एक सक्षम और कारगर लोकपाल के लिए अनशन पर बैठकर देश को हिला देने वाले अन्ना हजारे की इस गर्जना पर हलचल मचनी ही थी कि अब अन्य अनेक समस्याओं के साथ चुनाव सुधार भी उनके एजेंडे पर होंगे। यह उचित ही है कि चुनाव सुधारों के संदर्भ में उनकी ओर से उठाए गए मुद्दों पर बहस शुरू हो गई है। यह बहस गति पकड़नी चाहिए, क्योंकि भ्रष्टाचार के मूल में खर्चीली होती चुनावी राजनीति है। यह एक तथ्य है कि बड़ी संख्या में उम्मीदवार चुनाव लड़ने के लिए तय राशि से कहीं अधिक धन खर्च करते हैं। अब तो मतदाताओं के बीच रुपये बांटकर चुनाव जीतने की कोशिश की जाने लगी है। आम तौर पर यह धन अवैध तरीके से अर्जित किया जाता है। दरअसल इसी कारण कालेधन के कारोबार पर अंकुश लगाने के लिए कोई ठोस पहल नहीं हो रही है। चुनाव प्रक्रिया को काले धन से मुक्त करने के लिए तरह-तरह के सुझाव सामने आ चुके हैं। इनमें से एक सुझाव यह है कि चुनाव खर्च का वहन सरकारी कोष से हो। अभी हाल में राहुल गांधी ने भी यही सुझाव दिया, लेकिन निर्वाचन आयोग को भय है कि इससे समस्या और विकराल हो जाएगी। मुख्य चुनाव आयुक्त इस सुझाव को इसलिए खतरनाक विचार मानते हैं, क्योंकि उन्हें आशंका है कि तब उम्मीदवार सरकारी कोष से मिले धन के साथ-साथ अपने धन का भी इस्तेमाल करेंगे। इस आशंका को निराधार नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह भी एक वास्तविकता है कि चुनाव खर्च की सीमा में प्रस्तावित वृद्धि भी समस्या का समाधान करती नहीं दिखती। चुनाव सुधार के अन्य अनेक मुद्दों पर भी अलग-अलग राजनीतिक दलों और विशेषज्ञों के भिन्न-भिन्न विचार हैं। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने और उम्मीदवारी खारिज करने के मामले में दोनों राष्ट्रीय दलों-कांग्रेस और भाजपा के विचार अलग-अलग हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति अन्य अनेक मुद्दों पर भी है। इन स्थितियों में बेहतर यह होगा कि चुनाव सुधारों को लेकर जो बहस शुरू हुई है उसे गति प्रदान की जाए ताकि उसे अंजाम तक पहुंचाया जा सके। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि एक लंबे अर्से से चुनाव सुधार अटके पड़े हुए हैं। नि:संदेह इसके लिए राजनीतिक दल ही जिम्मेदार हैं। वे उन मुद्दों पर भी एक मत नहीं हो पा रहे हैं जो अपेक्षाकृत कम जटिल हैं। चुनाव आयोग एक अर्से से यह मांग कर रहा है कि जिन लोगों के खिलाफ अदालत ने आरोप तय कर दिए हैं उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति न दी जाए, लेकिन राजनीतिक दल इसके लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। वे प्रत्याशियों के चयन में मतदाताओं को किसी तरह की भागीदारी देने के लिए तैयार नहीं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल चुनाव सुधारों के संदर्भ में आम सहमति कायम न करने पर सहमत हैं। चुनाव सुधारों के संदर्भ में अंतहीन खोखली चर्चा का कोई मतलब नहीं। बेहतर हो कि राजनीतिक दल मौजूदा माहौल को समझें और चुनाव सुधारों की दिशा में आगे बढ़ें, क्योंकि भ्रष्टाचार की तरह से आम जनता इसे भी लंबे अर्से तक सहन करने वाली नहीं कि देश को दिशा देने वाली राजनीति अनुचित साधनों पर आश्रित हो। जब राजनीति ही साफ-सुथरी नहीं होगी तो फिर वह देश का भला कैसे कर सकेगी?
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111719963571205512
Friday, September 2, 2011
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment