Sunday, December 18, 2011

एक साल में तीन धोखे

लोकपाल के मसले पर केंद्र सरकार, विशेषकर कांग्रेस के रवैये को जनता की भावनाओं का निरादर करने वाला मान रहे हैं राजीव सचान

एक साल में तीन धोखे मजबूत लोकपाल के लिए अन्ना का तीसरा अनशन समाप्त हो गया और इसी के साथ उनके आलोचकों को उनके खिलाफ कुछ और कहने को मिल गया। अन्ना के खिलाफ नया कुतर्क यह है कि वह संसद का काम सड़क पर कर रहे हैं। कांगे्रस ने उन पर अधीर होने और संसद का अपमान करने का आरोप भी मढ़ दिया। इसके पहले उन पर गांधीवादी न होने और अनशन का गलत इस्तेमाल करने का आरोप भी लगाया जा चुका है, लेकिन किसी और यहां तक कि सरकार के पास भी इस सवाल का जवाब नहीं है कि उन्हें बार-बार अनशन-आंदोलन करने का मौका क्यों दिया जा रहा है? सरकार ने जब पहली बार लोकपाल विधेयक लाने का फैसला किया था तो उसका मसौदा इतना लचर बनाया था कि किसी ने उसका समर्थन नहीं किया। दरअसल इस मसौदे के जरिये देश को इस साल पहली बार धोखा दिया गया। इस धोखे के कारण ही अन्ना ने अप्रैल में जंतर-मंतर पर धरना दिया। इस धरने के चलते सरकार ने अन्ना की टीम के साथ मिलकर लोकपाल का मसौदा तैयार करने का निर्णय लिया, लेकिन यह कोशिश नाकाम रही और आखिरकार सरकार ने कहा कि वह नए सिरे से लोकपाल का मसौदा खुद तैयार करेगी। उसने ऐसा ही किया, लेकिन यह इस साल देश को दिया जाने वाला दूसरा धोखा था। संसद में कमजोर लोकपाल विधेयक पेश करने के बाद उसे विधि एवं कार्मिक मंत्रालय की स्थायी समिति को सौंप दिया गया। इस विधेयक के प्रावधान और सरकार के इरादे यह बता रहे थे कि मजबूत लोकपाल बनने के आसार नहीं हैं। परिणामस्वरूप अन्ना दूसरी बार अनशन पर बैठे। पहले सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया और फिर जन दबाव के आगे झुकते हुए उन्हें अनशन के लिए मनपसंद जगह-रामलीला मैदान देने को विवश हुई। करीब एक हफ्ते तक अन्ना के अनशन की उपेक्षा करती रही सरकार को जब यह अहसास हुआ कि इससे बात नहीं बनेगी तो वह उनकी तीन मांगों पर संसद में चर्चा कराने के लिए तैयार हुई। इस चर्चा के दौरान बनी सहमति को संसद की भावना का नाम देकर उसे स्थायी समिति को भेज दिया गया। देश ने समझा कि उसकी जीत हुई, लेकिन अन्ना ने यह बिलकुल ठीक कहा था कि अभी आधी जीत हुई है। संसदीय समिति की मानें तो संसद की भावना वह नहीं थी जो देश ने समझा था। उसका यह भी दावा है कि उसने कम समय में बेहतर काम कर दिखाया है। उसे यह कहने में भी संकोच नहीं कि उसका काम किसी को और विशेष रूप से टीम अन्ना को खुश करना नहीं था। उसने किसी को खुश न करने का काम इतने अच्छे ढंग से किया कि विभिन्न मुद्दों पर तीन कांगे्रसी सदस्यों समेत अधिकांश सदस्यों ने उससे असहमति जताई। यह देश को दिया जाने वाला तीसरा धोखा था। यह भांपकर कि मजबूत लोकपाल अभी भी बनने नहीं जा रहा, अन्ना ने एक बार फिर अनशन किया। इस बार उनके मंच पर अनेक विपक्षी नेता भी आए, लेकिन सरकार ने उन्हें कोई भाव नहीं दिया। उलटे इस तरह के आरोप लगाए कि टीम अन्ना के सदस्य अपनी ही चलाने की कोशिश कर रही है और इस कोशिश में संसद को अपमानित भी कर रहे हैं। बावजूद इन आरोपों के सरकार यह संकेत भी दे रही है कि कहीं कुछ गलत हुआ है। उसकी ओर से न केवल सर्वदलीय बैठक बुलाई गई है, बल्कि यह भी कहा जा रहा है कि संसदीय समिति का फैसला अंतिम नहीं। फिलहाल कोई नहीं जानता कि लोकपाल विधेयक का क्या होगा, लेकिन यह स्पष्ट है कि जिस जनता ने कांग्रेस को शासन का अधिकार दिया है वह उसकी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए तैयार नहीं। इसके लिए तरह-तरह के बहाने बनाए जा रहे हैं। जैसे, अभी यह कहा जा रहा है कि कानून संसद में बनते हैं, सड़क पर नहीं वैसे ही पहले यह कहा जाता रहा है कि कानून बनाना नेताओं का काम है और यदि आपको नेताओं का काम पसंद नहीं तो चुनाव लडि़ए और बहुमत हासिल कर मनपसंद कानून बनाइए। इसके बाद अन्ना और उनके साथियों को लक्षि्यत कर कहा गया, अपना आचरण सुधारिए। अन्ना पर गांधीवादी न होने की तोहमत मढ़ने और उनकी भाषा पर एतराज जताने का काम तो न जाने कितनी बार किया गया है। यदि एक क्षण के लिए यह मान लिया जाए कि अन्ना, उनकी टीम और उनके अनशन-आंदोलन में जुटने वाले लोग गांधीवादी नहीं और उनका आचरण भी पाक-साफ नहीं तो क्या इसके आधार पर सरकार एक प्रभावी कानून बनाने से इंकार कर देगी? क्या मजबूत लोकपाल कानून तब बनेगा जब टीम अन्ना और उनके समर्थक मनसा-वाचा-कर्मणा गांधीवादी हो जाएंगे? यदि कल को अन्ना यह कह दें या फिर कोई इसे साबित कर दे कि वह गांधीवादी नहीं तो क्या उन्हें मजबूत लोकपाल की मांग करने का अधिकार नहीं रह जाएगा? यदि देश गांधीवादी हो जाए तो लोकपाल की जरूरत ही क्यों रहेगी? अगर जनता को संसदीय परंपराओं का ज्ञान नहीं तो क्या उसे एक मजबूत लोकपाल कानून से वंचित रखा जाएगा? क्या अन्ना और उनके साथी-समर्थक अलग राज्य या देश की मांग कर रहे हैं? वे तो वही मांग रहे हैं जिसका वायदा पिछले 43 साल में करीब-करीब हर सरकार ने किया है। आखिर सरकार में इतना अहंकार क्यों? क्या वह स्वर्ग से उतरी है अथवा किसी और देश की जनता ने उसे चुना है? यदि लोकतंत्र में जनता की इच्छा सर्वोपरि है जैसा कि सभी कहते हैं तो फिर उसकी इच्छा के अनुरूप काम न करने के लिए इतने जतन क्यों किए जा रहे हैं? आखिर एक साल में एक ही मुद्दे पर तीन बार धोखा देने वाली सरकार किस मुंह से अपने इरादों को नेक बता रही है? (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

