Friday, September 2, 2011

समाज के आगे सिमटती सियासत

भारतीय राजनीति को इतना खौफजदा, बदहवास और चिढ़ा हुआ पहले कब देखा था? सियासत तो यही माने बैठी थी कि सारे पुण्य-परिवर्तनों के लिए राजनीतिक दल जरूरी हैं और देश की अगुआई का पट्टा सिर्फ सियासी पार्टियों के नाम लिखा है, मगर स्वयंसेवी संगठनों (सिविल सोसाइटी) के पीछे सड़क पर आए लाखों लोगों ने भारत की राजनीतिक मुख्यधारा को कोने में टिका दिया। अन्ना के आंदोलन से सियासत को काठ मार गया और नेता ग्यारह दिन बाद संसद में ही बोल पाए। संसद की बहस क्या, सियासत की बेचैनी की बेजोड़ नुमाइश थी। हर नेता मानो कह देना चाहता था कि यह अचानक क्या हो गया, जनादेश की ताकत तो उनके पास है। लीक में बंधी और जड़ों से उखड़ी राजनीति एक गैर-राजनीतिक आंदोलन के साथ जनसमर्थन देखकर भौंचक थी। अन्ना के आंदोलन ने राजनीति की पारंपरिक डिजाइन को सिर के बल खड़ा कर दिया है। नेताओं और राजनीतिक चिंतकों को अपने चश्मों से धूल पोंछ लेनी चाहिए। इस आंदोलन के दौरान तर्क उभरे थे कि अन्ना हजारे बदलाव चाहते हैं तो उन्हें चुनाव जीतकर संसद में आना चाहिए अर्थात बदलाव के लिए सत्ता हथियाना जरूरी है, मगर पूरी दुनिया में सिविल सोसाइटी की सियासत तो सत्ता बदले बिना व्यवस्था बदलने पर ही आधारित है। जनता को यह नई सूझ समझ में भी आती है, क्योंकि दशकों से लोकशाही देख रहे लोग संसदीय लोकतंत्र के पैटर्न से वाकिफ हैं जहां राजनीतिक दल सिर्फ सत्ता के लिए लड़ते हैं। बड़े बदलावों की मुहिम के लिए संसदीय लोकतंत्र अनिवार्य हैं, मगर तेज परिवर्तन के लिए, कुर्सी लपकने और कुर्सी खींचने के इस बोरियत भरे खेल से बाहर निकलना जरूरी है। सिविल सोसाइटी ने लोगों की इस ऊब को पकड़ा और उन मुद्दों पर मुहिम शुरू की, राजनीतिक दल जिन्हें छूना ही नहीं चाहते। नागरिक अधिकारों, न्याय और सामाजिक विकास की दुनियावी लड़ाई, सियासी दल नहीं छोटे-बड़े स्वयंसेवी संगठन लड़ते हैं। इसलिए यह गैर राजनीतिक और गैर सरकारी मोर्चा पूरी दुनिया में लोगों को भा रहा है। भारत की सियासत से दो टूक सवाल पूछे जा सकते हैं। हमारे यहां लोगों को साक्षर व शिक्षित बनाने की लड़ाई कौन सी पार्टी लड़ रही है। पीडि़तों को न्याय दिलाने की मुहिम किसके हाथ है। पर्यावरण बचाने में कौन सा सियासी दल आगे है। आदिवासी हितों की जंग किस राजनीतिक दल के एजेंडे पर है। आम लोग किसी भी मुद्दे में राहुल गांधी की अचानक इंट्री से प्रभावित नहीं होते। उन्हें मालूम है कि निजी कंपनी के खिलाफ नियामगिरी के आदिवासियों की लड़ाई स्वयंसेवी संगठनों ने लड़ी और सुप्रीम कोर्ट से न्याय लिया। दिल्ली की आबोहवा को सियासत ने नहीं स्वयंसेवी संगठनों की मुहिम ने दुरुस्त किया। कोई सियासी पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं लड़ती। भारत में राजनीतिक दल विकास व न्याय के मुद्दों पर संसद में कायदे से चर्चा भी नहीं करते। इसलिए जनता को यह राजनीति चिढ़ाती है और जब उन्हें सियासत में भ्रष्टाचार भी दिखता है तो यह चिढ़ गुस्से में बदल जाती है। लोकपाल पर बहस के दौरान स्वयंसेवी संगठनों को बिसूर रहे नेता कुछ अंतरराष्ट्रीय सच्चाइयों को नकार रहे थे। आर्थिक उदारीकरण के बाद दुनिया ग्लोबल गवर्नेस की तरफ मुड़ी है। डब्लूटीओ, ओईसीडी, विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र, आसियान, आइएमएफ, एडीबी, जी20 जैसे संगठन हर देश की नीतियों को प्रभावित करते हैं। यह बहुपक्षीय संस्थाएं राजनीतिक दलों को नहीं, बल्कि सिविल सोसाइटी को हमसफर बना रही हैं, क्योंकि सियासत सत्ता से बाहर नहीं सोच ही नहीं सकती। सीधी लड़ाई से लेकर सरकारों को प्रभावित करने और छोटे-छोटे मुद़दों को ग्लोबल मंचों तक ले जाने में सक्षम सिविल सोसाइटी दुनिया की राजनीति का नया चेहरा है, जो भारत की परंपरा व परिवारवादी सियासत को नहीं दिखता। बर्न डिक्लेयरेशन (स्विस स्वयंसेवी संगठन समूह) और शेरपा (अफ्रीकी एनजीओ) नाइजीरिया, अंगोला, कांगो, सिएरा लियोन, गैबन के भ्रष्ट शासकों की लूट को स्विस व फ्रेंच बैंकों से निकलवाकर वापस इन देशों की जनता तक पहुंचा देते हैं। वीगो व एसडीआइ जैसे संगठन भारत के घरों में काम करने वाली महिलाओं और झुग्गी बस्ती वालों का दर्द दुनिया के मंचों तक ले जाते हैं। इसी असर व कनेक्ट के चलते नई राजनीति पारंपरिक राजनीति पर भारी पड़ रही है। भारत की सियासत आज भी महानायकों के खुमार में है। आजादी के बाद के राजनीतिक दशक भले ही करिश्माई व्यक्तित्वों ने गढ़े हों, लेकिन अब जनता के पास तजुर्बे हैं, जो करिश्मों पर भारी पड़ते हैं। अन्ना का आंदोलन अलग इसलिए था, क्योंकि अन्ना कतई गैर करिश्माई स्वयंसेवी हैं, उन्होंने लोगों को नहीं जोड़ा, बल्कि लोग खुद उनसे जुड़ गए है। स्वयंसेवी संगठनों में भ्रष्टाचार के सवाल छोटे नहीं है, लेकिन उनके बहाने बदलाव को नकारना खुद को धोखा देना है। हमारे नेताओं को रेत से सिर निकाल कर इस नई सियासत का मर्म समझना चाहिए। स्वयंसेवी संगठन उनकी पारंपरिक जमीन पर ही उग रहे हैं, क्योंकि उनकी उंगलियां जनता की नब्ज से फिसल गई हैं। एक असंगत चुनाव व्यवस्था के सहारे संसद तक पहुंचना अलग घटना है और जनता के भरोसे पर राजनीति करना एक दूसरा ही परिदृश्य है। अन्ना के आंदोलन ने देश की सियासत को जनादेश और जनसमर्थन का फर्क कायदे से समझा दिया है। भारत के सियासी दल उम्मीदों की राजनीति में बुरी तरह असफल हैं। (लेखक दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख हैं)

साभार:-दैनिक जागरण

http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111719963571198888

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