की अध्यक्षता वाली समिति का मसौदा फरवरी 1948 में आया। नवंबर 1948 में तीसरा प्रारूप आया। तीनों अंग्रेजी में थे। सेठ गोविंददास, धुलेकर आदि ने हिंदी प्रारूप के विचारण की भी मांग की। दुनिया के सभी देशों के संविधान मातृभाषा में हैं, लेकिन भारत का अंग्रेजी में बना। लेकिन विडंबनाएं और भी हैं। हमारे संविधान में देश के दो नाम हैं - इंडिया दैट इज भारत। संविधान सभा में देश के नाम पर भी बहस हुई, वोट पड़े। भारत को 38 और इंडिया को 51 वोट मिले। भारत प्राचीन राष्ट्र है। लेकिन इंडिया दैट इज भारत को राज्यों का संघ (अनुच्छेद 1) कहा गया। इस संविधान में अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकार हैं, लेकिन अल्पसंख्यक की परिभाषा नहीं। विधि के समक्ष समता है, लेकिन तमाम वर्गीय विशेषाधिकार भी है। पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे कानून भी हैं। उद्देश्यिका में संविधान का दर्शन है, लेकिन वह प्रवर्तनीय नहीं। राज्य के नीति निर्देशक तत्व प्यारे हैं, लेकिन वे भी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं। समान नागरिक संहिता महान आदर्श है लेकिन इसके लागू होने की व्यवस्था नहीं। हिंदी राजभाषा है, पर अंग्रेजी का प्रभुत्व है। जम्मू-कश्मीर संबंधी अनुच्छेद 370 शीर्षक में ही अस्थायी शब्द है, लेकिन 63 बरस हो गए, वह स्थायी है। संविधान की मूल प्रति में श्रीराम, श्रीकृष्ण सहित 23 चित्र थे। राजनीति उन्हें काल्पनिक बताती है। केंद्र द्वारा प्रकाशित संविधान की प्रतियों में वे गायब हैं। भारत का संविधान किसी क्रांति का परिणाम नहीं है। ब्रिटिश सत्ता ने पराजित कौम की तरह भारत नहीं छोड़ा। स्वाधीनता भी ब्रिटिश संसद के भारतीय स्वतंत्रता कानून 1947 से मिली। भारतीय संविधान में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित 1935 के अधिनियम की ही ज्यादातर बाते हैं। ब्रिटिश संसद ने 1892, 1909, 1919 तक बार-बार नए अधिनियम बनाए। वे भारत पर शासन के अपने औचित्य को कानूनी व लोकतंत्री जामा पहना रहे थे। 1935 उनका आखिरी अधिनियम था। भारत ने भारत शासन अधिनियम 1935 को आधार बनाकर गलती की। आरोपों के उत्तर में डॉ. अंबेडकर ने बताया कि उनसे इसी अधिनियम को आधार बनाने की अपेक्षा की गई है। भारत की संसदीय व्यवस्था, प्रशासनिक तंत्र व प्रधानमंत्री ब्रिटिश व्यवस्था की उधारी है। भारत ने अपनी संस्कृति व जनगणमन की इच्छा के अनुरूप अपनी राजव्यवस्था नहीं गढ़ी। डॉ. अंबेडकर ने राजनीतिक चरित्र की ओर उंगली उठाई, अपने ही लोगों की कृतघ्नता और फूट के कारण स्वाधीनता गई। मोहम्मद बिन कासिम के हमले में राजा दाहर के सेनापति ने कासिम समर्थकों से घूस ली और युद्ध नहीं किया। जयचंद ने मोहम्मद गोरी को भारत पर आक्रमण करने व पृथ्वीराज से युद्ध करने का निमंत्रण दिया। शिवाजी हिंदू मुक्ति के लिए युद्ध कर रहे थे। अन्य मराठा व राजपूत सरदार मुगलों की तरफ से लड़ रहे थे। अंग्रेज सिखों को मिटा रहे थे, सिखों का मुख्य सेनापति गुलाब सिंह चुप बैठा रहा। क्या भारतवासी मत-मतांतर से राष्ट्र को श्रेष्ठ मानेंगे? अंबेडकर, गांधी, पटेल, राजेंद्र प्रसाद और ऐसे ही अन्य पूर्वज राष्ट्र सर्वोपरिता को लेकर बेचैन थे? संविधान और गणतंत्र संकट में हैं। संविधान सभा ने अपने तीन वर्ष के कार्यकाल में सिर्फ 63 लाख 96 हजार रुपये ही खर्च किये। जम कर बहस हुई, 2473 संशोधनों पर चर्चा हुई। आज संसद और विधानमंडलों के स्थगन शोरशराबे और करोड़ों रुपये के खर्च विस्मयकारी हैं। संविधान में सौ से ज्यादा संशोधन हो गए। संवैधानिक तंत्र विफल हो गया है। राजनीति भ्रष्ट उद्योग बन गई है। संविधान के शपथी जेल जा रहे हैं। अनेक जेल से चुनाव लड़ रहे हैं, जीत भी रहे हैं। निराशा की खाई गहरी है, राष्ट्रीय उत्सव अब उल्लास नहीं पाते। संवैधानिक संस्थाएं धीरज नहीं देतीं। आमजन हताश और निराश हैं। राजनीतिक अड्डों में ही गणतंत्र के उल्लास का जगमग आकाश है। 15-20 प्रतिशत लोग ही गणतंत्र के माल से अघाए हैं। बाकी 80 फीसदी लोग भुखमरी में हैं। बावजूद इसके अर्थव्यवस्था मनमोहन है और राजनीतिक व्यवस्था गणतंत्र विरोधी। गणतंत्र दिवस राष्ट्रीय आत्मचिंतन का पर्व होना चाहिए। (लेखक उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

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