संसद पर हमले की दसवीं बरसी

संसद पर हमले की दसवीं बरसी पर इस हमले के दौरान अपने प्राणों की आहुति देकर देश के मान-सम्मान की रक्षा करने वाले सुरक्षा प्रहरियों के परिजनों का यह सवाल आहत करने वाला है कि आखिर आतंकी अफजल को फांसी की सजा कब मिलेगी? इस सवाल से देश के नीति-नियंता भले ही अविचलित बने रहें, लेकिन आम देशवासियों का मस्तक शर्म से झुक जाता है। यह अहसास किसी को भी क्षोभ से भर देने के लिए पर्याप्त है कि देश की अस्मिता को कुचलने की साजिश में शामिल रहे एक आतंकी की सजा पर सिर्फ इसलिए अमल नहीं किया जा रहा है, क्योंकि सत्ता में बैठे कुछ लोगों को अपने वोट बैंक पर विपरीत प्रभाव पड़ने का भय सता रहा है। यह निकृष्ट राजनीति ही नहीं, बल्कि जवानों के शौैर्य और बलिदान का जानबूझकर किया जाने वाला अपमान भी है। लज्जा की बात यह है कि पिछले सात वर्षो से अफजल की सजा पर अमल करने में आनाकानी की जा रही है। यह आतंकियों के समक्ष घुटने टेकना ही नहीं, बल्कि उन्हें प्रोत्साहित करने जैसा भी है। शासन के द्वारा संकीर्ण राजनीतिक कारणों से किसी आतंकी के प्रति ऐसी नरमी की मिसाल मिलना कठिन है। आखिर ऐसी सरकार आतंकवाद से लड़ने का दावा भी कैसे कर सकती है जिसे आतंकियों की सजा पर अमल करने में पसीने छूटते हों? अफजल को उसके किए की सजा न देने के लिए किस्म-किस्म के बहानों से देश आजिज आ चुका है, लेकिन बहाना बनाने वाले अपने काम पर लगे हुए हैं। अफजल की दया याचिका के बारे में लंबे अर्से तक देश को गुमराह करने के बाद अब नया बहाना यह बनाया जा रहा है कि मामला राष्ट्रपति के पास है और संविधान किसी दया याचिका पर फैसले के उद्देश्य से राष्ट्रपति के लिए कोई समयसीमा नहीं तय करता। इस कुतर्क के जरिए देश को यह समझाने की कुचेष्टा हो रही है कि राष्ट्रपति के समक्ष केंद्रीय सत्ता असहाय है। जो सरकार अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों को पूरा करने के लिए विदेश यात्रा पर गए राष्ट्रपति को सोते से जगाने में संकोच न करती हो उसकी ओर से ऐसे बहाने गढ़ना यह बताता है कि उसने खुद को किस हद तक कमजोर बना लिया है। जब नेतृत्व कमजोर होता है तो वह निर्णयहीनता से ही ग्रस्त नहीं होता, बल्कि तरह-तरह के कुतर्को की आड़ भी लेता है। अफजल के मामले में ऐसा ही हो रहा है। जब सरकारें राजनीतिक इच्छाशक्ति से हीन हो जाती हैं तो वे अपनी जगहंसाई से भी बेपरवाह रहती हैं। अफजल की दया याचिका संबंधी फाइल पिछले सात वर्षो से जिस तरह दो-चार किलोमीटर के दायरे में स्थित विभिन्न कार्यालयों में घूम रही है उसे देखते हुए तो ऐसा लगता है कि उसकी सजा पर अमल होने में अभी कई और बरस खप जाएंगे। इसकी आशंका इसलिए भी बढ़ गई है, क्योंकि केंद्रीय सत्ता जहां दिन-प्रतिदिन कमजोर होती चली जा रही है वहीं फांसी की सजा पाए आतंकियों के मामले में राजनीति करने वाले दुस्साहसी होते चले जा रहे हैं। यह लगभग तय है कि जब मुंबई हमले में जिंदा पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकी अजमल कसाब की सजा पर अमल की बारी आएगी तब भी केंद्रीय सत्ता ऐसी ही आनाकानी दिखाएगी। यदि ऐसा नहीं होता तो उसके मामले का अब तक निपटारा हो चुका होता।
साभार:-दैनिक जागरण

दूर खिसकता सपना

राहुल गांधी के नाम एक खुले पत्र में उनसे शासन की खराब दशा पर ध्यान देने की अपेक्षा कर रहे हैं प्रताप भानु मेहता

