Monday, March 5, 2012

सही काम का गलत तरीका

एनसीटीसी का मसला ठंडे बस्ते में चले जाने के लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार मान रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश

केंद्र सरकार के राष्ट्रीय आतंक रोधी केंद्र (एनसीटीसी) के गठन के कदम पर दर्जन भर मुख्यमंत्रियों की भृकुटियां तन गई हैं। एनसीटीसी को आतंकी गतिविधियों में लिप्त रहने या फिर इसकी योजना बनाने वाले किसी भी व्यक्ति की तलाशी लेने और उसे गिरफ्तार करने का अधिकार होगा। पहली नजर में यह विचित्र लग सकता है कि मुख्यमंत्री इस आतंकरोधी पहल का विरोध क्यों कर रहे हैं, जबकि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें भारत की एकता-अखंडता के लिए खतरा बन गए आतंकवाद को खत्म करने की प्रतिबद्धता जताती रहती हैं, किंतु गहराई से देखने पर समझ में आ जाता है कि समस्या राष्ट्रीय स्तर पर पूर्ण सशक्त आतंकवाद रोधी एजेंसी के गठन में नहीं है, बल्कि उस तरीके में है जिसमें केंद्र सरकार और खास तौर से गृहमंत्री इस विचार को क्रियान्वित करना चाहते हैं। आतंकवादी गतिविधियां रोकने के लिए मजबूत, समन्वित कार्रवाई की जरूरत पर राष्ट्रीय सहमति है। केंद्रीय गृह मंत्रालय को बस इतना करना था कि वह एनसीटीसी के गठन के बारे में राज्यों से विचार-विमर्श के आधार पर फैसला लेता। स्पष्ट है, राज्य इस औचक फैसले से स्तब्ध रह गए और गृहमंत्री के इस रवैये से चिढ़ गए कि मैं जानता हूं आपके लिए क्या अच्छा है? परिणामस्वरूप बैरभाव इतना बढ़ गया कि करीब एक दर्जन मुख्यमंत्री इसके विरोध में खुलकर खड़े हो गए। इनमें ऐसे मुख्यमंत्री भी शामिल हैं जो केंद्र में सत्तारूढ़ संप्रग गठबंधन के सहयोगी दलों से हैं। केंद्र सरकार का रवैया समझ से परे है। इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को देश के तमाम मुख्यमंत्रियों से बातचीत करके उन्हें राजी करना चाहिए था। इसके विपरीत उनका व्यवहार ऐसा था जैसे अभी भी एकल पार्टी का शासन है और केंद्र को जो सही लगेगा वह राज्यों पर थोप दिया जाएगा। सच यह है कि 70 फीसदी से अधिक मतदाताओं ने पिछले आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी को नकार दिया था, फिर भी वह उन खुशगवार दिनों में खोई है जब केंद्र और अधिकांश राज्यों में कांग्रेस का एकछत्र राज था। यद्यपि कांग्रेस एक गठबंधन का अंग है, लेकिन वह अब भी मानती है कि वह देश की एकमात्र शासक है। इसीलिए वह राज्यों से बात करने में अपनी हेठी समझती है। इसी कारण उसे तृणमूल कांग्रेस जैसे गठबंधन के छोटे साझेदारों के हाथों शर्मिदगी झेलनी पड़ती है। एनसीटीसी विवाद से हमें यही पता चलता है कि पार्टी गठबंधन धर्म और इससे भी महत्वपूर्ण गठबंधन आचरण के सरल नियमों का पालन करना नहीं सीख पाई है। मुख्यमंत्रियों को इस पर आपत्ति है कि एनसीटीसी को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) कानून के 43 ए और 43 बी प्रावधानों वाली शक्तियां दे दी गई हैं। यह एक मजबूत कानून है जो उन लोगों को दंडित करने के लिए बनाया गया है जो भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को चुनौती देते हैं अथवा आतंक या किसी अन्य माध्यम से शांति एवं व्यवस्था के लिए खतरा उत्पन्न करते हैं। ये प्रावधान एक केंद्रीय बल को संदिग्ध व्यक्तियों की गिरफ्तारी, तलाशी और छापेमारी अभियान चलाने का अधिकार देते हैं। राज्यों का कहना है कि ये प्रावधान संविधान द्वारा लोक व्यवस्था कायम रखने के लिए उन्हें दिए गए अधिकारों पर आघात करते हैं। उनकी दलील यह है कि कानून एवं व्यवस्था कायम रखना राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है और इस काम में केंद्र का दखल ठीक नहीं है। उनका यह भी कहना है कि केंद्र एनसीटीसी के जरिए उनके अधिकार क्षेत्र में दखल देने की सोची-समझी रणनीति पर चल रहा है। मुख्यमंत्रियों की चिंताओं का तब समाधान किया जा सकता है जब कुछ केंद्रीय मंत्री अपने अहंकारी रवैये का परित्याग करें और यह महसूस करें कि राज्यों में कुछ ऐसे नेता हैं जो राष्ट्रीय सुरक्षा और देश की एकता के लिए ज्यादा नहीं तो उतना ही चिंतित हैं जितना कि केंद्र सरकार। सच तो यह है कि केंद्र सरकार सरकारिया आयोग की रपट पर निगाह डाल सकती है जो संघ के सिद्धांत पर विश्वास करने वालों के लिए किसी बाइबिल से कम नहीं है। आयोग ने अपनी रपट में आंतरिक सुरक्षा पर संकट से निपटने के लिए केंद्रीय बलों की तैनाती के संदर्भ में अपने कुछ सुझाव दिए हैं। उसके मुताबिक किसी राज्य में सशस्त्र बलों की तैनाती के समय उस पर नियंत्रण, निगरानी और प्रशासन के अधिकार केंद्र अथवा उसके द्वारा नियुक्त अधिकारियों के पास होने चाहिए। अर्थात तैनाती के समय शक्ति, न्यायाधिकरण, विशेषाधिकार तथा बल के सदस्यों की जिम्मेदारी से संबंधित सभी पक्ष केंद्र सरकार के पास होने चाहिए। इससे केंद्र सरकार को बल के विभिन्न सदस्यों द्वारा की जाने वाली कार्रवाई के संदर्भ में जरूरी प्रशासनिक ढाल मिलती है। हालांकि आयोग राज्यों में केंद्रीय बलों की तैनाती के संदर्भ में इस तरह की शक्तियां केंद्र सरकार को देते हुए एक अन्य व्यवस्था भी करता है। उसके अनुसार केंद्र सरकार आंतरिक उपद्रव से निपटने के लिए संबंधित राज्य की पुलिस और कानून एवं व्यवस्था कायम रखने का दायित्व संभालने वाले प्रशासनिक तंत्र को किनारे कर अकेले जिम्मेदारी नहीं ले सकती और न ही केंद्र सरकार अपेक्षाकृत कम गंभीर नजर आने वाले संकट से निपटने के लिए राज्य की इच्छा के खिलाफ उसके यहां केंद्रीय बल को तैनात कर सकती है। इतना ही नहीं, आयोग यह भी कहता है कि बीएसएफ सरीखे अ‌र्द्धसैनिक बलों की तैनाती की स्थिति में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि तमाम संबंधित पुलिस कार्य राज्य की पुलिस द्वारा ही किए जाएं। आयोग के मुताबिक राज्य की पुलिस पर ही बुनियादी रूप से लोक व्यवस्था कायम रखने की जिम्मेदारी है और यह कतई नहीं होना चाहिए कि बीएसएफ अथवा सेना राज्य पुलिस के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कर ले। एनसीटीसी के प्रभावशाली रूप से काम करने के लिए जरूरी है कि सरकारिया आयोग की इन सिफारिशों पर सही तरह अमल हो और उनकी मूल भावना के अनुरूप काम किया जाए। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इस मामले में अभी तक केवल अपने हिसाब से काम किया है। सच तो यह है कि वह राज्यों से निपटने के मामले में बुनियादी शिष्टाचार प्रदर्शित करने में असफल रहा है। उसे इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि कई राज्यों में बहुत काबिल मुख्यमंत्री बेहद प्रभावशाली तरीके से शासन कर रहे हैं। राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने केंद्र सरकार के रवैये का विश्लेषण करते हुए बिल्कुल सही कहा है कि वह शासन की कला ही भूल गई है। सच्चाई यह है कि संप्रग सरकार 2004 में जब से केंद्र की सत्ता में आई है तभी से वह राजनय का परिचय नहीं दे पा रही है। यही कारण है कि आतंकवाद के खिलाफ एकीकृत मोर्चा बनाने के स्थान पर संकीर्ण स्वार्थो वाले खेल खेले जा रहे हैं और दुर्भाग्य यह है कि हम सभी को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

