Friday, September 2, 2011

नए संघर्ष की शुरुआत

जनलोकपाल आंदोलन को कांग्रेस के अलोकतांत्रिक आचरण के खिलाफ संघर्ष का आगाज मान रहे हैं बलबीर पंुज

अंतत: जननायक अन्ना हजारे और उनके साथ जुड़े करोड़ों भारतीयों के प्रबल समर्थन के कारण कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को अपनी अधिनायकवादी मानसिकता त्यागने के लिए मजबूर होना पड़ा। सरकार अन्ना हजारे द्वारा जनभावनाओं के अनुरूप सुझाए गए तीन बिंदुओं-जनशिकायत व सिटिजन चार्टर, राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति और निचले स्तर की नौकरशाही को लोकपाल कानून के दायरे में लाने पर सहमत हो गई है। भारतीय जनतंत्र में यह जन की तंत्र पर निश्चित विजय है। लोकपाल संस्था के निर्माण का रास्ता भले साफ हो गया हो, किंतु संप्रग-2 के रहते क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई प्रभावी कदम उठाए जा सकते हैं? अभी हाल की ही तीन घटनाएं लीजिए। वामपंथी दलों द्वारा समर्थन वापस लिए जाने के कारण 22 जुलाई, 2008 को सरकार को सदन में विश्वास मत हासिल करना था। तब भाजपा के तीन सांसदों-अशोक अर्गल, फगन सिंह कुलस्ते और महावीर भगोरा ने सदन में नोटों की गड्डियां दिखाते हुए नोट फोर वोट कांड का खुलासा किया था। विपक्षी दलों के दबाव में मामले की जांच के लिए कृष्णचंद्र देव समिति गठित की गई, जिसने अपनी रिपोर्ट में सांसदों को घूस दिए जाने को झूठा बताया। यह विषय दिल्ली पुलिस के पास जांच के लिए आया, किंतु पिछले तीन साल से इस दिशा में कुछ नहीं किया गया। हाल में न्यायालय का चाबुक पड़ने के बाद दिल्ली पुलिस हरकत में आई, किंतु इससे सत्ता में होते हुए कांग्रेस द्वारा संवैधानिक निकायों के दुरुपयोग की पुष्टि भी हुई है। जिन लोगों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई, उन्हें ही आरोपी बना दिया गया। इस कांड का खुलासा करने में अहम भूमिका निभाने वाले सुधींद्र कुलकर्णी को भी कठघरे में खड़ा किया गया है। वोट के लिए नोट के सूत्रधार अमर सिंह तो मुखौटा मात्र हैं। इसके असली लाभार्थियों के बारे में दिल्ली पुलिस खामोश है। नोट के बदले वोट संप्रग सरकार बचाने के लिए था। फिर सरकार पापमुक्त कैसे हो गई? ऐसे तंत्र पर जनता का विश्वास कैसे रहे? अपने क्षुद्र राजनीतिक लाभों के लिए संवैधानिक निकायों के दुरुपयोग का नवीनतम उदाहरण आंध्र प्रदेश और गुजरात से है। आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी के पुत्र जगनमोहन रेड्डी ने जब से कांग्रेस से किनारा कर अलग पार्टी बनाई है, वह कांग्रेस की आंखों में चुभ रहे हैं। कांग्रेस जगनमोहन रेड्डी को कानूनी शिकंजे में कसने की फिराक में है। सीबीआइ द्वारा दर्ज एफआइआर में वाईएसआर रेड्डी और जगनमोहन रेड्डी पर बेनामी संपत्ति जमा करने और भ्रष्टाचार में लिप्त होने का आरोप लगाया है। यदि कांग्रेस भ्रष्टाचार उन्मूलन के प्रति इतनी गंभीर है तो उसने दूसरी बार जनादेश मिलने के बाद वाईएसआर रेड्डी को मुख्यमंत्री क्यों बनाया? इसके विपरीत हमारे सामने देश के सबसे बड़े कर चोर हसन अली का उदाहरण है। वषरें पूर्व आयकर और प्रवर्तन निदेशालय को हसन अली के कारनामों की भनक लग चुकी थी, किंतु राजनीतिक आकाओं ने उसका बाल भी बांका नहीं होने दिया। भाजपा शासित गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति कांग्रेसी अधिनायकवाद का ज्वलंत उदाहरण है। गुजरात की राज्यपाल कमला बेनीवाल ने विगत 25 अगस्त को राज्य सरकार की अनदेखी करते हुए सेवानिवृत्त न्यायाधीश आरए मेहता को गुजरात का लोकायुक्त नियुक्त कर दिया। गुजरात लोकायुक्त अधिनियम, 1986 के अनुसार लोकायुक्त की नियुक्ति से पहले गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और नेता प्रतिपक्ष से मंत्रणा के बाद सरकार मंत्रिमंडल से प्रस्तावित लोकायुक्त का नाम राज्यपाल के पास अनुमोदन के लिए भेजती है। बेनीवाल ने इस पूरी प्रक्रिया की अनदेखी की है। गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति सन 2006 से ही लटकी हुई है। सरकार ने तब सेवानिवृत्त न्यायाधीश क्षितिज आर व्यास को लोकायुक्त के लिए नामित किया था। इस पर आपत्ति करते हुए कांग्रेस ने बैठक का बहिष्कार किया था। बाद में स्वयं कांग्रेस शासित महाराष्ट्र में व्यास को महाराष्ट्र मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। स्पष्ट है कि व्यास से कांग्रेस का कोई वैचारिक मतभेद नहीं था। वह इसे राजनीतिक दृष्टि से देख रही थी। कांग्रेस जनतांत्रिक पार्टी होने का दावा तो करती है, किंतु उसका आचरण अधिनायकवादी और लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है। अन्ना हजारे के अनशन के दौरान कांग्रेस का निकृष्ट चेहरा जनता के सामने उजागर हुआ। पी। चिदंबरम, कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, वीरप्पा मोइली, मनीष तिवारी जैसे वकीलों की टीम भारी पड़ रही है, जो जनतांत्रिक व राजनीतिक समस्याओं को केवल कानूनी चाबुक से सुलझाना चाहते हैं। सरकार और अन्ना के बीच कायम गतिरोध तोड़ने के लिए प्रधानमंत्री द्वारा अन्ना हजारे को दिए गए आश्वासन के बाद सरकार का पलटना और उसके बाद संसद में कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी के भाषण के बाद स्पष्ट हो गया था कि एक सशक्त लोकपाल बिल लाने के लिए सरकार गंभीर नहीं है और वह मामले को लटकाने की फिराक में है। जनाक्रोश जब संसद की देहरी तक जा पहुंचा तो सरकार अपना हठ त्याग कर जनलोकपाल बिल पर चर्चा कराने को तैयार हुई, किंतु वह इस पर मतदान कराने को राजी नहीं हुई। लोकपाल बिल पिछले 42 सालों से लंबित है और इसे संसद में विचार के लिए नौ बार पेश किया जा चुका है। राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में यह अब तक अधर में लटका हुआ था। पिछले कुछ समय से बड़े-बड़े घोटालों के प्रति सरकार की उदासीनता और सत्ता के शिखर स्तर पर तटस्थता के भाव से जनता ऊब चुकी थी। सार्वजनिक धन की लूट पर सीएजी और पीएसी की रिपोर्ट को सरकार ने मानने से इंकार किया। घोटालों का खुलासा करने वाले मीडिया को उसकी कथित अति सक्रियता के लिए लताड़ा गया। विदेशों में जमा काले धन की वापसी को लेकर आंदोलन करने वाले स्वामी रामदेव का पुलिसिया जुल्म के बल पर दमन किया गया। अन्ना हजारे की गिरफ्तारी के बाद जनता का सब्र टूट गया। हद तो तब हो गई, जब संसद में खड़े होकर प्रधानमंत्री ने इन आंदोलनों के पीछे विदेशी तत्वों का हाथ साबित करने की कोशिश की। गत शनिवार को संसद के विशेष सत्र में सर्वानुमति से पारित प्रस्ताव और उसके परिणामस्वरूप अन्ना के 12 दिन पुराने अनशन का टूटना वास्तव में देश को भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था और सुशासन देने की परिणति के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। उपरोक्त घटनाओं से सिद्ध होता है कि सत्ता अधिष्ठान का बदला रवैया उसके हृदय परिवर्तन का नहीं, बल्कि एक रणनीति का हिस्सा था। यह तो संघर्ष का आरंभ है, अंत नहीं। स्वच्छ भारत के लिए वास्तविक समर तो अभी शेष है। (लेखक भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111719873571128216

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