प्रिय राहुल गांधी यह स्वाभाविक है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव आपकी इस समय सबसे बड़ी व्यस्तता होंगे। इन चुनावों के परिणाम की भविष्यवाणी करना कठिन है, लेकिन यदि आप अच्छा प्रदर्शन करते भी हैं तो क्या भारत के लिए वाकई जश्न मनाने का अवसर होगा? चुनावी सफलता यह प्रदर्शित करेगी कि आप विपक्ष से बेहतर हैं, लेकिन यह आधार अब इतना नीचा हो गया है कि विपक्ष से थोड़ा-बहुत बेहतर होना ही पर्याप्त नहीं हो सकता। 2009 में कांग्रेस को एक ऐसा जनादेश मिला था जो किसी भी राजनीतिक दल की आकांक्षा हो सकती है। उस जनादेश में आशा थी, आकांक्षा थी। विपक्ष-वामपंथ और दक्षिणपंथ संकुचित हो गया था, लेकिन भारत को क्या मिला? उसने अच्छे अवसर को गंवा दिया। भविष्य के लिए मजबूत नींव बनाने में विकास का इस्तेमाल करने तथा इस क्रम में निर्धनता समाप्त करने की कोशिश करने के बजाय हमने विकास की संभावनाओं को सीमित कर दिया। आज हमारे सामने ऊंची मुद्रा स्फीति है, चिंताजनक ऋण है, विकास की दर धीमी हो रही है, मुद्रा की घटती कीमत का संकट है और निवेश में गिरावट हो रही है। क्या आप गंभीरता से यह सोचते हैं कि इस सबका देश के निर्धन वर्ग पर कोई बुरा असर नहीं हो रहा होगा? देश की प्रगति के लिए जिन मुद्दों पर आगे बढ़ने की जरूरत है उनमें तनिक भी काम होता नजर नहीं आता। शासन का केंद्रीकरण अभी स्थायी बना हुआ है। जीएसटी पर कोई गंभीर प्रगति नहीं हो पा रही है। ऊर्जा का संकट बढ़ता जा रहा है। सूचना के अधिकार को छोड़ दिया जाए तो कोई सार्थक प्रशासनिक सुधार नहीं हुआ। इस सब पर राजनीतिक पूंजी के गंभीर निवेश के बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। कुछ राज्यों को छोड़कर कृषि अभी भी घाटे का सौदा बनी हुई है। भ्रष्टाचार अमिट है। जिम्मेदारी और जवाबदेही का अभाव भी एक स्थायी समस्या है। प्रत्येक संस्थान, यहां तक कि प्रधानमंत्री कार्यालय तक भी कमजोर नजर आ रहा है। विवादों और शिकायतों के समाधान के लिए तंत्र की क्षमता पर सवाल बढ़ते जा रहे हैं। संसद में लंबित विधेयकों का अंबार लगता जा रहा है। आपकी सभी पसंदीदा योजनाएं गुजरे हुए कल के साथ संघर्ष कर रही हैं। मनरेगा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। हो सकता है कि आपका दल विरोधियों की तुलना में कुछ बेहतर हो, लेकिन आप खुद को पहचान वाली उस राजनीति से दूर नहीं रख पा रहे हैं जिसने अब तक भारत को छोटा बनाए रखा है। हो सकता है कि यह सब इतना खराब न हो। आखिरकार सात प्रतिशत की दर से विकास हो रहा है, लेकिन इस तथ्य ने आपकी सरकार को आश्चर्यजनक ढंग से आत्मतुष्ट बना दिया है। चिंता के दो कारण हैं। पहला, जैसा कि आप जानते हैं कि पूंजी आधारित विकास में रोजगार की सीमा वैश्विक स्तर पर सिुकड़ रही है। अगर भारत को अपने अनगिनत युवाओं को रोजगार देना है तो कहीं अधिक तेजी से प्रगति करनी होगी। दूसरा, हमें स्वास्थ्य, शिक्षा, बुनियादी ढांचा, शहरों के निर्माण और शोध एवं विकास में कहीं अधिक सहभागिता की जरूरत है। वैश्विक अनिश्चितता के बावजूद यह भारत के लिए बहुत बड़े अवसर का समय है, लेकिन यह मौका हमेशा नहीं रहेगा। अगर हम इस दशक को गंवा देंगे तो हमेशा के लिए गरीबी से अभिशप्त हो जाएंगे। एफडीआइ एक अच्छा विचार हो सकता था, लेकिन विश्वास के अभाव में इसे क्रियान्वित करा पाना आपके लिए संभव न हुआ। सभी को महसूस हुआ कि एफडीआइ सुधारों को दृष्टिगत रखते हुए नहीं लाया गया है। बेहतर होता कि वर्तमान सत्र के बाद यह प्रस्ताव लाया जाता, जबकि आपकी पार्टी की विश्वसनीयता कुछ विधायी उपलब्धियों के बाद बढ़ जाती। भूमि अधिग्रहण बिल भी एक अच्छा कदम था, लेकिन इस पर तेजी से काम करने की बजाय सरकार ने अपनी अनिच्छा ही जाहिर की। आपने लोकपाल को संवैधानिक निकाय बनाने की बात कही-बिना यह जाने कि इसके लिए कितनी कठिन मेहनत और राजनीतिक सहमति की आवश्यकता होगी? राज्यसत्ता के उपयोग के मामले में कांग्रेस काफी निर्दयी रही है। इसी तरह जनजवाबदेही के मामले में वह असंवेदनशीलता और गैर बौद्धिकतावादी विचारों के मामले में पूर्वाग्रह से ग्रस्त दिखती है। हो सकता है कि मायावती एक भ्रष्ट सरकार चला रही हों, लेकिन उन्होंने राज्य को पुर्नगठित करने के दिशा में कम से कम प्रस्ताव लाने का साहस तो दिखाया, जबकि आप बुंदेलखंड की दुर्दशा पर केवल भाषण ही देते नजर आए। तेलंगाना के मसले पर आप पहले से ही संघर्ष करते नजर आ रहे हैं। भारतीय राज्यों का भविष्य आप कहां देखते हैं और इनमें हैदराबाद जैसे बड़े शहरों को आप कहां पाते हैं? आपने अपना ध्यान भारत के गरीबों पर केंद्रित रखा है, लेकिन आप उनका उपयोग अधिक करते नजर आ रहे हैं। भारत के अधिकांश नागरिक अब समझ चुके हैं कि राष्ट्र को सही रूप में खड़ा करना है, परंतु जो बात वह नहीं समझ पाए हैं वह है जनकल्याण के नाम पर बर्बादी, जवाबदेही के नाम पर केंद्रीकरण और नई व्यवस्था के आविष्कार के बदले नौकरशाही की शक्ति का बढ़ना। बजाय इसके कि गरीबी का खात्मा हो आपकी सरकार उन्हें ठगती दिख रही है। भारत को अब अधिक सामाजिक योजनाओं की आवश्यकता है, लेकिन सरकार इन्हें जिस रूप में और जिस अपरिपक्व तरीके से लागू कर रही है उससे इन योजनाओं के लक्ष्यों को हासिल कर पाना संभव नहीं। आपकी पार्टी दो तरह के भ्रमों में फंसी हुई है। पहला यह कि सुशासन और राजनीति दो अलग चीजें हैं और दूसरा यह कि केवल गरीबों के प्रति केंद्रित योजनाएं ही गरीबों का भला कर सकती हैं। आपने गरीबों के नाम पर देश की वृहद अर्थव्यवस्था के ढांचे को तोड़ दिया है और सुशासन के अभाव में गरीबों को भी धोखा दिया है। चालीस की उम्र की हमारी नई पीढ़ी पर एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी है और इससे बचने का कोई सवाल नहीं उठता। पूर्ववर्ती पीढि़यों को बड़ी विषमताओं से जूझना पड़ा है। सही मायनों में उत्तर औपनिवेशिक काल के बाद हमारी पीढ़ी पहली है जो इस सबके प्रति अधिक गंभीर और जागरूक है। हमारी पीढ़ी पहली है जो गंभीरता से अनुभव करती है कि भारत को अब और दरिद्र नहीं होना है, लेकिन हमारे लिए अवसर की खिड़कियां सीमित हैं। आपके नेतृत्व के बारे में क्या कहा जाए जिसमें इन भावनाओं की ठीक तरह से समझ ही नहीं है। महान नेतृत्व वह होता है जो सामान्य प्रतिभाओं को भी कुछ विशिष्ट में परिणत कर देता है और बाधाओं को अवसर में बदल देता है। कांग्रेस को मजबूती देने के लिए आप जो प्रयास कर रहे हैं वे आवश्यक हैं, लेकिन लेकिन राष्ट्र के विनाश की कीमत पर क्या किसी पार्टी को खड़ा किया जा सकता है? (लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च के अध्यक्ष हैं)

साभार:-दैनिक जागरण

Monday, December 12, 2011

क्यों नहीं चला राहुल का जादू

राहुल गांधी को उनके प्रयासों के अनुरूप राजनीतिक लाभांश न मिलने के कारणों का विश्लेषण कर रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश

राहुल गांधी के राष्ट्रीय राजनीति में औपचारिक प्रवेश को सात साल बीत गए हैं। 2004 में अमेठी से लोकसभा का चुनाव जीतकर उन्होंने ठसके से राजनीतिक यात्रा का पहला कदम रखा था। तीन साल बाद जब उन्हें पार्टी का महासचिव नियुक्त किया गया, वह कांग्रेस के हाई कमांड बन गए। इन वर्षो में राहुल गांधी राजनीति में अपना स्थान तलाशने में लगे रहे किंतु उन्हें सीमित सफलता ही मिल पाई। अपने पिता राजीव गांधी के विपरीत, जिन्हें राजनीति में पदार्पण के समय मिस्टर क्लीन कहा जाता था, राहुल गांधी अपनी छाप नहीं छोड़ पा रहे हैं। यद्यपि राहुल गांधी नियमित रूप से रोड शो और राजनीतिक यात्राएं करते रहे हैं, किंतु उन्हें उतना राजनीतिक लाभांश नहीं मिला, जितनी वह मेहनत कर रहे हैं। राहुल गांधी का जादू न चलने के बहुत से कारण हैं। उदाहरण के लिए, वर्तमान राजनीतिक वातावरण कांग्रेस पार्टी के लिए बेहद प्रतिकूल है और इस वजह से राहुल की सफलता की संभावनाएं कम हो रही हैं। किंतु बाहरी वातावरण के अलावा, जिसके लिए वह जिम्मेदार नहीं हैं, राहुल गांधी के व्यक्तित्व का भी सीमित सफलता में योगदान है। इसी तरह दो और कारक राहुल की सफलता में बाधक बने हुए हैं- दृढ़ निश्चय और साहस की कमी। हम राहुल गांधी के पिछले सात साल के आचरण पर नजर डालकर यह देख सकते हैं कि वह दृढ़ निश्चय, गंभीरता और साहस जैसे गुणों पर कितने खरे उतरते हैं। ये गुण ही राजनेताओं को लोगों के दिलों में उतारते हैं। कुछ साल पहले राहुल गांधी ने यह घोषणा करके संजीदगी और सच्चाई के साथ खिलवाड़ किया था कि अगर 1992 में उनके परिवार का कोई सदस्य प्रधानमंत्री होता तो अयोध्या में विवादित ढांचा ध्वस्त न होता। गौरतलब है कि राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी के कार्यकाल में ही राम जन्मभूमि के कपाट खुले थे। वह भी उनके पिता ही थे, जिन्होंने नवंबर 1989 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले गृहमंत्री बूटा सिंह को अयोध्या में राममंदिर के शिलान्यास में भाग लेने भेजा था। हिंदुओं को खुश करने के लिए यह सब करने के बाद राहुल गांधी हमें विश्वास दिलाना चाहते हैं कि अगर 1992 में राजीव गांधी प्रधानमंत्री होते तो विवादित ढांचा ध्वस्त नहीं होता। इसके बाद, पिछले साल से मनमोहन सरकार पर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों के संदर्भ में राहुल की प्रतिक्रिया या कहें कि उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया न आना, उनकी गंभीरता और साहस पर सवाल उठाता है। अगस्त 2010 में राष्ट्रमंडल घोटाला उजागर हुआ, इसके पश्चात आदर्श सोसायटी, 2जी स्पेक्ट्रम आदि घोटालों की झड़ी लग गई। लाखो करोड़ों के घोटालों को देखकर जनता दंग रह गई कि जनसेवक किस तरह देश को लूटकर अपना खजाना भर रहे हैं। अन्ना हजारे के आंदोलन में जनता का गुस्सा प्रतिध्वनित हुआ। जब यह सब चल रहा था, तब हमारे युवा आइकन और कांग्रेस पार्टी के उत्तराधिकारी राजनीतिक परिदृश्य से गायब हो गए। राहुल गांधी को लगा होगा कि अगर वह भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते हैं तो यह उनकी सरकार के विरुद्ध जाएगा और इससे संप्रग के द्रमुक जैसे सहयोगी भी नाराज हो सकते हैं। इसके अलावा उन्हें यह भी लगता होगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने पर बोफोर्स आदि मुद्दों पर असहज करने वाले सवाल उठ सकते हैं। अगर राहुल गांधी साफ प्रशासन देने की इच्छा रखते तो उन्हें इन घोटालों के खिलाफ बोलने का साहस दिखाना चाहिए था। जाहिर है, शुरू में इससे प्रधानमंत्री और गठबंधन को परेशानी जरूर होती, लेकिन इसके कारण वह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के सबसे बड़े नेता और यूथ आइकन बन जाते। अंतत: इसका लाभ कांग्रेस को मिलता। लेकिन साहस और विश्वास के अभाव के कारण उन्होंने यह मौका गंवा दिया। अब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बॉस अन्ना हजारे बन चुके हैं। संजीदगी और साहस के अभाव के साथ-साथ जब कभी उनका भाषण या बयान लिखित नहीं होता, वह कुछ न कुछ गड़बड़ कर बैठते हैं। हाल ही में उन्होंने दिल्ली में युवक कांग्रेस सम्मेलन में दावा किया कि सबसे अधिक भ्रष्टाचार हमारे राजनीतिक ढांचे में है। इससे उनका क्या अभिप्राय है? इस राजनीतिक ढांचे को बदलने की उनके पास क्या योजना है? क्या यह अनर्गल प्रलाप नहीं है? इस तरह का बचकानापन बार-बार सामने आता है। कुछ साल पहले उन्होंने एक पत्रकार से कहा कि वह 25 साल का होते ही प्रधानमंत्री बन सकते थे, किंतु इसलिए नहीं बने क्योंकि वह अपने वरिष्ठजनों पर हुक्म चलाना नहीं चाहते थे। हाल ही में एक बार फिर लिखित बयान के अभाव में उन्होंने खुद को मुश्किल में डाल लिया। फूलपुर में उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश के लोग कब तक महाराष्ट्र में जाकर भीख मांगते रहेंगे। इसी प्रकार लोकपाल के मुद्दे पर पहले से तैयार रिपोर्ट पढ़ने के बाद जब वह संसद से बाहर निकले तो मीडिया से कह बैठे कि उन्होंने पूरा खेल पलट दिया। क्या खुद अपने बारे में ऐसे दावे करना विचित्र नहीं है? इसके अलावा राहुल गांधी के मन में संसद के प्रति आदर का भाव भी नहीं है। यद्यपि वह युवा सांसद हैं फिर भी जैसे उन्हें लगता है कि वह संसद से भी ऊपर हैं। इस संस्थान के प्रति राहुल गांधी का अनादर इससे झलकता है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश की पांच दिन की यात्रा 22 नवंबर से शुरू की, जिस दिन शीतकालीन सत्र शुरू हुआ था। अंतत: चापलूसी के बारे में भी कुछ शब्द। इसमें कोई दो राय नहीं कि 1998 में सोनिया गांधी द्वारा कांग्रेस की कमान संभालने के बाद से पार्टी में चापलूसी की परंपरा कमजोर पड़ी है। सातवें दशक में जब इंदिरा गांधी की तूती बोलती थी, कांग्रेस में चापलूसी चरम पर थी। कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने तो घोषणा ही कर दी थी, इंदिरा भारत है और भारत इंदिरा। अब समय बदल चुका है, तो भी कांग्रेस में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो नेहरू-गांधी परिवार की चापलूसी में कोई कसर छोड़ते हों। हालिया युवक कांग्रेस सम्मेलन में कांग्रेस वर्किग कमेटी के एक सदस्य ने राहुल गांधी को महानतम युवक आंदोलन चलाने पर महिमामंडित किया। उनका कहना था कि इस तरह का आंदोलन तो कभी चीन और रूस तक में देखने को नहीं मिला। यह उम्मीद ही की जा सकती है कि इस तरह की तारीफ के बाद भी राहुल गांधी के पैर दृढ़ता से जमीन पर जमे रहें और वह हवा में न उड़ने लगें। इससे तो उनकी राजनीतिक शक्ति और कम ही होगी। (लेखक संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
saabhar:-dainik jagran

दिशाहीनता की शिकार कांग्रेस

रिटेल कारोबार में एफडीआइ से पीछे हटने के फैसले को मनमोहन सिंह के अलग-थलग पड़ जाने का संकेत मान रहे हैं प्रदीप सिंह