नदियों को जोड़ने की चुनौती

नदियों को जोड़ने की अत्यंत महत्वाकांक्षी परियोजना के समुचित क्रियान्वयन पर संदेह जता रहे हैं ब्रह्मा चेलानी
राष्ट्रीय नदी जोड़ो परियोजना 37 हिमालयी और प्रायद्वीपीय नदियों को आपस में जोड़ने की महत्वाकांक्षी परियोजना है। कभी राहुल गांधी ने इसकी खिल्ली उड़ाई थी, अब सुप्रीम कोर्ट ने इसके समयबद्ध क्रियान्वयन का आदेश जारी किया है। सवाल यह है कि क्या यह संभव होगा? नर्मदा परियोजना पर सुप्रीम कोर्ट के रुख के आलोक में इस मामले में उम्मीद बंधती है। भारत में सरकार विशाल जल परियोजनाएं तो लाती है, किंतु विस्थापितों की पुनस्र्थापना और प्रभावशाली नागरिक समाज समूहों के कड़े विरोध से आंखें मूंद लेती है। विदेशी पूंजी पर चलने वाले एनजीओ स्थानीय निवासियों के विस्थापन के मुद्दे को जोर-शोर से उठाते हैं। इस प्रकार के संगठन अनेक जल विद्युत परियोजनाओं के विरोध में अपना शक्ति प्रदर्शन कर चुके हैं। औद्योगिकीकरण की मांग स्थानीय जल संसाधनों पर दबाव डाल रही है। ऐसे में एनजीओ और नागरिक समूहों ने ऐसे उद्योगों का विरोध तेज कर दिया है जिनमें पानी की अधिक मात्रा में खपत होती है। भारत की लौह अयस्क पट्टी में लग्जमबर्ग के आर्सेलर मित्तल और दक्षिण कोरिया के पोस्को समूह की परियोजनाओं के जबरदस्त विरोध के कारण इन परियोजनाओं में देरी इसका ताजा उदाहरण है। बांध विरोधी मेधा पाटकर और अरुंधति रॉय को अनेक परियोजनाओं के विरोध में जोरदार समर्थन मिला है। जनता के दबाव में आकर 2010 में सरकार ने भागीरथी नदी पर तीन निर्माणाधीन परियोजनाओं पर काम रोक दिया था। इस कारण करोड़ों रुपये पानी में डूब गए थे। इस पृष्ठभूमि में वाजपेयी सरकार के नदियों को जोड़ने के कदम की असाधारण प्रकृति का पता चलता है। यह एक स्वप्निल योजना है। 12,500 नहरों के माध्यम से 178 अरब घनमीटर की विशाल जलधाराओं से साढ़े तीन करोड़ हेक्टेयर भूमि को सिंचित करने और 34 गीगावाट पनबिजली के उत्पादन का लक्ष्य है। यह ऐसी योजना है जो चीन जैसा अधिसत्तात्मक देश ही शुरू और क्रियान्वित कर सकता है। इसलिए इसमें जरा भी आश्चर्य नहीं है कि भारत का नदी जोड़ो कार्यक्रम कई साल तक योजना के स्तर पर ही अटका रहा। राहुल गांधी ने इस कार्यक्रम को विनाशकारी विचार कहकर खारिज कर दिया था। उन्होंने कहा था कि यह योजना देश के पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक है। भारत की सत्ताधारी पार्टी के प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी के इस बयान से प्रभावित होकर तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इसे मानव, आर्थिक और पारिस्थितिक विनाश बताया था। बाद में राहुल गांधी ने इस परियोजना के छोटे से भाग केन और बेतवा नदी को जोड़कर सूखाग्रस्त बुंदेलखंड क्षेत्र में सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध कराने की बात की थी। केन और बेतवा को 231 किलोमीटर लंबी नहर के माध्यम से जोड़ने की योजना पर्यावरण को नुकसान की आशंका के कारण खटाई में पड़ गई। असलियत यह है कि 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रकार की योजना शुरू करने के लिए सरकार को प्रोत्साहित किया था। यह भी सच है कि केंद्र में सत्ता परिवर्तन होने के बाद यह योजना दलगत राजनीति की भेंट चढ़ गई और नई सरकार को पुरानी सरकार के फैसले में खोट दिखाई देने लगा। 2009 में संप्रग सरकार ने संसद को बताया था कि नदी जोड़ने की इस परियोजना में भारी खर्च होगा और सरकार के पास इस मद के लिए इतनी राशि नहीं है। सरकार ने इस बात पर गौर नहीं किया कि नदियों को आपस में जोड़ने से भारत का खाद्यान्न उत्पादन दोगुना बढ़कर 45 करोड़ टन वार्षिक हो जाएगा और बढ़ती आबादी और संपन्नता के कारण खाद्यान्न की बढ़ती मांग की आसानी से पूर्ति हो जाएगी। यह भी काबिलेगौर है कि मानसून के मौसम में गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदियों के बेसिन में बाढ़ आ जाती है, जबकि पश्चिमी भारत और प्रायद्वीपीय बेसिनों में पानी की कमी हो जाती है। इन तमाम बेसिनों में पानी की उपलब्धता बनाए रखने, बाढ़ से बचने और खाद्यान्न बढ़ाने के लिए इंडियन वाटर डेवलपमेंट एजेंसी ने अंतर बेसिन जल स्थानांतरण (आइबीडब्ल्यूटी) को ही एकमात्र उपाय बताया था। नई कृषि प्रौद्योगिकी और नए प्रकार के बीज मिलने के बाद भी 45 करोड़ टन वार्षिक खाद्यान्न उत्पादन के लिए सरकार को सिंचाई सुविधाओं का विस्तार करना होगा। अन्यथा, खाद्यान्न आयात पर बढ़ती निर्भरता से पीछा नहीं छूटेगा। यह सत्य है कि विश्व के अनेक भागों में अंतर बेसिन जल स्थानांतरण सफलता के साथ क्रियान्वित हो रहा है। चीन की दक्षिण-उत्तर जल परियोजना विश्व की सबसे विशाल अंतर बेसिन जल स्थानांतरण पहल है, किंतु भारत चीन नहीं है, जहां लोकतंत्र का अभाव बड़े परिवर्तनों के लिए लाभ की स्थिति है। भारत ने बार-बार दर्शाया है कि उसमें दीर्घकालिक सामरिक योजनाएं बनाने और उन्हें सफलतापूर्वक क्रियान्वित करने की क्षमता नहीं है। जब भारत को नर्मदा नदी परियोजना को पूरा करने में ही दशकों का समय लग गया तो यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह नदी जोड़ो जैसी विशाल परियोजना क्रियान्वित कर सकता है? नदी जोड़ो योजना का बांग्लादेश पर प्रभाव पड़ना तय है। वह इस परियोजना को लेकर पहले ही चिंतित है। सीधा सा तथ्य यह है कि एनजीओ द्वारा संगठित विरोध के कारण परियोजनाओं को रोकना पड़ रहा है। ऐसा अनेक पनबिजली परियोजनाओं के साथ हो चुका है। इस कारण निजी-सार्वजनिक निवेश को लेकर उत्साह नहीं है। परिणामस्वरूप, पनबिजली का आकर्षण खत्म होता जा रहा है, जबकि देश के हिमालयी भाग में विपुल पनबिजली उत्पादन की गुंजाइश है। भारत के कुल विद्युत उत्पादन में पनबिजली की हिस्सेदारी 1962-63 में 50 फीसदी से घटकर 2009-10 में 23 प्रतिशत रह गई है। पनबिजली के उत्पादन को बढ़ावा देने के केंद्र सरकार के प्रयासों के बावजूद विरोध प्रदर्शन, पर्यावरण चिंताओं, भूमि अधिग्रहण पर अनावश्यक कानूनी कार्रवाई और राज्य सरकारों द्वारा पेशगी प्रीमियम राशि की मांग पर मामला फंस जाता है। नर्मदा पर बिजलीघर बनाने की योजना आजादी के तुरंत बाद बन गई थी, किंतु यह अब तक पूरी तरह क्रियान्वित नहीं हो सकी है, जबकि चीन ने 18,300 मेगावाट की क्षमता वाला थ्री जॉर्ज बांध निर्धारित समय से पहले ही बना दिया। यह परियोजना नर्मदा परियोजना से साढ़े बारह गुनी बड़ी है। नर्मदा बांध में लालफीताशाही, कानूनी अड़चन और राजनीतिक व एनजीओ कार्यकर्ताओं द्वारा बाधाएं खड़ी करने से यह साबित हो जाता है कि कोई भी बड़ी परियोजना शुरू करना बेहद मुश्किल काम है। जिस प्रकार भारत के पास कोई राष्ट्रीय सुरक्षा नीति नहीं है उसी प्रकार इसके पास कोई राष्ट्रीय जल सुरक्षा नीति भी नहीं है।
(लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

