नव वर्ष की पूर्व संध्या पर जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देशवासियों को शुभकामनाएं देते हुए यह कहा था कि अब वह ईमानदार और सक्षम सरकार देंगे तो लोगों को कुछ-कुछ यह भरोसा हुआ था कि स्थितियों में बदलाव देखने को मिल सकता है। इसका एक कारण यह था कि पिछला वर्ष केंद्रीय सत्ता की नाकामी का रहा और प्रधानमंत्री का कथन कहीं न कहीं यह आभास दे रहा था कि उन्हें अपनी असफलताओं का भान है। उन्हें ऐसा आभास होना भी चाहिए था, क्योंकि भारतीय मीडिया के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए विवश था कि मनमोहन सरकार की छवि लगातार गिरती चली जा रही है, लेकिन अब इसके आसार कम ही नजर आ रहे हैं कि इस छवि में हाल-फिलहाल कोई सुधार हो सकेगा। इसके कुछ ठोस कारण हैं। बात चाहे सेनाध्यक्ष द्वारा केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट में खींचने की हो या ऊर्जा क्षेत्र से संबंधित चुनिंदा उद्योगपतियों के एक समूह की ओर से प्रधानमंत्री के समक्ष गुहार लगाने की या फिर विशिष्ट पहचान संख्या देने की परियोजना को लेकर योजना आयोग और गृहमंत्रालय के बीच छिड़ी खींचतान की-ये सारे मामले यही बता रहे हैं कि प्रधानमंत्री के लिए सक्षम सरकार देना मुश्किल हो रहा है। यदि उपरोक्त मामलों को केंद्र सरकार की नाकामी के रूप में न देखा जाए तो भी ये मामले उसकी छवि को प्रभावित करने वाले हैं। हाल के जिस एक मामले ने भारत सरकार की राष्ट्रीय से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय छवि बुरी तरह प्रभावित की है वह विख्यात लेखक सलमान रुश्दी के भारत न आ पाने का है। केंद्र सरकार और कांग्रेस की मासूम सी सफाई यह है कि अगर रुश्दी ने भारत न आने का निर्णय लिया तो इसमें हम कुछ नहीं कर सकते, लेकिन अब देश और दुनिया इससे अवगत हो गई है कि उन्हें भारत आने से रोकने के लिए हर संभव जतन किए गए-यहां तक कि उनसे झूठ भी बोला गया। रुश्दी को डराने के लिए न केवल यह कहानी गढ़ी गई कि उन्हें मारने के लिए सुपारी दे दी गई है, बल्कि सुपारी लेने वाले भाड़े के दो हत्यारों के नाम भी खोज लिए गए। रुश्दी को जयपुर पुलिस की ओर से दी गई सूचना के अनुसार, उनकी हत्या की सुपारी मुंबई के माफिया ने दी है और भाड़े के हत्यारे जयपुर के लिए निकल भी लिए हैं। रुश्दी ने जैसे ही इस सूचना को सार्वजनिक करते हुए जयपुर न आने का फैसला किया, मुंबई पुलिस ने ऐसी किसी साजिश से पल्ला झाड़ लिया। हालांकि राजस्थान के मुख्यमंत्री अपनी पुलिस का बचाव कर रहे हैं, लेकिन हर कोई जान रहा है कि वह झूठ का सहारा लेकर सच को छिपा रहे हैं। देश-दुनिया को यह संदेश जा चुका है कि भारत सरकार ने रुश्दी को जयपुर न आने देने के लिए हर संभव जतन किए और अंतत: अपने मकसद में कामयाब हुई। यह लगभग तय है कि केंद्र सरकार अभी भी यही दावा करेगी कि रुश्दी मामले से उसका कोई लेना-देना नहीं, लेकिन दुनिया को जो संदेश जा चुका है वह वापस नहीं होने वाला। इस प्रकरण से भारत सरकार के मुख पर कालिख पुत गई। नि:संदेह इसलिए नहीं कि रुश्दी भारत नहीं आ सके, बल्कि इसलिए कि उन्हें भारत आने से रोकने के लिए सरकार के स्तर पर छल किया गया। यह जांच का विषय हो सकता है कि यह छल अकेले राजस्थान सरकार ने किया या फिर उसमें केंद्र सरकार भी शामिल थी, लेकिन किसी को भी यह समझने में कठिनाई नहीं हो रही कि केंद्रीय सत्ता भी वही चाह रही थी जो राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत चाह रहे थे। अंतरराष्ट्रीय लेखक बिरादरी के लिए रुश्दी बड़े साहित्यकार हैं। मुस्लिम जगत के बीच वह जितने बदनाम हैं, बुद्धिजीवियों के संसार में उनका उतना ही नाम है। इसमें दोराय नहीं हो सकती कि अपनी विवादास्पद कृति सैटनिक वर्सेस के जरिये उन्होंने मुस्लिम समुदाय को नाराज किया है और उसे अपनी नाराजगी जाहिर करने का अधिकार अभी भी है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं हो सकता कि उन्हें अपने देश ही न आने दिया जाए। भारत सरकार ने राजस्थान सरकार की आड़ लेकर ऐसा ही किया। यह संभव है कि सलमान रुश्दी के भारत न आ पाने से उन्हें और उनके जैसे लेखकों की पुस्तकें न पढ़ने वाली भारत की विशाल जनसंख्या पर कोई असर न पड़े, लेकिन उन बुद्धिजीवियों के बीच तो मनमोहन सरकार की भद पिट ही गई जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी छीज गई छवि में कुछ पैबंद लगा सकते थे। प्रधानमंत्री और उनके सलाहकारों को यह अच्छी तरह पता होना चाहिए था कि यदि रुश्दी को भारत नहीं आने दिया गया तो इसकी देश से ज्यादा चर्चा विदेश में होगी। ऐसा हो भी रहा है और इससे मनमोहन सिंह की बची-खुची साख पर नए सिरे से बट्टा लग रहा है। हाल ही में प्रधानमंत्री ने अपना नया मीडिया सलाहकार नियुक्त किया है। हरीश खरे की जगह पंकज पचौरी ने ली है। माना जा रहा है कि हरीश खरे को इसलिए जाना पड़ा, क्योंकि वह प्रधानमंत्री की छवि का निर्माण करने में सक्षम नहीं रहे। पता नहीं सच क्या है, लेकिन यदि कोई यह सोच रहा है कि मीडिया सलाहकार साहस और निर्णय क्षमता का परिचय देने के बजाय हाथ पर हाथ रखकर बैठी रहने वाली किसी सरकार के मुखिया की छवि का निर्माण कर सकता है तो यह दिन में सपने देखने जैसा है। एक क्या सौ मीडिया सलाहकार भी वैसी सरकार के प्रमुख की छवि नहीं बचा सकते जैसी सरकार का नेतृत्व पिछले वर्ष मनमोहन सिंह ने किया है। यदि प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार उनकी छवि की रक्षा न कर पाने के लिए ही हटाए गए हैं तो यह और भी निराशाजनक है, क्योंकि इसका मतलब है कि वह यह मानकर चल रहे हैं कि उनके स्तर पर कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हो रही है। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
No comments:
Post a Comment