केंद्र की मनमोहन सिंह की सरकार को आखिरकार पीछे हटना पड़ा। खुदरा क्षेत्र में 51 फीसदी तक सीधे विदेशी निवेश की नीति को सरकार ने आम राय बनने तक स्थगित रखने का फैसला किया है। तृणमूल कांग्रेस के खुले विरोध के बाद यह तय हो गया था कि सरकार के सामने पीछे हटने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। राजनीतिक परिस्थिति ऐसी है कि सरकार के लिए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की राय की अनदेखी करना कठिन था। बहुत से लोगों को उम्मीद थी कि अमेरिका के साथ परमाणु करार की ही तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसे भी प्रतिष्ठा का सवाल बनाएंगे, पर पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम से साफ है कि मनमोहन सिंह की हैसियत सरकार और पार्टी में घटी है। पार्टी इस मुद्दे पर उनके साथ ज्यादा दूर तक जाने को तैयार नहीं है। मनमोहन सिंह जब इस मुद्दे पर पीछे नहीं हटने की घोषणा कर रहे थे तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी चुप्पी साधे हुए थीं। यह तो पता नहीं कि कांग्रेस कोर ग्रुप की बैठकों में सोनिया गांधी का क्या रुख था, पर सार्वजनिक रूप से सोनिया ने सरकार के इस फैसले के समर्थन में कुछ नहीं बोला। खुदरा बाजार में सीधे विदेशी निवेश के फायदे-नुकसान पर बहस चल रही है और आगे भी चलती रहेगी, क्योंकि सरकार ने संसद में कहा है कि वह इस नीतिगत फैसले को राजनीतिक दलों और मुख्यमंत्रियों से राय मशविरा करेगी और आम राय बनने के बाद ही इसे लागू करेगी। पिछले नौ दिनों में सरकार और प्रधानमंत्री पहले से भी ज्यादा कमजोर और मजबूर नजर आए। इस मुद्दे पर सरकार और पार्टी में दूरी साफ नजर आई। सत्ता के आठवें साल में आते-आते मनमोहन सिंह शायद यह भूल गए कि वह कांग्रेस की सरकार के नहीं एक गठबंधन की सरकार के मुखिया हैं। परमाणु करार पर वामपंथी दलों को पटखनी देने के बाद शायद उन्होंने मान लिया था कि गठबंधन के साथियों की एक सीमा के बाद परवाह करने की जरूरत नहीं है। पार्टी उनकी और सरकार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए वैकल्पिक समर्थन का प्रबंध कर ही लेगी। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने के बाद से लगातार संकेत दे रही हैं कि केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी उन्हें हल्के में न ले। बांग्लादेश के साथ तीस्ता नदी जल संधि पर वह भारत सरकार की किरकिरी करा चुकी हैं। पेट्रोल के दाम बढ़ाने पर वह प्रधानमंत्री को बता चुकी हैं कि उनकी पार्टी की उपेक्षा उन्हें मजूर नहीं है। खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के मुद्दे पर सहयोगियों, विपक्षी दलों, राज्यों के मुख्यमंत्रियों और अपनी ही पार्टी के एक वर्ग की राय जानते हुए भी प्रधानमंत्री ने ऐसा फैसला क्यों लिया? क्या पार्टी के रणनीतिकारों ने उन्हें आश्वस्त किया था कि सहयोगियों को मना लिया जाएगा। यदि नहीं तो क्या प्रधानमंत्री ने फैसला लेने से पहले सहयोगी दलों के नेताओं से बात की थी? विपक्ष की राय की परवाह न करना इस सरकार की आदत में शुमार हो गया है। उसकी एक बड़ी वजह यह है कि समय-समय पर सरकार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की मदद से विपक्ष को मात देती रही है। उत्तर प्रदेश में कुछ ही महीने में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में उत्तर प्रदेश की ये दोनों पार्टियां कांग्रेस के साथ खड़ी नजर आने को तैयार नहीं थीं, पर ये सारे तथ्य सरकार के रणनीतिकारों को पहले से मालूम थे। क्या यह सत्ता का अहंकार है? या फिर विपक्ष के इस आरोप पर भरोसा किया जाए कि मनमोहन सिंह अमेरिकी हितों के प्रति ज्यादा संवेदनशील हैं? हमारे प्रधानमंत्री जब देश को बता रहे थे कि खुदरा क्षेत्र में सीधा विदेशी निवेश कितना फायदेमंद है,उसी समय अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने देशवासियों से कह रहे थे कि अपने इलाके के स्थानीय स्टोर से खरीददारी करके छोटे व्यावसायियों की मदद कीजिए। सपा और बसपा अलग-अलग समय पर सरकार की मदद करती रही हैं। इसमें भी समाजवादी पार्टी ने परमाणु करार पर अपनी राजनीतिक साख की कीमत पर कांग्रेस की मदद की और बदले में कांग्रेस ने सपा और उसके नेताओं को अपमानित किया। ऐसे समय जब राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी पर खुला हमला बोल रहे हैं, मुलायम सिंह यादव से यह उम्मीद करना कि वे कांग्रेस के बचाव में आएंगे, राजनीतिक नासमझी ही होगी। कांग्रेस को अच्छी तरह पता है कि विधानसभा चुनाव के बाद उसे समाजवादी पार्टी की जरूरत पड़ेगी। ज्यादा संभावना इस बात की भी है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मुलायम का हाथ थामने की जरूरत पड़ेगी। इसके बावजूद नौ दिन तक सरकार देश और दुनिया में अपनी फजीहत कराती रही। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग-2 के कामकाज में पुराने राजमहलों के षड्यंत्र जैसा माहौल नजर आता है। कौन किसके साथ है और किसके खिलाफ, यह बताना कठिन है। राहुल गांधी के करीबी यदा-कदा शक जाहिर करते हैं कि मनमोहन सिंह सरकार के फैसले राहुल गांधी की राजनीति से मेल नहीं खाते। यह भी कि मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी का पहले जैसा समर्थन हासिल नहीं है। दिग्विजय सिंह की राजनीति सरकार और पार्टी, दोनों से अलग चलती है। माना जाता है कि वह जो कुछ करते और कहते हैं उसमें राहुल गांधी की सहमति होती है। खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के मुद्दे पर सरकार ने कदम पीछे खींच लिए हैं, पर दिग्विजय सिंह कह रहे हैं कि पार्टी उत्तर प्रदेश के चुनाव में इसे मुद्दा बनाएगी। देश के बड़े कारपोरेट घरानों के मुखिया बयान देकर कहते हैं कि नीतियों के मोर्चे पर सरकार को लकवा मार गया है। सरकार और पार्टी की ओर से इसके विरोध में जोरदार तरीके से कुछ नहीं कहा जाता। संसद में गतिरोध के मुद्दे पर विपक्ष पर सबसे तीखा हमला कांग्रेस ने नहीं कारपोरेट जगत के लोगों ने किया। ऐसा लगता है कि सरकार की बीमारी ने पार्टी को भी लपेटे में ले लिया है। किसी को नहीं मालूम कि आंध्र प्रदेश में पार्टी किधर जा रही है और किस ओर जाना चाहती है। राच्य सरकार उधार की जिंदगी जी रही है। भविष्य की तो छोडि़ए वर्तमान के बारे में भी कांग्रेस की कोई सोच या रणनीति है, ऐसा लगता नहीं। सोनिया गांधी ने आजकल पहले से ज्यादा चुप्पी ओढ़ रखी है। पार्टी का भविष्य माने जाने वाले राहुल गांधी संसद न चलने से तो चिंतित होते हैं, पर संसद से ज्यादा समय नदारद ही रहते हैं। उनके उठाए मुद्दे एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल के अहम नेता की बजाय एक एनजीओ के नेता के ज्यादा नजर आते हैं। कांग्रेस की यह दिशाहीनता पार्टी के लिए तो बुरी है ही, देश के लिए भी कोई अच्छी बात नहीं है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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सिब्बल की सख्ती पर सवाल