राष्ट्रीय हितों पर राजनीति

राष्ट्रीय हित के विषय किस तरह संकीर्ण राजनीति की भेंट चढ़ते हैं, इसका ताजा प्रमाण है रेलवे सुरक्षा बल संबंधी संशोधन विधेयक पर कुछ राज्य सरकारों की आपत्तियां और उन पर केंद्र सरकार का दृष्टिकोण। यह निराशाजनक है कि रेलवे सुरक्षा बल को और अधिकार संपन्न बनाने की पहल पर राज्यों को उसी तरह कष्ट हो रहा है जैसे राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र अर्थात एनसीटीसी की स्थापना पर। राज्यों की आपत्तियों की चलते यह केंद्र तय तिथि यानी एक मार्च से सक्रिय नहीं हो सका। हालांकि केंद्रीय सत्ता इस उम्मीद में है कि राज्यों के पुलिस महानिदेशकों, आतंकवाद निरोधक दस्तों के प्रमुखों और गृह सचिवों की आगामी बैठक में एनसीटीसी पर जारी गतिरोध दूर हो जाएगा, लेकिन इसके आसार कम ही नजर आ रहे हैं। एनसीटीसी पर ममता बनर्जी के साथ मिलकर विरोध का झंडा बुलंद करने वाले ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक इस मुद्दे पर मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाने पर जोर दे रहे हैं। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए बनाई जा रही इस नई व्यवस्था पर विचार-विमर्श करने के लिए मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाने में कोई हर्ज नहीं। सच तो यह है कि केंद्र सरकार को पहले ही राज्य सरकारों से सलाह-मशविरा करना चाहिए था, लेकिन ऐसी बैठकें समस्या के समाधान की गारंटी नहीं। नक्सलवाद पर नियंत्रण के लिए न जाने कितनी बार मुख्यमंत्रियों की बैठकें हो चुकी हैं, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही है। यह समय ही बताएगा कि एनसीटीसी पर जारी गतिरोध कैसे दूर होगा और दूर होगा भी या नहीं, लेकिन यदि किन्हीं कारणों से यह संस्था सक्रिय नहीं हो सकी तो उससे सबसे अधिक राहत आतंकी तत्वों को मिलेगी। कुछ ऐसा ही मामला रेलवे सुरक्षा बल को और अधिकार देने का भी है। रेल मंत्रालय यह चाहता है कि रेलवे सुरक्षा बल को ऐसे अधिकार मिलें जिससे वह रेल संपत्ति के साथ-साथ रेल यात्रियों की सुरक्षा करने में भी समर्थ हो जाए। इसके लिए उसे पुलिस सरीखे अधिकार देने की तैयारी है। यह तैयारी राज्यों को खटक रही है। उनका वही पुराना तर्क है कि इससे हमारे अधिकारों पर कैंची चलेगी। यह समझना कठिन है कि सुरक्षा के हर मामले पर राज्य सरकारें अपने अधिकारियों में कटौती का रोना क्यों रोने लगती हैं? वे इतना ही नहीं करतीं, बल्कि संघीय ढांचे में छेड़छाड़ का आरोप भी लगाने लगती हैं। यह रवैया उचित नहीं। बदली हुई परिस्थितियों में कानून एवं व्यवस्था के तौर-तरीकों में कुछ फेरबदल करना समय की मांग है। इस संदर्भ में यह भी एक सच्चाई है कि राज्य सरकारें चाहे जो दावा करें, राजकीय रेलवे पुलिस अपनी जिम्मेदारियों का सही तरह निर्वहन नहीं कर पा रही है। यह आश्चर्यजनक है कि रेलवे सुरक्षा बल संबंधी विधेयक में संशोधन पर राज्यों की आपत्तियों के बावजूद केंद्र सरकार ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि राज्य सरकारें अपनी समस्या रेल मंत्री के समक्ष रखें। क्या रेल मंत्रालय केंद्र सरकार का हिस्सा नहीं? ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार ने ममता बनर्जी को यह बताने के लिए इस मामले से पल्ला झाड़ा कि यदि वह एनसीटीसी पर आपत्ति जताएंगी तो रेल मंत्री के रूप में उनके द्वारा प्रस्तावित विधेयक पर भी अड़ंगे लग सकते हैं। सच्चाई जो भी हो, राष्ट्रहित के मुद्दों पर जैसे को तैसा वाली राजनीति का परिचय नहीं दिया जाना चाहिए।
साभार :- दैनिक जागरण

