Friday, September 2, 2011

कांग्रेस के तीन तिगाड़े

अन्ना आंदोलन से निपटने में सरकार की फजीहत का जिम्मेदार कांग्रेस नेताओं के दंभ को बता रहे हैं ए। सूर्यप्रकाश

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान संप्रग सरकार की साख पर लगा बट्टा और इसकी दयनीय दशा के जिम्मेदार वे तीन वकील से राजनेता बने व्यक्ति हैं, जिन्होंने बड़े दंभ से लोकतांत्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन किया और राष्ट्रव्यापी आक्रोश को भड़काया। ये तीनों अकसर टीवी चैनलों पर उग्र तेवरों के साथ दिखाई देते रहे हैं। अगर अगस्त के उत्तरार्ध में सरकार में शामिल लोग सिरकटे मुर्गो की तरह इधर-उधर दौड़ रहे थे, तो इसका कारण था सत्तारूढ़ गठबंधन के टीवी शेरों- कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम और मनीष तिवारी के कारनामे। पिछले एक साल के दौरान एक के बाद एक घोटाले उजागर होने के बावजूद सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी और इसने किसी भी भ्रष्टाचारी के खिलाफ कार्रवाई करने की इच्छा नहीं दिखाई। अगर पूर्व संचार मंत्री ए राजा और राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी जेल में गए तो इसका श्रेय उच्चतम न्यायालय की कड़ी निगरानी को जाता है। सरकार घोटालेबाजों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रही थी और ये तीनों नेता भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार की निष्कि्रयता का बचाव करते फिर रहे थे। हैरत की बात यह है कि शुरू से ही मनमोहन सिंह और उनके साथी बड़ी ढिठाई से अपना काम करते रहे जैसे इन घटनाओं का सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि अगला लोकसभा चुनाव मई 2014 में होना है। भ्रष्टाचार को लेकर राष्ट्रीय आक्रोश के संदर्भ में सरकार और कांग्रेस पार्टी के गलत आकलन का यही एक कारण है। अगस्त 2010 से देश का मूड बदलने लगा था जब राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार की खबरें आनी शुरू हुई थीं। भ्रष्टाचार के साथ-साथ समय पर परियोजनाएं पूरी न होने से पूरे विश्व में भारत की भद पिटी थी। अभी लोग राष्ट्रमंडल घोटाले को हजम भी नहीं कर पाए थे कि 2जी स्पेक्ट्रम का पिटारा खुल गया। जब नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया कि तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा ने राष्ट्रीय खजाने को 1।76 लाख करोड़ रुपये की चपत लगा दी है तो लोगों को जबरदस्त झटका लगा। फिर भी सरकार बड़ी निर्लज्जता से घोटाले से ही इनकार करती रही। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर अनेक कांग्रेसी नेताओं ने दलील दी कि भ्रष्टाचार के इन आरोपों को बढ़ाचढ़ाकर पेश किया गया है। इन्होंने हैरानी जताई कि मीडिया इन मुद्दों को इतना तूल क्यों दे रहा है। कपिल सिब्बल जैसे कुछ मंत्रियों ने जो समाचार चैनलों के स्टुडियो में बैठकर लोकप्रियता के हवाई घोड़े पर सवार हो जाते हैं, बड़े घमंड से न केवल सीएजी जैसे संवैधानिक संस्थानों पर सवाल उठाए, बल्कि मीडिया को भी नहीं बख्शा। कपिल सिब्बल ने हास्यास्पद बयान जारी किया कि 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में सरकारी खजाने को एक पैसे का भी नुकसान नहीं हुआ। यह कहकर उन्होंने इस सिद्धांत को पुष्ट ही किया कि राजनीतिक सत्ता अकसर सच्चाई से कट जाती है। ऐसा उन लोगों के साथ होता है जो मंत्री बनते हैं, किंतु कपिल सिब्बल जिस तेजी से फिसले वह हैरान करने वाला है। जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे के पहले अनशन के बाद कानून मंत्री वीरप्पा मोइली मंत्रियों और