इसमें संदेह नहीं कि सोशल नेटवर्किग साइट्स पर बहुत कुछ ऐसा उपलब्ध है जो आपत्तिजनक और अरुचिकर होने के साथ-साथ लोगों की भावनाओं को आहत करने वाला भी है, लेकिन उसे रोकने की कपिल सिब्बल की पहल संदेह और सवाल, दोनों खड़े करती है। दूरसंचार मंत्री केवल यही नहीं चाहते कि आपत्तिजनक सामग्री सोशल साइट्स पर चस्पा न होने पाए, बल्कि यह भी चाह रहे हैं कि संबंधित इंटरनेट कंपनियां कर्मचारियों के जरिये ऐसी सामग्री की निगरानी रखें। इंटरनेट की सामान्य समझ रखने वाले भी यह बता सकते हैं कि यह असंभव सा काम है और फिर यदि इसकी निगरानी शुरू हो जाएगी कि सोशल साइट्स पर कौन क्या लिख रहा है तो फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या होगा? इंटरनेट आधारित ऐसे प्लेटफॉर्म पर कौन जाएगा जहां कोई उसके विचारों पर कैंची चलाने के लिए बैठा हो? इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आखिर इसे कौन तय करेगा कि क्या आपत्तिजनक है और क्या नहीं? जो कथन या चित्र किसी के लिए आपत्तिजनक हो वही दूसरों के लिए हास-परिहास का विषय हो सकता है। हर सुविधा और तकनीक खूबियों के साथ खामियों से भी लैस होती है। खामियों को खत्म करने के नाम पर ऐसे किसी कदम को जायज नहीं कहा जा सकता जिससे उसकी खूबी और खासियत ही नष्ट हो जाए। इंटरनेट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ संचार-संपर्क को एक नया आयाम दिया है और सारी दुनिया उसके प्रभाव से परिचित है। इंटरनेट की दुनिया असीमित है और उसके जरिये लोग खुलकर अपने विचार रखते हैं। इस स्वतंत्रता पर रोक लगाने का अर्थ है लोगों को बोलने से ही रोकने की कोशिश करना। नि:संदेह कुछ लोग इस स्वतंत्रता का खुलकर दुरुपयोग भी करते हैं और इसके चलते कभी-कभार समस्याएं भी पैदा होती हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उसके लिए निगरानी तंत्र खड़ा करने की कोशिश की जाए। एक तो यह संभव नहीं और दूसरे इससे दुनिया मेंगलत संदेश जाएगा। सच तो यह है कि कपिल सिब्बल के तीखे तेवरों के चलते दुनिया को गलत संदेश चला भी गया है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया का एक वर्ग भारत को चीन की राह पर जाता हुआ देख रहा है। कपिल सिब्बल इससे अपरिचित नहीं हो सकते कि सोशल साइट्स पर जो आपत्तिजनक सामग्री चस्पा होती है उसके खिलाफ प्रतिवाद भी किया जा सकता है और उसे हटाने की प्रणाली भी मौजूद है। इस प्रणाली को और प्रभावी बनाने की अपेक्षा तो की जा सकती है, लेकिन यह ध्यान रखने की जरूरत है कि उसकी भी एक सीमा होगी। वर्तमान में ऐसी तकनीक किसी के पास नहीं और शायद हो भी नहीं सकती जो कटाक्ष और व्यंग्य की भाषा समझ सके। यदि दूरसंचार मंत्री को यह लगता है कि सोशल साइट्स पर अश्लील और आपत्तिजनक सामग्री बढ़ रही है तो फिर उन्हें इसका अधिकार पहले से ही प्राप्त है कि वह साइबर कानूनों में संशोधन-परिवर्तन कर सकें। जो लोग सोशल साइट्स का इस्तेमाल विद्वेष फैलाने अथवा भावनाएं भड़काने के लिए करते हैं उनके खिलाफ सख्ती बरतने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन ऐसी अपेक्षा का कोई मतलब नहीं कि अपराध होने के पहले ही अपराध करने वाले को रोका-पकड़ा जा सके। इस पर आश्चर्य नहीं कि कपिल सिब्बल की इस पहल के पीछे यह माना जा रहा है कि वह सोशल साइट्स के जरिए हो रही सरकार की आलोचना से क्षुब्ध हैं। उनका क्षुब्ध होना समझ आता है, लेकिन इस आलोचना से बचने के उनके तौर-तरीके सही नहीं।
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गलत राह पर बढ़ते कदम

संसद में लगातार बढ़ रहे गतिरोध को समाज और संस्थानों में नैतिकता के गिरते स्तर से जोड़ रहे हैं कुलदीप नैयर

भारत दक्षिण एशिया का अकेला देश है जहां लोकतंत्र अपने परंपरागत रूप में बचा हुआ है। पाकिस्तान में इसका स्वरूप बिगड़ा हुआ है, क्योंकि अंतिम शब्द सेना का होता है। बांग्लादेश में विपक्ष के कभी न खत्म होने वाले बहिष्कार ने संसद की विश्वसनीयता कम कर दी है। श्रीलंका में दुविधा में पड़े विपक्ष ने लोकतंत्र के प्रतिनिधिक स्वरूप को प्रभावित कर रखा है। नेपाल को अभी लोकतंत्र के बुनियादी मानदंडों का सामना करने के लिए अपने को तैयार करना है। दुर्भाग्य से भारत की राजनीतिक पार्टियां विश्वास करने लगी हैं कि संसद का काम रोकना ही सरकारी कानूनों या उसके कार्यो के विरोध का सबसे अच्छा तरीका है। कांग्रेस ने नब्बे के दशक के उत्तरा‌र्द्ध में और 2000 के दशक के पूर्वा‌र्द्ध में यही किया। भाजपा ने भी इसी तरीके को अपनाया हुआ है। कांगे्रस ने जो उस समय किया उसके लिए वह अब पछता रही है। भाजपा भी सत्ता में आएगी तो इसी तरह पछताएगी। लगता है कि संसद को चलने नहीं देना उनके राजनीतिक शब्दकोश का हिस्सा बन चुका है। दोनों सदन की कार्यवाही देश भर में देखी जाती है। इस तरह संसद में कामकाज नहीं चलने देने का असर पूरे देश पर होता है और आमतौर पर इसका असर नकारात्मक है। कुछ लोगों के मन में सवाल उठता है कि संसद की क्या उपयोगिता है और कुछ अमेरिका तथा फ्रांस की राष्ट्रपति प्रणाली को अपनाने का सुझाव देने लगते हैं। सबसे खराब नतीजा होता है पूरे देश में अनिश्चितता के भाव का फैल जाना। मैं