एनसीटीसी का औचित्य

एनसीटीसी को मिले पुलिसिया अधिकारों में कटौती के साथ इसे आतंक के खिलाफ जंग में कारगर हथियार बता रहे हैं प्रकाश सिंह
26/11 आतंकी हमले से आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था की कमजोरियां उजागर हो गई थीं। राष्ट्रीय स्तर पर यह समझा गया कि आतंकवाद से लड़ने के लिए हमें अपनी आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था को और सुदृढ़ व सशक्त बनाना होगा। भारत सरकार तबसे इस दिशा में बराबर प्रयत्नशील है। राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन किया गया। राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड की इकाइयों का अन्य महानगरों में विकेंद्रीकरण हुआ। तटीय सुरक्षा को सुदृढ़ करने के लिए योजना लागू की गई। आतंकवाद से लड़ने के लिए पुलिस और अ‌र्द्धसैनिक बलों के प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए गए। केंद्र सरकार ने प्रदेश सरकारों को पुलिस बल के आधुनिकीकरण और रिक्तियों को भरने के निर्देश दिए, इत्यादि। इसी कड़ी में केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने दिसंबर, 2009 को इंटेलिजेंस ब्यूरो के वार्षिक सम्मेलन में एनसीटीसी के गठन की योजना की घोषणा की। यह संस्था न केवल आतंकवाद के विरुद्ध निरोधात्मक कार्रवाई करेगी, बल्कि घटना होने के बाद उसकी गुत्थी सुलझाने और जवाबी हमले की कार्रवाई भी करेगी। गृहमंत्री की योजना कुछ ज्यादा ही महत्वाकांक्षी थी। अन्य संबंधित विभागों ने उसका विरोध किया। पिछले दो वर्षो से पत्राचार और बहस के बाद भारत सरकार ने एनसीटीसी के गठन की मध्य जनवरी में घोषणा की। कहा गया कि आतंकवाद से संबंधित अभिसूचनाओं के लिए यह सर्वोच्च संस्था होगी जो इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधीन काम करेगी। इसे न केवल अभिसूचनाओं के एकत्रीकरण, उनमें सामंजस्य स्थापित करना और उन्हें कार्रवाई के लिए राज्य सरकारों और संबंधित अधिकारियों को भेजना होगा वरन इसे आतंकवाद में लिप्त लोगों की तलाशी और उनकी गिरफ्तारी का भी अधिकार होगा। संगठन को यह अधिकार प्रचलित गैरकाूननी गतिविधि (निवारक) कानून के अंतर्गत प्रदत्त किया जाएगा। इसमें संदेह नहीं कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई को बल और दिशा देने के लिए एनसीटीसी की तत्काल आवश्यकता है। परंतु दुर्भाग्य से भारत सरकार ने इसके गठन में दो ऐसी गलतियां की हैं जिनसे सारी योजना खटाई में पड़ गई है। पहली बात यह है कि अन्य देशों में यह संस्था एक स्वतंत्र इकाई के रूप में काम करती है। इससे लाभ यह होता है कि सरकार को एक निष्पक्ष दृष्टिकोण मिलता रहता है। इंटेलिजेंस ब्यूरो का हिस्सा बनाने में खतरा यह है कि अगर इंटेलिजेंस विभाग से कोई गलती हुई तो वह गलती एनसीटीसी के स्तर पर भी दोहरा दी जाएगी। दूसरी बड़ी गलती यह हुई कि इंटेलिजेंस ब्यूरो को गिरफ्तारी का अधिकार दिया गया। ऐसा किसी प्रगतिशील पश्चिमी देश में नहीं है। रूस में अवश्य स्तालिन के नेतृत्व में केजीबी को यह अधिकार दिया गया था। गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने एनसीटीसी का तीखा विरोध किया है। अगर मुख्यमंत्रियों की आपत्ति केवल यहीं तक सीमित रहती कि इंटेलिजेंस ब्यूरो को गिरफ्तारी का अधिकार देने का औचित्य नहीं है, तब तो उनकी आपत्ति को सही कहा जाता, परंतु अधिकांश मुख्यमंत्री बार-बार संघीय ढांचे की दुहाई देते हैं और कहते हैं कि प्रस्तावित योजना उनके अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण है। यह