Friday, September 2, 2011

न्यायिक सुधार

न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक के लिए विधि एवं न्याय मामलों की स्थायी समिति की सिफारिशें सामने आने के बाद देखना यह है कि उन्हें किस हद तक स्वीकृति मिलती है? यह प्रश्न इसलिए, क्योंकि कुछ सिफारिशें व्यापक बहस की मांग करती हैं। स्थायी समिति के अनुसार न्यायाधीशों को फैसले से पहले टिप्पणियां करने से रोकने की जरूरत है। पहली नजर में यह सिफारिश सही नजर आती है, क्योंकि कई बार न्यायाधीशों की टिप्पणियों से जो कुछ ध्वनित होता है वह उनके फैसले में नजर नहीं आता। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब न्यायाधीशों को अपनी टिप्पणियों के आधार पर छपी खबरों और उनके कारण समाज में निर्मित हुई धारणा को लेकर स्पष्टीकरण देना पड़ा है, लेकिन यदि ऐसे प्रसंगों के चलते स्थायी समिति यह चाहती है कि न्यायाधीश फैसले से पहले टिप्पणी ही न करें तो इससे मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। यह संभव नहीं कि न्यायाधीश चुपचाप सुनवाई करते रहें। वादी-प्रतिवादी की ओर से दलीलें देते समय कई बार ऐसे मौके आते हैं जब न्यायाधीशों के लिए टिप्पणी करना आवश्यक हो जाता है। बेहतर होगा कि स्थायी समिति की इस सिफारिश के संदर्भ में खुद न्यायाधीशों से विचार-विमर्श किया जाए ताकि ऐसा कोई रास्ता निकाला जा सके जिससे फैसले के पहले की उनकी टिप्पणियों से भिन्न निष्कर्ष न निकले। वैसे भी स्थायी समिति का उक्त सुझाव कुछ ऐसा संकेत कर रहा है जैसे न्यायाधीशों पर अनावश्यक अंकुश लगाने की कोशिश हो रही है। हालांकि समिति के अध्यक्ष ने इस संदर्भ में सफाई दी है, लेकिन उससे सब कुछ स्पष्ट नहीं होता। विधि एवं न्याय मंत्रालय की स्थायी समिति ने न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक के लिए जो अन्य सिफारिशें की हैं उन पर अमल समय की मांग है, क्योंकि एक ओर जहां न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर सवाल उठ रहे हैं वहीं दूसरी ओर आम जनता को यह संदेश भी जा रहा है कि भ्रष्ट न्यायाधीशों के खिलाफ कार्रवाई करना टेढ़ी खीर हो गया है। यह ठीक नहीं कि न्यायाधीशों की नियुक्ति वे खुद करें। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में न्यायपालिका के बाहर के लोगों को शामिल करने से पक्षपात की आशंका से भी निजात मिलेगी और पारदर्शिता भी बढ़ेगी। नि:संदेह यह भी समय की मांग है कि न्यायाधीशों के लिए संपत्ति की घोषणा का कोई प्रभावी तंत्र बने और साथ ही उनके खिलाफ शिकायतों की सुनवाई भी नीर-क्षीर ढंग से हो। यह समय बताएगा कि न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक कब तक कानून का रूप ले सकेगा और वह उन सभी समस्याओं का समाधान कर सकेगा या नहीं जिनसे आज न्यायपालिका दो-चार है, लेकिन संसद और सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस विधेयक का उद्देश्य न्यायिक तंत्र में पारदर्शिता लाने के साथ-साथ उसे और सक्षम बनाना ही होना चाहिए, न कि न्यायिक सक्रियता पर अंकुश लगाना। न्यायिक सुधारों के नाम पर ऐसा कुछ भी नहीं होना चाहिए जिससे न्यायपालिका की स्वायत्तता पर अंकुश लगे। अब जब न्यायिक सुधारों का चक्र आगे बढ़ता नजर आ रहा है तब फिर सरकार को यह भी देखना होगा कि अन्य क्षेत्रों में सुधार में और देरी न हो। उसे इसकी अनुभूति होनी ही चाहिए कि राजनीतिक और प्रशासनिक सुधारों में देरी से खुद उसकी और देश की भी समस्याएं बढ़ रही हैं।
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111720034371095096

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