Friday, September 2, 2011

संसद में संकीर्णता

एक कारगर और सक्षम लोकपाल के लिए 11 दिनों से अनशन पर बैठे अन्ना हजारे के तीन सूत्रीय प्रस्ताव पर संसद में बहस न होने से यह साबित हो गया कि सत्तापक्ष के साथ-साथ विपक्ष भी मूल मुद्दे से किनारा कर अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थो को पूरा करने में लगा हुआ है। सत्तापक्ष ने अन्ना हजारे के तीन मुद्दों पर संसद में चर्चा कराने के प्रति न केवल संकेत दिए, बल्कि यह आभास भी कराया कि इसमें कोई परेशानी नहीं, लेकिन जब समय आया तो लोकसभा में प्रस्ताव के बजाय राहुल गांधी प्रकट हो गए। उन्होंने अन्ना हजारे के आंदोलन और लोकपाल पर जिस तरह चुप्पी तोड़ी उससे देश का चकित होना स्वाभाविक है। राहुल गांधी ने अपने जोश भरे लिखित भाषण में यह सही कहा कि एक अकेला लोकपाल भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगा सकता और उसके अतिरिक्त कई अन्य प्रभावकारी उपाय करने होंगे।उनके इस सुझाव की भी सराहना होना लाजिमी है कि लोकपाल चुनाव आयोग की तरह संसद के प्रति जवाबदेह संस्था बने। इसी तरह उनकी यह बात भी सही है कि किसी भी रूप में लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर नहीं होनी चाहिए, लेकिन इन नेक सुझावों के संदर्भ में अहम सवाल यह है कि आखिर वह अभी तक कहां थे? उन्हें अपने विचार व्यक्त करने में इतना समय क्यों लग गया? वह लोकपाल के संदर्भ में अपने सुझावों से अपनी ही सरकार को अवगत क्यों नहीं करा सके? क्या उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि उनकी सरकार लोकपाल विधेयक तैयार कर उसे संसद के इसी सत्र में पेश करने जा रही है? संसद में अपने वक्तव्य के बाद राहुल गांधी ने अपने विचारों को बाजी पलटने वाला बताया, लेकिन उन्हें यह अहसास होना चाहिए कि उन्होंने बाजी पलटने के साथ-साथ उस मुहिम को भी पटरी से उतारने का काम किया है जो अन्ना हजारे ने छेड़ रखी है। उन्होंने अन्ना हजारे को धन्यवाद देते हुए जिस तरह उनके लोकपाल को खारिज किया और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए जो तमाम उपाय सुझाए वे एक लंबी योजना का हिस्सा अधिक हैं। यह निराशाजनक है कि वह उस समस्या के समाधान के बारे में कुछ भी नहीं कह सके जो सरकार और संसद के सिर पर खड़ी है और जिसके चलते आम जनता राजनीतिक नेतृत्व के प्रति अविश्वास से भर उठी है। जब यह सरकार एक कानून नहीं बना पा रही तब फिर इसमें संदेह है कि वह संविधान में संशोधन करके राहुल गांधी के विचारों के अनुरूप लोकपाल संस्था का निर्माण कर सकेगी। राहुल गांधी के वक्तव्य के बाद अन्ना हजारे के प्रस्तावों पर बहस को लेकर जिस तरह विपक्ष ने आपत्ति दर्ज कराई और हंगामा मचाया उससे स्पष्ट हुआ कि वह इस बहस का श्रेय सत्तापक्ष के खाते में दर्ज होता हुआ नहीं देखना चाहता। सत्तापक्ष जिस तरह आधा-अधूरा प्रस्ताव लेकर आया उससे उसके इरादों पर संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। अब जब राजनीति का इतना अधिक जनविरोधी और विकृत रूप सामने आ गया है तब फिर उचित यही होगा कि अन्ना हजारे अपने अनशन का परित्याग करें। वैसे भी उनके लिए यह उचित नहीं कि अपने आग्रह को लेकर अडि़यल रवैया अपनाएं। इसके अतिरिक्त इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उनके लिए अब अपने आंदोलन को संभालना मुश्किल हो रहा है और उन्हें यह संदेह नहीं रह जाना चाहिए कि आम जनता ने भारतीय राजनीति के असली चेहरे की पहचान कर ली है।
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-08-27&pageno=8#id=111719681669065112_49_2011-08-२७
साभार:-दैनिक जागरण

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