बात गले नहीं उतरती। आज सच्चाई यह है कि शांति व्यवस्था से संबंधित छोटी से छोटी घटना से निबटने के लिए राज्य सरकारें केंद्रीय मदद और अ‌र्द्धसैनिक बलों की मांग करती हैं। अंतर्जातीय संघर्ष हो, सांप्रदायिक दंगा हो, त्योहारों की व्यवस्था करनी हो, कोई रास्ता रोको या रेल रोको आंदोलन हो, प्रदेश सरकारें तुरंत सीआरपीएफ और बीएसएफ की मांग करती हैं। तब तो वह भूल जाते हैं कि संघीय ढांचे में ऐसी परिस्थितियों से निपटना उनकी जिम्मेदारी है। परंतु जब आतंकवाद जैसी गंभीर और व्यापक समस्या से निपटने के लिए भारत सरकार कोई पहल करती है तब मुख्यमंत्री अपनी जागीर बचाने लगते हैं। सभी राजनीतिक वर्गो को यह समझना होगा कि आज देश के लिए अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद सबसे बड़ा खतरा है। यह हमारे राजनीतिक अस्तित्व को खत्म करना चाहता है, अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न करना चाहता है और समुदायों के बीच दुर्भावना का जहर घोलकर सांप्रदायिक आग लगाना चाहता है। इस खतरे से निपटने के लिए केंद्रीय योजना के अंतर्गत सभी प्रदेशों को काम करने के लिए तैयार रहना चाहिए। जैसा भी हो, भारत सरकार की एनसीटीसी बनाने की योजना में खामी तो है ही। अमेरिका में 2004 में एनसीटीसी का गठन हुआ, परंतु उसकी जिम्मेदारी केवल अभिसूचनाओं के एकत्रीकरण और सामंजस्य तक ही सीमित रखी गई। वहां यह संगठन डायरेक्टर नेशनल इंटेलिजेंस के अधीन काम करता है, परंतु उसे कोई कार्यकारी अधिकार नहीं दिए गए हैं। जमीनी कार्रवाई की जिम्मेदारी होमलैंड सिक्योरिटी विभाग के पास है। इसी प्रकार इंग्लैंड में ज्वाइंट टेररिज्म एनालिसिस सेंटर बनाया गया था। इंग्लैंड की खुफिया एजेंसी एमआइ-5 को भी कार्यकारी अधिकार नहीं दिए गए हैं। जमीनी कार्रवाई काउंटर टेररिज्म कमांड और स्थानीय पुलिस की जिम्मेदारी है। गृहमंत्री ने एनसीटीसी की प्रेरणा तो अमेरिका से ली, परंतु उसे व्यावहारिक स्वरूप देने में चूक गए। मुख्यमंत्रियों को उन्होंने अब पत्र लिखा है कि निकट भविष्य में सभी राज्यों के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशकों का सम्मेलन बुलाया जाएगा। उसमें भारत सरकार अपना दृष्टिकोण सामने रखेगी। चिदंबरम का कहना है कि एनसीटीसी को तलाशी और गिरफ्तारी के न्यूनतम अधिकार होने चाहिए, परंतु यह आवश्यकता प्रगतिशील पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों ने नहीं महसूस की। उनका यह कहना सही है कि आतंकवाद से लड़ना केंद्र और राज्यों की मिली-जुली जिम्मेदारी है, परंतु इस जिम्मेदारी को सबको साथ लेकर ही निभाया जा सकता है। इंटेलिजेंस ब्यूरो को पुलिस अधिकार देने का प्रस्ताव वांछनीय नहीं है। इंटेलिजेंस ब्यूरो एक गोपनीय संस्था है। यह पर्दे के पीछे ही काम करती रहे तो उचित होगा। अगर इसे गिरफ्तारी के अधिकार दिए गए तो यह संगठन आरटीआइ के अंतर्गत भी आ जाएगा और इसके कार्यकलाप पर संसद में चर्चा हो सकती है। दूरगामी दृष्टिकोण से यह इंटेलिजेंस ब्यूरो के लिए भी लाभप्रद नहीं होगा। भारत में एनसीटीसी का शीघ्रातिशीघ्र गठन होना चाहिए। इस संगठन के पास आतंकवाद विरोधी अभिसूचनाओं के एकत्रीकरण और प्रसारण का अधिकार होना चाहिए। इस संगठन की यह भी जिम्मेदारी होनी चाहिए कि आतंकवाद से निपटने और उसके विरुद्ध प्रभावी कार्रवाई करने के लिए समय-समय पर योजनाएं बनाए, परंतु जमीनी स्तर पर कार्रवाई पुलिस, सीबीआइ, राष्ट्रीय जांच एजेंसी व प्रवर्तन निदेशालय द्वारा ही होनी चाहिए।
(लेखक पूर्व पुलिस महानिदेशक हैं)
साभार :- दैनिक जागरण

