Friday, September 2, 2011

गांधीजी वाली गलती

टीम अन्ना को बुखारी जैसे नेताओं को महत्व देने के बजाय सामान्य मुस्लिम जनता के विवेक पर भरोसा करने की सलाह दे रहे हैं एस। शंकर

दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम बुखारी ने अन्ना के आंदोलन को इस्लाम विरोधी बताया, क्योंकि इसमें वंदे मातरम और भारत माता की जय जैसे नारे लग रहे थे। उन्होंने मुसलमानों को अन्ना के आंदोलन से दूर रहने को कहा। ऐसी बात वह पहले दौर में भी कह चुके हैं, जिसके बाद अन्ना ने अपने मंच से भारत माता वाला चित्र हटा दिया था। दूसरी बार इस बयान के बाद अन्ना के सहयोगी अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी बुखारी से मिल कर उन्हें स्पष्टीकरण देने गए। इन प्रयत्नों में ठीक वही गलती है जो गांधीजी ने बार-बार करते हुए देश को विभाजन तक पहुंचा दिया। जब मुस्लिम जनता समेत पूरा देश स्वत: अन्ना को समर्थन दे रहा है तब एक कट्टर इस्लामी नेता को संतुष्ट करने के लिए उससे मिलने जाना नि:संदेह एक गलत कदम था। अन्ना का आंदोलन अभी लंबा चलने वाला है। यदि इस्लामी आपत्तियों पर यही रुख रहा तो आगे क्या होगा, इसका अनुमान कठिन नहीं। बुखारी कई मांगें रखेंगे, जिन्हें कमोबेश मानने का प्रयत्न किया जाएगा। इससे बुखारी साहब का महत्व बढ़ेगा, फिर वह कुछ और चाहेंगे। बाबासाहब अंबेडकर ने बिलकुल सटीक कहा था कि मुस्लिम नेताओं की मांगें हनुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ती जाती हैं। अन्ना, बेदी और केजरीवाल या तो उस त्रासद इतिहास से अनभिज्ञ हैं या अपनी लोकप्रियता और भलमनसाहत पर उन्हें अतिवादी विश्वास है, किंतु यह एक घातक मृग-मरीचिका है। बुखारी का पूरा बयान ध्यान से देखें। वह अन्ना के आंदोलन को समर्थन देने के लिए और शतरें के साथ-साथ आंदोलन में सांप्रदायिकता के सवाल को भी जोड़ने की मांग कर रहे हैं। इसी से स्पष्ट है कि उन्हें भ्रष्टाचार के विरोध में चल रहे आंदोलन को समर्थन देने की नहीं, बल्कि आंदोलन को इस्लामी बनाने, मोड़ने की फिक्र है। यदि इतने खुले संकेत के बाद भी अन्ना और केजरीवाल गांधीजी वाली दुराशा में चले जाएं तो खुदा खैर करे! जहां एक जिद्दी, कठोर, विजातीय किस्म की राजनीति की बिसात बिछी है वहां ऐसे नेता ज्ञान-चर्चा करने जाते हैं। मानो मौलाना को कोई गलतफहमी हो गई है, जो शुद्ध हृदय के समझाने से दूर हो जाएगी। जहां गांधीजी जैसे सत्य-सेवा-निष्ठ सज्जन विफल हुए वहां फिर वही रास्ता अपनाना दोहरी भयंकर भूल है। कहने का अर्थ यह नहीं कि मुस्लिम जनता की परवाह नहीं करनी चाहिए, बल्कि यह कि मुस्लिम जनता और उनके राजनीतिक नेताओं में भेद करना जरूरी है। मुस्लिम जनता तो अपने आप में हिंदू जनता की तरह ही है। अपने अनुभव और अवलोकन से आश्वस्त होकर वह भी अच्छे और सच्चाई भरे लोगों और प्रयासों को समर्थन देती है। बशर्ते उसके नेता इसमें बाधा न डालें। रामलीला मैदान और देश भर में मुस्लिम भी अन्ना के पक्ष में बोलते रहे, किंतु मुस्लिम नेता दूसरी चीज होते हैं। वे हर प्रसंग को इस्लामी तान पर खींचने की जिद करते हैं और इसके लिए कोई दांव लगाने से नहीं चूकते। हालांकि बहुतेरे जानकार इसे समझ कर भी कहते नहीं। उलटे दुराशा में खुशामद और तुष्टीकरण के उसी मार्ग पर जा गिरते हैं जिस मार्ग पर सैकड़ों भले-सच्चे नेता, समाजसेवी और रचनाकार राह भटक चुके हैं। इस्लामी नेता उन्हें समर्थन के सपने दिखाते और राह से भटकाते हुए अंत में कहीं का नहीं छोड़ते। बुखारी ने वही चारा डाला था और अन्ना की टीम ने कांटा पकड़ भी लिया। आखिर अन्ना टीम ने देश भर के मुस्लिम प्रतिनिधियों में ठीक बुखारी जैसे इस्लामवादी राजनीतिक को महत्व देकर और क्या किया? वह भी तब जबकि मुस्लिम स्वत: उनके आंदोलन को समर्थन दे ही रहे थे। एक बार बुखारी को महत्व देकर अब वे उनकी क्रमिक मांगें सुनने, मानने से बच नहीं सकते, क्योंकि ऐसा करते ही मुस्लिमों की उपेक्षा का आरोप उन पर लगाया जाएगा। बुखारी जैसे नेताओं की मांगे दुनिया पर इस्लामी राज के पहले कभी खत्म नहीं हो सकतीं यही उनका मूलभूत मतवाद है। दुनिया भर के इस्लामी नेताओं, बुद्धिजीवियों की सारी बातें, शिकायतें, मांगें, दलीलें आदि इकट्ठी कर के कभी भी देख लें। मूल मतवाद बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा। रामलीला मैदान में वंदे मातरम के नारे लगने के कारण बुखारी साहब भ्रष्टाचार विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन से नहीं जुड़ना चाहते, यह कपटी दलील है। सच तो यह है कि सामान्य मुस्लिम भारत माता की जय और वंदे मातरम सुनते हुए ही इसमें आ रहे थे। वे इसे सहजता से लेते हैं कि हिंदुओं से भरे देश में किसी भी व्यापक आंदोलन की भाषा, प्रतीक और भाव-भूमि हिंदू होगी ही जैसे किसी मुस्लिम देश में मुस्लिम प्रतीकों और ईसाई देश में ईसाई प्रतीकों के सहारे व्यक्त होगी। लेकिन इसी से वह किसी अन्य धमरंवलंबी के विरुद्ध नहीं हो जाती। 1926 में श्रीअरविंद ने कहा था कि गांधीजी ने मुस्लिम नेताओं को जीतने की अपनी चाह को एक झख बना कर बहुत बुरा किया। पिछले सौ साल के कटु अनुभव को देख कर भी अन्ना की टीम को फिर वही भूल करने से बचना चाहिए। उन्हें सामान्य मुस्लिम जनता के विवेक पर भरोसा करना चाहिए और उनकी ठेकेदारी करने वालों को महत्व नहीं देना चाहिए। यदि वे देश-हित का काम अडिग होकर करते रहेंगे तो इस्लामवादियों, मिशनरियों की आपत्तियां समय के साथ अपने आप बेपर्दा हो जाएंगी। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111720093369017640

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