भारत के नीचे जाने के लिए नेताओं को बलि का बकरा नहीं बनाना चाहता। न्यायपालिका, सरकार और मीडिया के मुकाबले उन्हें ज्यादा जिम्मेदार मानना चाहिए। मुद्दा यह है कि एक ऐसा देश जो 1950 में संविधान स्वीकार करने के समय से लोकतांत्रिक तरीकों का पालन करता आ रहा है, अपने व्यवहार और भाषा में हिंसक होने लगा है। कृषि मंत्री शरद पवार को थप्पड़ मारना उतना ही अस्वीकार करने लायक है जितना गृहमंत्री पी. चिदंबरम पर जूते फेंकना। दोनों ही हिंसक अभिव्यक्तियां हैं, जिसकी इजाजत न तो संविधान देता है और न ही देश की लोकनीति। लगता है कि चमकता भारत अचानक धुंधलके में जाने लगा है। अर्थव्यवस्था लगातार मंदी दिखा रही है और व्यावहारिक रूप से शासन अस्तित्व में नहीं है। जल्द फैसले की बात तो दूर, कोई अधिकारी फैसला ही नहीं लेना चाहता। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल इसे यह कहकर उचित ठहराना चाहते हैं कि अधिकारी डरे हुए हैं कि अगर फैसला गलत हो गया तो उनसे जवाब मांगा जाएगा। अधिकारियों को इस तरह की आशंका से मुक्त होना पड़ेगा, क्योंकि अगर फैसले के पीछे कोई गलत उद्देश्य नहीं है तो उन्हें दोष नहीं दिया जाएगा। अगर मुझे एक गिरावट की चर्चा करनी हो तो मैं कहूंगा कि राजनीतिक। ऐसा भी कह सकते हैं कि समाज के हर हिस्से ने नैतिकता छोड़ दी है। लोगों को अब यह अहसास नहीं रह गया है कि कुछ चीजें उन्हें नहीं करनी चाहिए। वही वजह है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी अपना उद्देश्य पाने के लिए कुछ भी करती है और इसका उसे पछतावा नहीं होता। अगर यह शांतिपूर्ण तरीकों से संभव है तो ठीक है, अन्यथा जरूरत पड़े तो वे हिंसा का इस्तेमाल करने के लिए भी तैयार हैं। अब कोई लक्ष्मण रेखा नहीं रही और निचले स्तर पर उतरकर चोट करना न केवल आम हो गया है, बल्कि इसकी इजाजत है। अगर यह सड़न सिर्फ राजनीतिज्ञों तक सीमित होती तो राष्ट्र अपना संतुलन बरकरार रख लेता, लेकिन यहां तो हर गतिविधि प्रभावित है। मीडिया पर सवाल उठ रहे हैं। न्यायपालिका स्वतंत्रता को लेकर अपनी पीठ थपथपा रही है, लेकिन प्रसिद्ध वकीलों और रिटायर्ड जजों का कहना है कि इसे आमतौर पर मैनेज किया जा सकता है। कुछ न्यायिक फैसले आपको आश्चर्य में डाल देते हैं और लगता है कि जो बाहर दिखाई दे रहा है, मामला उससे ज्यादा जटिल है। अवमानना कानूनों के डर से जजों की कोई आलोचना नहीं करता। इसलिए दिखावे का सम्मान बना रहता है। नौकरशाही ऊपर और नीचे की सीढि़यों की वजह से इतनी बंटी हुई है कि दाएं हाथ को बाएं के बारे में पता नहीं होता। संयुक्त सचिव और उससे ऊपर बैठे अफसरों को मंत्रियों की इजाजत के बगैर कोई छू नहीं सकता। सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला दिया था कि एकल निर्देश के रिवाज पर रोक लगनी चाहिए, लेकिन संसद ने इसे जारी रखने का फैसला किया। इस बारे में जो नया कानून बना है उसके खिलाफ की गई अपील पर फैसले का इंतजार है। खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का उदाहरण ले लीजिए। मंत्रियों और नौकरशाहों ने मिलकर फैसला ले लिया कि क्या कदम उठाना है? उन्होंने इसका विवरण तैयार किया और सरकार के बाहर के किसी भी व्यक्ति से बिना राय लिए इसे भारत में लागू करने की घोषणा कर दी। इसकी घोषणा संसद के सत्र में रहते समय की गई, लेकिन सदन में नहीं, प्रेस-बयान के जरिए। उचित ही था कि सभी पार्टियां, यहां तक कि कांग्रेस के शासकीय सहयोगी भी, विरोध में उठ खड़े हुए। अगर सरकार ने यह तय कर लिया था कि कोई विरोध स्वीकार नहीं करना है तो सर्वदलीय बैठक पहले ही क्यों नहीं बुला ली गई? इससे सरकार की प्रतिष्ठा किस तरह कम हो जाती है कि महंगाई और काले धन से पहले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर चर्चा हो जाती? कांग्रेस के एक वरिष्ठ मंत्री का कथन-भारत कहां जा रहा है निश्चित ही प्रासंगिक है, लेकिन विपक्ष से ज्यादा इस पार्टी की जिम्मेदारी बनती है, क्योंकि वह शासन कर रही है। यह मंत्री (कांग्रेस जिनका इस्तेमाल जटिल समस्याओं को हल करने के लिए करती है) यह भी मानेंगे कि शासन चलाने का एक ही रास्ता है-सहमति कायम करना। सत्ताधारी कांग्रेस को विपक्ष से अपनी दूरी कम करनी होगी। खासकर उस समय जब दक्षिणपंथी भाजपा और वामपंथी एक ही राय रखते हों। दोनों के साथ आने का मतलब है कि मनमोहन सिंह की नीतियों में कुछ खामी है। संभव है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों ने सरकार और विपक्ष को साथ आने से रोक दिया हो, लेकिन यह तो निश्चित है कि विधानसभा चुनाव के मुकाबले देश ज्यादा महत्वपूर्ण है। संसद का ठप होना पड़ोसी देशों के लिए कोई अच्छा उदाहरण पेश नहीं करता, क्योंकि वहां की लोकतांत्रिक प्रणालियां पहले से ही कठिनाई में हैं। लाहौर, ढाका, कोलंबो और काठमांडू की सड़कों पर चल रहा आम आदमी क्या महसूस करता होगा जब वह देखता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की हालत ऐसी होती जा रही है कि संसद काम तक नहीं कर पा रही है। (लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं)
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संसद से बड़ी संसदीय समिति

