Monday, December 12, 2011

रामायण के कुपाठ की जिद

रामायण पर एके रामानुजन के लेख को दिल्ली विवि के पाठ्यक्रम में फिर शामिल करने की कोशिश को अनुचित ठहरा रहे हैं एस. शंकर

पहले मेनी रामायन्स और अब थ्री हंडरेड रामायण! क्या कारण है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर एवं अन्य अनेक बुद्धिजीवी केवल रामायण के भिन्न कथन पढ़ाने की जिद करते रहे हैं? वे कुरान के बारे में भिन्न ऐतिहासिक विवरण, व्याख्या पढ़ाने का विचार नहीं करते। कुरान के बारे में भिन्न ऐतिहासिक व्याख्याएं विश्व-प्रसिद्ध शोधकर्ताओं ने दी हैं। उनमें अनेक मुस्लिम प्रोफेसर ही हैं। जबकि रामायण के बारे में भिन्न कथन का सारा दावा सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है। उस पर कोई ऐतिहासिक शोध नहीं है। इसका सबसे ठोस प्रमाण स्वयं एके रामानुजन का वह निबंध ही है, जिसे अभी दिल्ली विश्वविद्यालय की इतिहास पाठ्य-सूची से हटाया गया और जिसे बनाए रखने के लिए सारे वामपंथी नारेबाजी कर रहे हैं। एके रामानुजन स्वयं न इतिहासकार थे, न संस्कृत विद्वान। उनके निबंध में भी इस दावे का कोई प्रमाण नहीं कि वाल्मीकि की कथा रामायण की कई कथाओं की तरह एक कथा है और इसे मूल रचना नहीं कहा जा सकता। यह निबंध कुछ कथ्य, किंवदंतियों तथा सुनी-सुनाई बातों का स्वैच्छिक मिश्रण है। उसका कोई अकादमिक मूल्य नहीं हो सकता, क्योंकि इतिहास की सामग्री श्चोत-प्रमाणित होती है। फिर भी पढ़ाने के लिए उस निबंध का चयन वामपंथी प्रोफेसरों ने इसलिए किया ताकि एक महान हिंदू ग्रंथ पर कीचड़ उछाला जा सके। अत: स्वाभाविक है कि उस निबंध के पाठ्य-सूची से हटने पर वे विद्वत-तर्क देने के बदले हटाने वालों पर ही कीचड़ उछाल रहे हैं। यदि उस निबंध में इतिहास कहलाने लायक श्चोत-सामग्री होती, तो वामपंथी इतिहासकारों ने विशेष रुचि लेकर उसे विस्तारित करने और करवाने का काम किया होता। यही शोध कार्य विश्वविद्यालयों में होता है। किंतु हमारे वामपंथी लंबे समय से दो विदेशी लेखकों पौला रिचमैन, वेंडी डौनीजर और एक रामानुजन पर ही क्यों टिके रहे? इसीलिए कि उनके कुत्सित निष्कर्षो को पुष्ट करने के लिए कोई ठोस ऐतिहासिक सामग्री नहीं है। किंतु चूंकि यह निष्कर्ष हिंदू-विरोधी राजनीति को पसंद हैं, इसलिए उसी निबंध को पाठ्यक्रम में रखकर वामपंथी अपना काम निकालते रहना चाहते हैं। रामानुजन लिखित इस निबंध में दावा है कि वाल्मीकि रामायण के मूल रचयिता नहीं थे, और कई रामायण हैं जिनमें भिन्न कथन हैं। यानी वाल्मीकि से भिन्न। जैसे, सीता रावण की बेटी थी, लक्ष्मण की सीता पर कुदृष्टि थी, आदि। इसलिए संयोग नहीं कि जो प्रोफेसर इस निबंध को पाठ्यक्रम में रखना चाहते हैं, इसके लिए कोई विद्वत तर्क नहीं देते। एक ओर वे वाइस चांसलर को गणित प्रोफेसर होने के कारण इतिहास विषय को न समझने का संकेत करते हैं, पर दूसरी ओर साफ छिपाते हैं कि रामानुजन भी कोई इतिहासकार नहीं थे। तब