Friday, September 2, 2011

भ्रष्टाचार का दायरा

अन्ना हजारे के आंदोलन का मकसद इस अर्थ में पूरा हो गया कि भ्रष्टाचार के विरोध में राष्ट्रीय चेतना बनी। वैसे लोग भी मैं अन्ना हूं् मुद्रित टोपी पहन कर घूम रहे हैं जो जनलोकपाल विधेयक के बारे में शायद ही कुछ जानते हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनता में इतना व्यापक आक्रोश है, इसका अनुमान सरकार को नहीं था, किंतु अन्ना की उंगलियां जनता की नब्ज पर थीं। संघर्ष तथा आंदोलन का व्यापक अनुभव उनके पास था। इसलिए बाबा रामदेव की तरह वह गिरफ्तारी से भयभीत नहीं हुए। बाबा रामदेव ने जहां नैतिक दुर्बलता का परिचय दिया वहीं अन्ना ने नैतिक साहस दिखाया, किंतु अन्ना के साथ भी एक संकट है कि वे कुछ व्यक्तियों द्वारा बंदी बना दिए गए हैं और उन्हें किसी से न तो बात करने और न ही मिलने दिया जाता है। अन्ना की टीम द्वारा पेश विधेयक में न सिर्फ निजी क्षेत्र को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा गया है, बल्कि उनकी टीम के सदस्य सरकारी विधेयक में गैर-सरकारी संगठन को शामिल किए जाने का भी विरोध कर रहे हैं। प्रशांत भूषण एक टीवी चैनल पर एक बहस के बीच कह रहे थे कि कारपोरेट सेक्टर को लोकपाल के दायरे में इसलिए शामिल नहीं किया जा सकता, क्योंकि भ्रष्टाचार की परिभाषा निजी लाभ के लिए सरकारी पद का दुरुपयोग है, किंतु परिस्थितियां बदलने पर कानून में संशोधन की आवश्यकता होती है। आज आर्थिक उदारीकरण के जमाने में निजी क्षेत्रों की भूमिका इस कदर बढ़ गई है कि स्वास्थ्य सेवाओं से लेकर शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए आम आदमी को निजी क्षेत्र की शरण में जाना पड़ रहा है। कारपोरेट अस्पतालों में लोगों को इस तरह लूटा जा रहा है कि मामूली बीमारियों में भी लाखों का बिल बनता है और कई बार तो परिजनों को शव सौंपने के लिए बकाए लाखों रुपये के भुगतान की शर्त रखी जाती है। इसी तरह निजी विद्यालयों की ट्यूशन फीस एवं अन्य मदों में मोटी रकम वसूली जाती है और कई बार तो प्रवेश के लिए मोटी रिश्वत देनी पड़ती है। अगर निजी क्षेत्र को बाहर रखने का तर्क यह है कि उसके लिए अलग कानून हैं तो फिर सरकारी भ्रष्टाचार के नियंत्रण के लिए भी भ्रष्टाचार निरोधक कानून है। एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि मंत्रियों एवं सरकारी पदाधिकारियों को भ्रष्ट करने में कारपोरेट सेक्टर की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भ्रष्टाचार की क्या परिभाषा हो, इस पर पूरे विश्व में कोई मतैक्य नहीं है। कई विद्वान इस मत के हैं कि इसे परिभाषित करने का प्रयास निरर्थक है। इसलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन 2003 में भ्रष्टाचार शब्द तो कई जगह आया है, किंतु इसे कहीं परिभाषित नहीं किया गया है। हालांकि इसमें घूसखोरी, मनी लांड्रिंग, सत्ता के दुरुपयोग एवं हेराफेरी को भ्रष्टाचार की श्रेणी में रखा गया, इससे बहुराष्ट्रीय निगमों, व्यापारिक घरानों एवं गैर-सरकारी संगठनों जैसे निजी क्षेत्रों का बाहर रखा गया है। इसे बाहर रखने के पीछे मुख्य तर्क यह दिया जाता है कि सरकारी भ्रष्टाचार शासन के लिए चुनौती पैदा करता है और न्याय तक जनता की पहुंच को रोकता है, जिससे मानवाधिकार प्रभावित होता है, जबकि निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार से यह खतरा पैदा नहीं होता। इसके विपरीत एशियाई विकास बैंक ने भ्रष्टाचार में निजी क्षेत्रों की भूमिका को भी पहचाना है। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए इसने कई कार्यक्रम बनाए हैं। 1998 से ही इसकी भ्रष्टाचार विरोधी नीति में यह स्पष्ट किया गया है कि एक संस्था के रूप में वह उस बोझ को कम करना चाहती है जो एशिया-प्रशांत क्षेत्र की सरकारों एवं अर्थव्यवस्थाओं में भ्रष्टाचार के कारण पैदा होता है। विश्व बैंक के विपरीत एशियाई विकास बैंक ने निजी क्षेत्र को भ्रष्टाचार से लड़ने में शामिल किया है। इसलिए इसके अनुसार, भ्रष्टाचार सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों के अधिकारियों का वह व्यवहार है जिसमें वे अनुचित तथा अवैध तरीके से धनार्जन करते हैं तथा/या वे लोग जो उनके निकट हैं, उन्हें लाभ पहुंचाते हैं या अपने पद के दुरुपयोग से दूसरों को ऐसा करने के लिए प्रलोभन देते हैं। यह भ्रष्टाचार की ज्यादा समावेशी परिभाषा है। आज निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इसके लिए कानून में आवश्यक संशोधन करने होंगे। साथ ही सरकारी भ्रष्टाचार में भी ऊंचे तथा नीचे पदों के विरुद्ध कार्रवाई का प्रावधान भेदभावपूर्ण है। बडे़ अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई में सबसे बड़ी बाधा है अपराध प्रक्रिया विधान अर्थात सीआरपीसी की धारा 197 तथा भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा 19। अंग्रेजों के द्वारा बनाए गए कानून में जो भेदभाव किया गया था वह स्वाधीन भारत में अभी भी लागू है। भ्रष्टाचार निरोधक कानून के संदर्भ में केंद्र सरकार ने एकल निर्देश जारी किया था, जिसके अनुसार संयुक्त सचिव एवं उससे ऊपर के अधिकारियों के विरुद्ध मुकदमा बिना पूर्वानुमति के नहीं चलाया जाएगा। उच्चतम न्यायालय ने इसे विनीत नारायण मामले में खारिज कर दिया, किंतु संसद ने इसे कानून बनाकर बहाल कर दिया। इसके अलावा यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कोई अधिकारी यदि अपना काम न करे और इससे किसी को नुकसान होता है या उसके प्रति अन्याय होता है तो इसे षड्यंत्र मानकर भ्रष्टाचार के आरोप में उसे दंडित किया जाना चाहिए। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111720034371222056

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