निराशाजनक आंकड़े

मौजूदा वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर के घटकर 6.1 प्रतिशत पर पहुंच जाने से यह और अच्छे से स्पष्ट हो गया कि केंद्र सरकार अपना काम सही तरह नहीं कर पा रही है। यह वृद्धि दर कितनी निराशाजनक है, इसका पता इससे चलता है कि यह पिछले तीन साल के निम्नतम स्तर पर है और पिछले वित्त वर्ष की इसी अवधि के मुकाबले 2.2 प्रतिशत कम है। लगातार सातवीं तिमाही में विकास दर में गिरावट के आंकड़े सामने आने के बाद केंद्र सरकार के उन नीति-निर्माताओं पर यकीन करने का कोई कारण नहीं जो भविष्य में बेहतर तस्वीर दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी यह कोशिश लगातार नाकाम हो रही है। इसका एक प्रमाण यह है कि अगली तिमाही में भी हालात बदलने के कोई आसार नहीं। चिंताजनक केवल यही नहीं है कि रह-रहकर आर्थिक विकास दर के निराशाजनक आंकड़े सामने आ रहे हैं, बल्कि यह भी है कि राजकोषीय घाटा बढ़ता जा रहा है और सब्सिडी कम करने के उपायों पर अमल मुश्किल हो रहा है। ऐसा लगता है कि मनरेगा सरीखी योजनाओं के जरिये दोबारा सत्ता में आने में सफल रही संप्रग सरकार ने यह मान लिया कि उसे अपने दूसरे कार्यकाल मेंऔर कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। अब स्थिति यह है कि एक ओर सब्सिडी का बोझ बढ़ता जा रहा है और दूसरी ओर भारी-भरकम धनराशि वाली जनकल्याणकारी योजनाएं अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रही हैं। आज मनरेगा और एनआरएचएम जैसी योजनाएं भ्रष्टाचार के लिए अधिक चर्चा में हैं। विडंबना यह है कि इन योजनाओं में धन के दुरुपयोग पर लगाम लगाने की कोई ठोस व्यवस्था किए बगैर कुछ ऐसी ही अन्य योजनाओं को आगे बढ़ाने की कोशिश हो रही है। अब यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि संप्रग सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में आर्थिक विकास के लिए जो तौर-तरीके चुने वे अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ रहे हैं। कोई भी सरकार लोक-लुभावन नीतियों पर तभी आगे बढ़ती रह सकती है जब वह अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने में सक्षम रहे, लेकिन शायद संप्रग शासन के नीति निर्माता यह समझने के लिए तैयार नहीं कि आर्थिक विकास की बाधाओं को हटाने और विकास दर में गिरावट को रोकने के लिए ठोस फैसले लिए बगैर बात बनने वाली नहीं है। इससे इंकार नहीं कि आर्थिक विकास दर में गिरावट का एक बड़ा कारण अंतरराष्ट्रीय आर्थिक परिदृश्य भी है, लेकिन केवल वैश्विक माहौल को दोष देना सच्चाई से मुंह मोड़ना है। आर्थिक विकास में अनेक बाधाएं सिर्फ इसलिए खड़ी हो गई हैं, क्योंकि केंद्र सरकार फैसले लेने के बजाय हाथ पर हाथ रखे बैठी हुई है। नीतिगत फैसले लेने में अनावश्यक देरी का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह है कि निवेश के प्रति उपयुक्त माहौल का निर्माण भी नहीं हो पा रहा है। सरकार की निर्णयहीनता समस्याओं को बढ़ाने का ही नहीं, बल्कि उन्हें उलझाने का भी काम कर रही है। यह लगभग तय है कि आर्थिक विकास के ताजा आंकड़े बजट तैयार करने में लगे नीति निर्माताओं के लिए चिंता का विषय बनेंगे। आगामी बजट केंद्र सरकार की कठिन परीक्षा लेगा। इस कठिन परीक्षा के लिए वही उत्तरदायी है, क्योंकि उसने अपनी सुस्ती से समस्याओं को कहीं अधिक गंभीर बना दिया है।
साभार :- दैनिक जागरण

संकीर्ण राजनीति का नमूना

शासन में बदलाव किस तरह राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में फेरबदल का कारण बनता है, इसका एक और प्रमाण है उच्चतम न्यायालय की ओर से केंद्र सरकार को दिया गया यह निर्देश कि वह नदियों को जोड़ने की परियोजना को समयबद्ध तरीके से लागू करे। उच्चतम न्यायालय की ओर से इस परियोजना को राष्ट्रहित में बताए जाने के बाद केंद्र सरकार की ओर से इस बारे में स्पष्टीकरण दिया जाना चाहिए कि इसे ठंडे बस्ते में क्यों डाला गया? यदि उसने इस परियोजना से सिर्फ इसलिए मुंह फेरा, क्योंकि उसे विरोधी दल की सरकार अर्थात राजग ने शुरू करने की सोची थी तो इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं हो सकता। ऐसा लगता है कि सत्ता में बैठे लोग राष्ट्रहित से अधिक महत्व दलगत हित को देते हैं। यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर किसी को यह बताना चाहिए कि 2004 में इस परियोजना पर विराम क्यों लग गया? क्या केंद्र सरकार यह अहसास करेगी कि संकीर्ण राजनीति के फेर में उसने आठ वर्ष बर्बाद कर दिए? यदि संप्रग सरकार ने नदी जोड़ो परियोजना की उपेक्षा नहीं की होती तो इन आठ वर्षो में इस परियोजना का एक बड़ा हिस्सा पूरा किया जा सकता था। अब न केवल नए सिरे से शुरुआत करनी होगी, बल्कि बढ़ी हुई लागत भी वहन करनी पड़ेगी। कोई भी समझ सकता है कि यह बढ़ी हुई लागत अरबों रुपये में होगी। नदी जोड़ो परियोजना को आगे बढ़ाने संबंधी उच्चतम न्यायालय का निर्देश एक तरह से केंद्र सरकार के कामकाज और साथ ही रवैये पर प्रतिकूल टिप्पणी है। ऐसा इसलिए आसानी से कहा जा सकता है, क्योंकि शीर्ष अदालत ने इस परियोजना के क्रियान्वयन के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन भी कर दिया है। यह निराशाजनक है कि उच्चतम न्यायालय को वह काम करना पड़ रहा है जो मूलत: केंद्रीय सत्ता को करना चाहिए था। विडंबना यह है कि यह पहला ऐसा मामला नहीं जिसमें न्यायपालिका ने कार्यपालिका को उसके अधिकार और कर्तव्य की याद दिलाई हो। इसके पहले भी अन्य अनेक मामलों में न्यायपालिका को कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र में दखल देना पड़ा है। बात चाहे काले धन के Fोतों का पता लगाने और उसे वापस लाने की हो अथवा सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने की-दोनों ही मामले ऐसे थे जिसमें न्यायपालिका के हस्तक्षेप की कहीं कोई आवश्यकता नहीं थी, लेकिन उसे मजबूरी में ऐसा करना पड़ा। यदि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग राष्ट्रहित के सवालों पर संकीर्ण राजनीति और साथ ही कमजोर इच्छाशक्ति का परिचय देंगे तो वे कर्तव्य पालन में हीलाहवाली के उदाहरण ही पेश करेंगे। हालांकि नदी जोड़ने की परियोजना को बेरोकटोक आगे बढ़ाने के लिए उच्चतम न्यायालय ने जो उच्चाधिकार प्राप्त समिति गठित की है उसमें जल संसाधन, वन एवं पर्यावरण, वित्त मंत्रालय के साथ-साथ योजना आयोग के सदस्य भी शामिल किए गए हैं, लेकिन इस सबके बावजूद इसके प्रति सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता कि यह परियोजना तेजी से आगे बढ़ सकेगी। ऐसा तभी हो सकता है जब केंद्र सरकार और साथ ही राज्य सरकारें इस परियोजना को अमल में लाने के लिए वास्तव में प्रतिबद्ध दिखेंगी।
साभार :- दैनिक जागरण