सिविल सोसाइटी प्रतिनिधियों की संयुक्त समिति के संयोजक थे, फिर भी मीडिया से बात कपिल सिब्बल ही करते थे। उनकी प्रेस वार्ताओं से स्पष्ट होता गया कि बातचीत सिरे नहीं चढ़ रही है। इस समिति के कुछ सदस्यों ने यहां तक महसूस किया कि कपिल सिब्बल द्वारा खड़े किए गए विवादों के कारण ही समिति किसी सार्थक नतीजे पर नहीं पहुंची। टीम अन्ना के प्रस्तावों पर सरकार को कुछ गंभीर असहमतियां थीं और इनमें कुछ सही भी थीं। उदाहरण के लिए, सरकार प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में नहीं लाना चाहती थी। सरकार के बाहर भी बहुत से लोगों और संस्थानों की यही राय है। किंतु हर कोई चाहता था कि सरकार अन्ना आंदोलन की भावना को समझे और इसकी सराहना करे। दुर्भाग्य से सरकार ने जिन प्रवक्ताओं को चुना, उनमें लोकतांत्रिक तौरतरीकों का अभाव था, जो जनता के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के लिए जरूरी थे। उनकी अपराजेयता की कल्पना कर बहुत से कांग्रेस नेताओं और केंद्रीय मंत्रियों ने अन्ना के प्रस्तावित अनशन से पहले ही उन पर हमला बोल दिया। क्योंकि वे सालभर से ऐसे लोगों का बचाव करने में लगे थे, जो बचाव के काबिल नहीं हैं, इसलिए वे नागरिकों के मूल लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन करते हुए अन्ना हजारे के चरित्र हनन का दुस्साहसिक प्रयास करने में जुट गए। लोगों को मनीष तिवारी का विषवमन कि अन्ना हजारे तो सिर से लेकर पैर तक भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, घिनौना लगा। उन्होंने यहां तक कहा कि अन्ना हजारे के प्रति काफी सहनशीलता दिखाई जा चुकी है। कोई भी राजनेता किसी नागरिक के बारे में इस तरह नहीं बोल सकता। उन्होंने अन्ना टीम को फासीवादी और माओवादी तक करार दिया। इसी के साथ कपिल सिब्बल ने कुटिलता से सरकार को संसद के समान रखते हुए दावा किया कि अन्ना का सत्याग्रह संसद विरोधी है। उन्होंने और उनके साथियों ने दलील रखी कि अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन संविधान के प्रति खतरा है। इन तर्को से इंदिरा गांधी द्वारा जयप्रकाश नारायण के 1974-77 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के खिलाफ लगाए गए आरोपों की याद ताजा हो गई। कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम और मनीष तिवारी को सुनते हुए लगा कि इतिहास खुद को दोहरा रहा है। दिल्ली पुलिस ने अन्ना को अनशन के लिए छोटे पार्क की पेशकश करते हुए 22 शर्ते थोप दीं। फिर पी चिदंबरम ने लोगों को जैसे उकसाते हुए घोषणा की कि अन्ना को सत्याग्रह के लिए स्थान मुहैया कराने के लिए शर्ते लगाना दिल्ली पुलिस का विषय है। केवल वह मंत्री ही ऐसे बयान जारी कर सकता है जो जनता को मूर्ख समझता हो कि वह इस प्रकार की बचकानी दलील पर यकीन कर लेगी। पर जल्द ही हमें पता चल गया कि इन तीनों नेताओं का प्रेरणाश्चोत कौन है। प्रधानमंत्री ने बड़े तिरस्कार के साथ अन्ना को सलाह दी कि वह स्थल और शर्ते तय करने के लिए दिल्ली पुलिस से संपर्क करें। तब 16 अगस्त को पी चिदंबरम ने भयावह घोषणा की कि शांतिभंग के अंदेशे में अन्ना को गिरफ्तार किया गया। आखिरकार, सरकार तब ही हालात पर कुछ काबू कर पाई जब टीवी के इन तीनों शेरों को पिंजरे में बंद कर दिया गया और अपेक्षाकृत गंभीर व संयत नेताओं को टीम अन्ना से बातचीत के लिए आगे किया। इन तीन चेहरों के प्रति जनता की चिढ़ के कारण ही सरकार ने छोटे परदे पर इनकी अनुपस्थिति को सुनिश्चित किया। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111720093369020952

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