उनके ही तर्क से पाठ्यक्रम में इस निबंध को रखने का कारण संदिग्ध हो जाता है। इसे इसीलिए रखा गया था ताकि विद्यार्थियों में रामायण के प्रति उपहास का भाव पैदा हो। हुआ केवल इतना है कि उस निबंध को स्तरहीन मानकर पाठ्यक्रम से हटाया गया है। हटाने का काम भी विश्वविद्यालय की विद्वत-परिषद ने ही किया। इस लेख को पाठ्यक्रम में फिर से शामिल करने वाले प्रोफेसरों से कुरान के बारे में पूछ कर देख लें। ऐतिहासिक दृष्टि से कुरान रामायण से बाद की रचना है। एक विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक और अधिक प्रभावशाली, सामयिक भी। वर्तमान प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि कुरान की ऐतिहासिकता संबंधी कई विद्वानों के विविध कथन वास्तव में मौजूद हैं। इस पर दर्जनों अकादमिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। कुरान पर पुस्तक लिखने वाले विद्वानों में कई मुस्लिम भी हैं जो मुस्लिम देशों और यूरोपीय विश्वविद्यालयों में प्रतिष्ठित पदों पर रहे हैं। क्या हमारे इतिहास प्रोफेसर कुरान के बारे में विविध कथनों को पाठ्य-सामग्री में लेने में रुचि दिखाएंगे? कुरान के बारे में ये विविध कथन कोई सुनी-सुनाई या गल्प कथा नहीं, बल्कि प्रामाणिक दस्तावेजों और पुरातात्विक खोजों पर आधारित विद्वत शोध है। अत: रामायण और कुरान के प्रति हमारे इतिहास प्रोफेसरों की दृष्टि की तुलना प्रासंगिक है। वे वाल्मीकि रामायण को धार्मिक पुस्तक मानते हैं या ऐतिहासिक? यदि यह ऐतिहासिक पुस्तक है, तो क्या कारण है कि इसे किसी पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया गया? पर यदि रामायण को वे धार्मिक पुस्तक मानते हैं, तब क्यों इसके बारे में ऊल-जुलूल टिप्पणियों को खोज-खोज कर पढ़ाने की जिद ठानते है? रामायण के बारे में अन्य कथन के नाम पर केवल गंदगी जमा की गई है, यह कोई भी देख सकता है। वह भी अप्रमाणिक। अन्य कथन के अंतर्गत कोई अन्य कथा नहीं दी गई, केवल विचित्र, अपमानजनक और स्वयं रामानुजन के शब्दों में धक्का पहुंचाने वाली टिप्पणियां एकत्र की गई हैं। इस प्रकार, रामायण के बारे में वैसी चुनी या गढ़ी अन्योक्तियां पढ़ाने का पूरा मकसद ही है धक्का पहुंचाना। किस को धक्का पहुंचाना? इस प्रकार, दिल्ली वाले वामपंथी प्रोफेसर वाल्मीकि रामायण को धार्मिक और साहित्यिक, दोनों ही मानते हैं। मगर दोनों स्थितियों में केवल उसकी हेठी करने के लिए! रामायण धार्मिक है, इसलिए वे उसे अपने सेक्यूलर पाठ्यक्रम में नहीं रख सकते! पर जब हिंदू देवी-देवताओं के बारे में कुत्सा फैलानी हो तो वही रामायण उनके लिए साहित्यिक रचना हो जाती है। इसी उद्देश्य से रामानुजन का निबंध पाठ्य-सूची में रखा गया था। अन्यथा उस में कोई साहित्यिक, ऐतिहासिक या विद्वत मूल्य नहीं है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
saabhar:-dainik jagran

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