दंगों के दस साल बाद

गोधरा कांड के बाद हुए दंगों की दुखद स्मृतियों से बाहर निकलकर गुजरात को नई विकास गाथा रचते देख रहे हैं अरुण जेटली
हर दंगा अपने पीछे गहरे जख्म छोड़ जाता है। यह समाज को विभाजित कर देता है और जन्म के आधार पर लोगों का ध्रुवीकरण कर देता है। प्रत्येक नागरिक समाज को इस प्रकार के सामाजिक तनाव से खुद को मुक्त करना होगा। दुर्भाग्य से गुजरात में लंबे समय से दंगों का इतिहास रहा है। गुजरात में आखिरी बड़ा दंगा 2002 में हुआ था। ऐसे में गुजरात दंगों का पुनरावलोकन करने के साथ-साथ यह देखना भी महत्वपूर्ण है कि दंगों के दस साल बाद गुजरात आज कहां खड़ा है? इस दशक में गुजरात दंगों से मुक्त रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि 2002 की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं फिर कभी न दोहराई जाएं। आज गुजरात का एजेंडा सामाजिक विभाजन का नहीं है। आज इसका लक्ष्य विकास, नागरिकों के जीवनस्तर में सुधार और विश्व के सफलतम समाजों से होड़ लेना है। गुजराती 2002 की स्मृतियों से उबरना चाहते हैं। इन दंगों की याद वे लोग ताजा कर रहे हैं जो अतीत की दुखद स्मृतियों को प्रासंगिक बनाए रखना चाहते हैं। 27 फरवरी, 2002 को साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे नंबर एस-6 में लगाई गई आग एक बर्बर हरकत थी। इस घटना को देश में सांप्रदायिक माहौल खराब करने की नीयत से कुछ शैतानी तत्वों ने अंजाम दिया था। इससे पूरा समाज चकित रह गया। बहुत से लोग प्रतिशोध की अग्नि में जलने लगे। हिंसा इतनी व्यापक हो गई कि राज्य के सुरक्षा बंदोबस्त नाकाफी सिद्ध हुए। दंगों से निपटने के लिए सेना बुलाई गई। इस हिंसा में बहुत से निर्दोष मारे गए। दर्जनों लोग पुलिस फायरिंग में मारे गए। इसकी तुलना 1984 में सिख विरोधी दंगों से करें तो दंगाइयों से निपटने में पुलिस की निष्कि्रयता सामने आती है। गुजरात दंगों में हजारों आरोप-पत्र दाखिल हुए, बहुत से लोगों को दोषी ठहराया गया, कुछ मामले अभी भी लंबित हैं। बहुत से महत्वपूर्ण मामलों की न्यायपालिका निगरानी कर रही है। भारत में अब तक किसी भी दंगे में इतने आरोपपत्र दाखिल नहीं किए गए और इतने लोगों को दोषी नहीं ठहराया गया, जितना गुजरात दंगे में। दूसरी ओर 1984 के सिख विरोधी दंगों में नाममात्र के आरोपपत्र दाखिल किए गए। यहां तक कि सिखों की हत्याओं पर पीयूसीएल की रिपोर्ट को भी प्रतिबंधित कर दिया गया। इन दंगों में मीडिया ने चुप्पी साधे रखी और न्यायपालिका निष्कि्रय रही। गुजरात के राजनीतिक नेतृत्व, खासतौर पर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को नेतृत्व की गंभीर परीक्षा से गुजरना पड़ा। क्या वह गोधरा और गोधरा के पश्चात के हालात के लिए जिम्मेदार हैं? बहुत से लोग मोदी के खिलाफ माहौल बनाए रखना चाहते हैं। मोदी और गुजरात सरकार उनके द्वारा खड़ी की गई बहुत सी बाधाओं को पार कर चुके हैं। तमाम परेशानियों के बावजूद राज्य ने अभूतपूर्व विकास किया। गुजरात की विकास दर दोहरे अंकों में पहुंच गई। राज्य में 24 घंटे बिजली आती है। नर्मदा परियोजना के कारण सूखाग्रस्त इलाकों में पानी पहुंच गया है। लालफीताशाही पर लगाम लग गई है। भ्रष्टाचार में कमी आई है और विश्वस्तरीय सड़कों का जाल बिछ गया है। इसके कारण घरेलू और अंतरराष्ट्रीय निवेशक गुजरात की और आकृष्ट हुए हैं। आज विश्व गुजरात को उसकी विकास गाथा और जबरदस्त आर्थिक संभाव्यता के कारण जानता है। इस विकास का लाभ प्रदेश के निचले तबके तक पहुंचा है। राज्य के बढ़ते राजस्व से अनेक सामाजिक कल्याण और गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। गुजरात के हिंदू और मुसलमान, दोनों ही इस विकास के भागीदार हैं। अनेक अध्ययनों से पता चलता है कि गुजरात के मुसलमानों की आर्थिक स्थिति देश के अन्य भागों के मुसलमानों की अपेक्षा बेहतर है। पिछले दस वर्षो में गुजरात बदल चुका है और यह कुछ एनजीओ और कांग्रेस पार्टी को रास नहीं आ रहा है। गुजरात के बदले रूप से उनकी राजनीति को लाभ नहीं पहुंचता। इसलिए उनके लिए यह जरूरी है कि गुजरात की दंगाग्रस्त राज्य की छवि को जिंदा रखा जाए। राजनीतिक रूप से वे हार रहे हैं। कांग्रेस चुनाव में नरेंद्र मोदी को हरा नहीं सकती इसलिए वह उन्हें सत्ता से बेदखल करने के लिए नए हथकंडे अपना रही है। कांग्रेस की शुरुआती रणनीति थी कि मीडिया के एक वर्ग का इस्तेमाल करते हुए नरेंद्र मोदी के खिलाफ अफवाहें, झूठफरेब और कुप्रचार किया जाए। वर्षो तक एक भयावह कहानी सुनाई जाती रही कि दंगाइयों ने क्या-क्या किया। यह पूरी कहानी गढ़ी हुई थी। दंगों में संलिप्तता के संबंध में गुजरात पुलिस को नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला। अदालत में विशेष जांच दल के लिए याचिका दाखिल की गई। गुजरात पुलिस के विशेष जांच दल को भी मोदी के खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं मिला। इसके बाद सीबीआइ के पूर्व अधिकारियों का जांच दल बनाया गया। मीडिया की खबरों से संकेत मिल रहा है कि उसमें भी मोदी के खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं है। हर मुठभेड़ फर्जी मुठभेड़ नहीं होती। अन्य राज्यों में यह माना जाता है कि मुठभेड़ जायज है और उसकी जांच राज्य का तंत्र ही करता है। हालांकि गुजरात में मुठभेड़ की जांच करने के कानूनी मापदंड अलग हैं। लश्करे-तैयबा के आतंकियों से संबद्ध एक महिला कार्यकर्ता और उसके कुछ साथी एक पुलिस मुठभेड़ में मारे गए थे। केंद्र सरकार ने इस मुठभेड़ को वास्तविक बताने वाला शपथपत्र वापस ले लिया। लश्करे-तैयबा ने अपनी वेबसाइट में भी उसे अपना कार्यकर्ता बताया है। एक अदालत ने विशेष जांच दल का गठन कर इस मामले की जांच सौंप दी। इस दल में केंद्र सरकार और एनजीओ द्वारा नामित अधिकारियों को शामिल किया गया। ऐसे में इस जांच दल से निष्पक्षता की उम्मीद कैसे रखी जा सकती है। पिछला एक दशक गुजरात सरकार के लिए चुनौतीपूर्ण रहा है। गुजरात में सामाजिक तनाव का इतिहास रहा है, जबकि पिछले दस वर्षों में गुजरात में पूरी शांति रही। गुजरात ने अपने अतीत से पीछा छुड़ाकर आर्थिक विकास के रास्ते पर चलने का प्रयास किया है। गुजरात की त्रासदी यह है कि चूंकि मोदी के विरोधी उन्हें राजनीतिक रूप से नहीं हरा सकते इसलिए वे एनजीओ और मीडिया के एक वर्ग के पीछे छुपकर वार कर रहे हैं। यही उम्मीद की जा सकती है कि न्यायपालिका इस पचड़े से अलग रहे। दोषियों को सजा मिलनी ही चाहिए, किंतु मीडिया में दोषसिद्धि और साक्ष्यों के साथ खिलवाड़ का सिलसिला बंद होना चाहिए। सौहा‌र्द्र और विकास ही सबसे अच्छा इलाज है। गुजरात में दो पक्षों के बीच संघर्ष जारी है। एक गुजरात को 2002 के दौर में खींच कर ले जाना चाहता है और दूसरे का विश्वास है कि यह सदी गुजरात के नाम रहेगी। अब गुजरात के सामने इस नकारात्मक शक्ति से पार पाने की चुनौती है।
(लेखक राज्यसभा में विपक्ष के नेता हैं)
साभार :- दैनिक जागरण