Friday, September 2, 2011

अद्भुत और ऐतिहासिक

यह ऐतिहासिक ही नहीं अद्भुत भी है कि जनता के प्रबल आग्रह पर तैयार एक प्रस्ताव पर संसद में न केवल बहस हुई, बल्कि उसे पारित भी किया गया। नि:संदेह ऐसा करने के लिए जनता का भारी दबाव था और उसके साथ एक समय सीमा भी नत्थी थी, लेकिन बावजूद इस सबके इससे संसद का मान बढ़ा और यह भी साबित हुआ कि वह जनता की आकांक्षाओं की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है। इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि संसद ने जनता की आवाज सुनी, लेकिन अब जब लोकपाल का हिस्सा बनने वाले तीन प्रस्तावों पर मुहर लग गई तब राजनीतिक दलों को इस पर विचार करना होगा कि ऐसी नौबत क्यों आई कि देश की जनता को अपने नए नायक अन्ना हजारे के नेतृत्व में सड़कों पर उतरना पड़ा और तमाम नेताओं के घरों को घेरने के लिए विवश होना पड़ा? विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में आम जनता को न्याय पाने के लिए इस रास्ते पर क्यों चलना पड़ा? ये वे प्रश्न हैं जिनके उत्तर सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों को देने ही होंगे? यह अन्ना हजारे का काम नहीं था कि वे जनता को भ्रष्टाचार से निजात दिलाने के लिए एक उपाय लेकर सड़कों पर उतरते, लेकिन उन्हें इसके लिए बाध्य होना पड़ा। उनकी इस बाध्यता में समस्त राजनीतिक नेतृत्व की असफलता छिपी है। क्या पक्ष-विपक्ष के नेताओं को यह अहसास हो पा रहा है कि जनता के वोट लेकर उसे उसके हाल पर छोड़ देना उसके साथ किया जाने वाला विश्वासघात है? यदि जनता को अपने छले जाने का अहसास नहीं होता तो वह इस तरह सड़कों पर क्यों उतरती-और वह भी उन अन्ना हजारे के नेतृत्व में जिन्हें कुछ महीने पहले तक महाराष्ट्र के बाहर कुछ ही लोग जानते थे। देश के नेताओं को यह समझ लेना चाहिए कि वे भाड़े की भीड़ अथवा पैसे के बल पर नेता नहीं बन सकते। असली नेता तो अन्ना हजारे हैं। संसद जिस तरह जनता के आग्रह को मानने के लिए मजबूर हुई उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है। संसद के दोनों सदनों में लोकपाल संबंधी अन्ना हजारे के तीन प्रस्तावों पर बहस के दौरान भ्रष्टाचार पर तो खूब भाषण हुए, लेकिन किसी भी नेता ने यह स्वीकार नहीं किया कि राजनीति में भ्रष्टाचार किस तरह बेरोकटोक बढ़ता जा रहा है। कोई भी नेता यह कहने का साहस नहीं जुटा सका कि आज प्रत्येक राजनीतिक दल भ्रष्ट तौर-तरीकों से संचालित हो रहा है और उसके चलते ही भ्रष्टाचार ने सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में अपनी जड़ें जमा ली हैं। राजनीति भ्रष्टाचार का न केवल एक बड़ा Fोत है, बल्कि उसकी संरक्षक भी है। यदि राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के मूल कारणों पर आत्ममंथन करने के लिए तैयार नहीं होते तो उन्हें आगे चलकर वैसे ही प्रचंड जन आंदोलन का फिर से सामना करना पड़ सकता है जैसे आंदोलन से वे दो-चार हुए और यदि ऐसा हुआ तो राजनीति पूरी तरह प्रतिष्ठाहीन हो सकती है। उन्हें सचेत हो जाना चाहिए, क्योंकि यह एक तथ्य है कि लोकपाल संस्था के गठन मात्र से भ्रष्टाचार पर पर्याप्त अंकुश नहीं लगने वाला। भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण के लिए राजनीति को साफ-सुथरा होना ही होगा। वह राजनीति न तो खुद का भला कर सकती है और न ही देश का जो भ्रष्ट तौर-तरीकों से संचालित हो रही हो।
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111719708969005496

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