Friday, September 2, 2011

भ्रष्टाचार की बुनियाद

भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए चुनाव सुधार की प्रक्रिया तेज करने की जरूरत बता रहे हैं जसवीर सिंह

जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि भ्रष्ट राजनेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों के बीच मिलीभगत है। राजनेताओं को चुनाव लड़ने के लिए पैसा चाहिए। नौकरशाही राजनेताओं के भ्रष्टाचार में उनका साथ देकर उपकृत होती है। इस पूरी कवायद में अगर किसी को खामियाजा भुगतना पड़ता है तो ईमानदार करदाता और आम आदमी। अब जेपी के समय के हालात बद से बदतर हो चुके हैं। हमारी संसद में आपराधिक मामलों के आरोपी 162 सांसदों की उपस्थिति ने अधिकांश लोगों की नजर में संसद को हॉल ऑफ शेम बना दिया है। सांसदों द्वारा दिए गए शपथपत्रों के अनुसार 15वीं लोकसभा के 76 सांसद हत्या, दुष्कर्म, डकैती, अपहरण जैसे जघन्य अपराधों में आरोपी हैं। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि कैबिनेट मंत्रियों में से नौ के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। इन लोगों पर ही देश की आंतरिक और वाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी है। क्या हम ऐसे राजनेताओं में भरोसा कायम कर सकते हैं जिनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और चरित्र न केवल संदेहास्पद है, बल्कि आपराधिक भी है? क्या यह हमारे संवैधानिक और लोकतांत्रिक ढांचे को प्रभावित नहीं कर रहा है? क्या लोकतंत्र को तुच्छ विघटनकारी गठबंधन राजनीति और निहित स्वार्थो की भेंट चढ़ा देना चाहिए? आज नागरिक भ्रष्टाचार से मुक्ति पाने के लिए लोकपाल के मुद्दे पर आंदोलित हैं। ऐसे में लंबे समय से चुनाव प्रक्रिया में लंबित सुधारों पर ध्यान दिया जाना चाहिए, जो सभी भ्रष्टाचारों की जननी है। भारत में निर्वाचन प्रक्रिया से नैतिक मूल्यों का लोप हो गया है। मतदाताओं के बजाय असामाजिक तत्व चुनाव का भाग्य तय करते हैं। राजनीतिक ताकत हासिल करने के लिए बाहुबल और धनबल की जरूरत पड़ती है। अगर आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग विधायिका में भेजे जाएंगे तो कुछ बेहतर की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसके लिए मुख्य रूप से राजनीतिक दल ही जिम्मेदार हैं। तुच्छ राजनीतिक लाभ के लिए वे कुख्यात अपराधियों को अपने प्रतिनिधि के तौर पर विधायिका में भेजने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। वे समाज को क्षेत्रवाद, जातिवाद, पंथवाद के मुद्दों पर विभाजित करते हैं। चुनाव सुधार की पहली आवश्यकता यह है कि चुनाव तंत्र में धनबल पर रोक लगाई जाए। उद्योगपति और अन्य धनवान लोग चुनाव में मोटा चंदा देते हैं और बाद में राजनेताओं से अपनी शर्तो पर नीतियां बनवाते हैं। राजनेताओं और राजनीतिक दलों को गैरकानूनी रूप से चंदा दिया जाता है। इस प्रकार चुनावों के माध्यम से राजनीतिक भ्रष्टाचार लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा रहा है। मात्र चेक से चंदा लेने का नियम बनाया जाना चाहिए। इसके अलावा, बेहद कम मत प्रतिशत के आधार पर चुनाव जीतने से भी लोकतंत्र का मखौल उड़ता है। 2007 में देवरिया क्षेत्र से दीनानाथ कुशवाहा मात्र 7।3 प्रतिशत वोट पाकर ही उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुन लिए गए। 13वीं संसद में 99 फीसदी सांसद ऐसे थे, जिन्हें 50 फीसदी वोट नहीं मिले थे। 10-15 फीसदी वोट हासिल कर चुनाव जीतने वालों की संख्या 7-8 प्रतिशत थी। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि कम से कम 50 प्रतिशत वोट हासिल करने वाले उम्मीदवार को ही विजेता घोषित किया जाए। देश में औसतन 50 प्रतिशत लोग ही अपने मतदान का इस्तेमाल करते हैं। प्लूटो ने कहा था-जो सरकार के गठन में भागीदारी नहीं करते वे दुष्टों द्वारा शासित किए जाएंगे। इस परंपरा को तोड़ने के लिए अनिवार्य मतदान की व्यवस्था लागू की जानी चाहिए। 2009 में लोकसभा में अनिवार्य मतदान को लेकर एक बिल पेश किया गया था। इस कदम से निश्चित तौर पर मतदाताओं की संख्या में वृद्धि होगी। इसके तहत मतदान न करने वाले पर अर्थदंड के साथ-साथ दो दिनों की जेल का भी प्रावधान होना चाहिए। इस समय विश्व में 33 देश ऐसे हैं, जहां अनिवार्य मतदान का प्रावधान है। गलत तत्वों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए। बहुत से उम्मीदवार नामांकन पत्र में अपनी शैक्षिक योग्यता, संपत्तियों और आपराधिक रिकॉर्ड के कॉलम खाली छोड़ देते हैं। रिटर्निग ऑफिसर को ऐसे नामांकन पत्रों को सख्ती से निरस्त करने के निर्देश देने की आवश्यकता है। अगर इन कॉलम को भरने के नियम का सख्ती से पालन किया जाता तो वर्तमान लोकसभा के 130 सांसदों का चुनाव न हो पाता। तमिलनाडु में हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों और आंध्र प्रदेश में उपचुनाव के दौरान भारी मात्रा में नोट पकड़े गए थे। इस रकम का इस्तेमाल मतदाताओं को घूस देने के लिए किया जाना था। इस मामले में चुनाव आयोग को दोषी उम्मीदवार का नामांकन रद करना चाहिए था, लेकिन इसने ऐसा कुछ नहीं किया और इस घटना की तरफ से आंखें मूंद लीं। मुख्य चुनाव आयुक्त का पद राजनीतिक हितसाधन की पूर्ति नहीं बनना चाहिए। जो अधिकारी सरकार की तरफदारी करते हैं उन्हें ऐसे पदों पर स्थापित कर दिया जाता है, जहां से उनके पिछले काले कारनामों का दंड मिलने से उनका बचाव हो जाता है। इस पद के लिए नियुक्ति सरकार के हाथों से बाहर होनी चाहिए। प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और मुख्य न्यायाधीश की एक कमेटी चुनाव आयुक्त की नियुक्ति कर सकती है। वोट के लिए नोट कांड में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद दिल्ली पुलिस ने तीन सांसदों के खिलाफ एफआइआर दाखिल की है। ऐसे मामलों में चुनाव आयोग को मूकदर्शन बने रहने के बजाए दोषी सांसदों व विधायकों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। मतदाता सूची बनाने का काम भी निष्पक्ष और उचित तरीके से होना चाहिए। यह काम भारत के चुनाव आयुक्त की निगरानी में होना चाहिए। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव से पहले ही मतदाता सूची को पंचायत/वार्ड स्तर पर सार्वजनिक स्थानों पर चस्पा कर देना चाहिए और कमियों को समय से दूर करना चाहिए। भारतीय दंड संहिता के तहत दोषी व्यक्ति को ताउम्र चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर देना चाहिए। राजनेताओं के खिलाफ दर्ज मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट या विशेष अदालतों में होनी चाहिए और एक साल के भीतर इन पर अंतिम फैसला आ जाना चाहिए। जन प्रतिनिधित्व एक्ट 1951 की धारा 8 की उपधारा 4 में तत्काल संशोधन किया जाना चाहिए। राजनेताओं पर नियमित निगरानी लोकतंत्र की सफलता के लिए बेहद जरूरी है। अन्यथा जॉर्ज वाशिंगटन की उक्ति चरितार्थ हो जाएगी कि हम उन भेड़ों से अलग नहीं हैं जिन्हें काटने की तैयारी की जा रही है। (लेखक आइपीएस अधिकारी हैं और लेख में दिए गए विचार उनके निजी हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111719681669024264

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