संसदीय समिति की ओर से लोकपाल का लचर मसौदा तैयार किए जाने की आशंकाएं सच होती देख रहे हैं राजीव सचान

लोकपाल विधेयक के प्रस्तावित मसौदे को लेकर टीम अन्ना तो असंतुष्ट है ही, करीब-करीब सभी विपक्षी दल भी असहमति के स्वर उभार रहे हैं। हालांकि अभी लोकपाल समिति की अंतिम रपट आनी शेष है, लेकिन यह आशंका गहरा गई है कि यह रपट संसद की ओर से व्यक्त की गई भावना के अनुरूप नहीं होगी। राहुल गांधी को खुश करने और उन्हें दूरदर्शी सिद्ध करने के लिए लोकपाल को संवैधानिक दर्जा तो दिया जा सकता है, लेकिन न तो ग्रुप सी और डी के कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में रखे जाने के आसार हैं और न ही प्रधानमंत्री को। सीबीआइ निदेशक की नियुक्ति के मामले में भी पुरानी व्यवस्था बने रहने के ही आसार अधिक हैं। कुल मिलाकर लोकपाल के मसौदे में काफी कुछ ऐसा हो सकता है जो संसद के दोनों सदनों की सामूहिक भावना के विपरीत हो। इसके चलते टीम अन्ना, उनके समर्थकों और विपक्षी दलों का नाखुश होना स्वाभाविक है। सच तो यह है कि किसी भी सरकार के लिए ऐसा कानून बनाना संभव नहीं जिससे कोई असंतुष्ट-असहमत न हो, लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं हो सकता कि वह जानबूझकर ऐसा कोई कानून बनाए जो आम लोगों की उम्मीदों पर खरा न उतरे। सरकार अथवा सत्तारूढ़ दल यह भी उम्मीद नहीं कर सकता कि उसके द्वारा बनाए गए कानून को लेकर किसी भी स्तर पर असहमति का स्वर न उभरे। लोकतंत्र में ऐसी अपेक्षा का कहीं कोई औचित्य नहीं, लेकिन लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने वाली संसदीय समिति के अध्यक्ष अभिषेक मनु सिंघवी ने दो टूक कहा कि सबको खुश रखना हमारी जिम्मेदारी नहीं और यदि कुछ लोग नाखुश हैं तो हम कुछ नहीं कर सकते। यह बयान इसलिए आघातकारी है, क्योंकि सिंघवी की अध्यक्षता वाली समिति पर संसद की भावना का सम्मान करने का दायित्व था। सिंघवी का तर्क अहंकार की पराकाष्ठा है। सिंघवी ऐसा व्यवहार कर रहे हैं मानों वह इस धरती पर शासन करने के लिए ही उतरे हैं। यह लोकतंत्र की भाषा नहीं हो सकती कि संसदीय समिति का अध्यक्ष यह कहे कि जनता को संतुष्ट करना हमारा दायित्व नहीं। ऐसा लगता है कि सिंघवी कांग्रेस के प्रवक्ता और संसदीय समिति के प्रमुख में कोई भेद नहीं कर पाते। अन्ना हजारे के अनशन के चलते जब संसद के दोनों सदनों ने उनकी मांगों पर सहमति प्रकट की थी तो इसे लोकतंत्र की जीत की व्याख्या दी गई थी। उल्लास के उस माहौल में प्रधानमंत्री ने कहा था कि लोकतंत्र में जनता की इच्छा ही सर्वोपरि है। अब ऐसे प्रकट किया जा रहा है जैसे संसदीय समिति की भावना सर्वोपरि है। संसद में अन्ना की मांगों पर बहस के पहले जब राहुल गांधी ने लोकपाल पर अपने विचार रखे थे तो विपक्षी दलों ने उसे राष्ट्र के नाम संबोधन की संज्ञा दी थी और आम जनता ने भी यह महसूस किया था कि उन्होंने गलत समय पर सही विचार रखे। राहुल ने अन्ना को खारिज करते हुए लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने की पैरवी की थी। यह एक सही सुझाव था, लेकिन आम जनता को यही संदेश गया था कि इस सुझाव की आड़ में लोकपाल को लटकाया जा सकता है। पता नहीं लोकपाल व्यवस्था का निर्माण कब होगा, लेकिन यह विचित्र है कि लोकपाल को संवैधानिक दर्जा मिलने की संभावना तो बढ़ गई है, लेकिन इस आशंका के साथ कि उसके अनेक प्रावधान संसद की भावना के विपरीत हो सकते हैं। सत्तारूढ़ दल, सरकार और संसदीय समिति चाहे जैसा दावा क्यों न करे, संसद की भावना को दरकिनार किया जाना घोर अलोकतांत्रिक है। इस पर आश्चर्य नहीं कि अन्ना हजारे फिर से अनशन करने की धमकी दे रहे हैं। पता नहीं वह इस धमकी पर अमल करेंगे या नहीं और यदि करते हैं तो जनता उनका कितना साथ देती है, लेकिन यह शर्मनाक है कि इस सरकार ने अन्ना की हालत भिखारी जैसी कर दी है। यदि भारत में वास्तव में लोकतंत्र है और इस देश की केंद्रीय सत्ता चार दशक बाद ही सही, भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ठोस व्यवस्था बनाने के लिए सचमुच प्रतिबद्ध है तो फिर अन्ना को बार-बार सड़क पर उतरने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ रहा है? यदि सरकार सही है और अन्ना गलत, जैसा कि सत्तारूढ़ दल की ओर से सिद्ध करने की कोशिश की जा रही है तो फिर वह उनके अनशन-आंदोलन से इतना घबराती क्यों है? यदि सरकार अन्ना हजारे के रास्ते को गलत मानती है तो फिर वह उनके जैसे लोगों को हक्कुल सरीखा बनने को मजबूर कर रही है। हक्कुल भले ही पुलिस से भागा फिर रहा हो, लेकिन उसकी चर्चा अंतरराष्ट्रीय मीडिया में हो चुकी है। यह उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के उस सपेरे का नाम है जिसने रिश्वतखोरों से तंग आकर तहसील कार्यालय में तीन बोरे सांप छोड़ दिए थे। हक्कुल लंबे समय से सांपों को रखने के लिए जमीन मांग रहा था। प्रशासन का तर्क था कि इस काम के लिए जमीन देने का कोई प्रावधान नहीं है और तहसील कर्मी उसे यह समझाते थे कि वह जब तक कुछ खर्चा-पानी नहीं देगा तब तक उसे पट्टे पर जमीन नहीं मिल सकती। पता नही सच क्या है, लेकिन जब उसने जाना कि उसका काम नहीं बनने वाला तो उसने तहसील कार्यालय में सांप छोड़ दिए। अब तीन थानों की पुलिस उसे खोजने में लगी हुई है। उस पर सार्वजनिक स्थल पर वन्यजीवों को छोड़ कर दहशत फैलाने का आरोप मढ़ा गया है। हक्कुल पर लगाया गया आरोप सही हो सकता है, लेकिन उसकी चर्चा रिश्वतखोरों को सबक सिखाने वाले शख्स के रूप में हो रही है। यह ठीक वैसा ही है जैसे शरद पवार पर थप्पड़ रसीद करने वाले को तमाम लोग महंगाई के खिलाफ आवाज उठाने वाले शख्स के रूप में जान रहे हैं। क्या सरकार को यह समझ आ रहा है कि यदि असहमति, आपत्तियों और असंतोष पर ध्यान नहीं दिया जाएगा तो ऐसा ही होगा? (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
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मजबूत लोकपाल की मांग

अन्ना हजारे के एक दिन के अनशन को मिले व्यापक समर्थन और उनके मंच से हुई बहस से यह साफ हो गया कि देश एक मजबूत लोकपाल की उनकी मांग के साथ है। केंद्र सरकार भले ही अन्ना हजारे के एक दिवसीय अनशन से बेपरवाह दिखे, लेकिन वह देश को यह भरोसा दिलाने में सक्षम नहीं दिखती कि वास्तव में एक मजबूत लोकपाल विधेयक पारित होने जा रहा है। यह उम्मीद लोकपाल संसदीय समिति की रपट आने और सच तो यह है कि इस समिति के अध्यक्ष एवं कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी के इस कथन के साथ ही ध्वस्त हो गई थी कि हमारा काम किसी को खुश करना नहीं था। आखिर कोई समिति अपने ऐसे मसौदे पर गर्व कैसे कर सकती है जिसके अधिकांश सदस्य उससे असहमत हों और जो देश की जनता को खिन्न करने का काम करे। यह निराशाजनक ही नहीं, बल्कि आपत्तिजनक भी है कि इस समिति ने लोकपाल के तीन प्रमुख बिंदुओं पर संसद की भावना का सम्मान करना जरूरी नहीं समझा। आखिर संसद के जरिए बनी कोई समिति उससे बड़ी कैसे हो सकती है? यह विचित्र है कि संसदीय समिति खुद को संसद से बड़ी ही नहीं, बल्कि बुद्धिमान और दूरदर्शी भी साबित कर रही है। देश की जनता यह जानना चाहेगी कि आखिर इस समिति को संसद की भावना की उपेक्षा करने का अधिकार किसने दिया? यह समिति जिस तरह आम राय से रपट तैयार करने में समर्थ नहीं रही उससे यह स्वत: स्पष्ट हो जाता है कि उसने संसद अर्थात देश की भावना का सम्मान करने के बजाय किसी अन्य एजेंडे पर काम किया। इस समिति के कामकाज से तो ऐसी कोई झलक मिली ही नहीं कि लोकतंत्र में जनता की इच्छा सर्वोपरि होती है। लोकपाल पर संसद की भावना के विपरीत मसौदे से आम जनता का बेचैन होना स्वाभाविक है। यह ठीक नहीं कि इस बेचैनी को समझने-शांत करने के बजाय सत्तापक्ष इस तर्क की आड़ में छिपने की कोशिश कर रहा है कि कानून संसद में बनते हैं। नि:संदेह कोई नहीं यह कह रहा कि कानून सड़क पर बनें, लेकिन किसी को यह भी बताना चाहिए कि 43 साल बाद भी लोकपाल कानून क्यों नहीं बन सका? चूंकि लोकपाल के मामले में कोई भी सरकार आम जनता की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी इसलिए उसे यह जानने का अधिकार है कि अब जो कानून बनने जा रहा है वह कैसा है? यह हास्यास्पद है कि सत्तापक्ष अन्ना हजारे के मंच पर हुई बहस को खारिज करने की निरर्थक कोशिश कर रहा है। यदि केवल संसद में होने वाली बहस ही मायने रखती है तो फिर क्या कारण है कि प्रधानमंत्री लोकपाल के मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाने जा रहे हैं? कम से कम अब तो सत्तापक्ष को अपनी हठधर्मी छोड़नी ही चाहिए, क्योंकि टीम अन्ना जैसे लोकपाल की मांग कर रही है उसका समर्थन मुख्य विपक्षी दल के साथ-साथ अन्य अनेक विरोधी दल भी कर रहे हैं। सत्तापक्ष भले ही अन्ना हजारे के अनशन और उनके मंच पर हुई बहस को खारिज करे, लेकिन वह इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि प्रधानमंत्री का पद, निचली नौकरशाही और सीबीआइ को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने के मामले में वह अलग-थलग पड़ता दिख रहा है। अभी भी समय है, केंद्र सरकार को न केवल एक सशक्त लोकपाल व्यवस्था बनाने की ठोस पहल करनी चाहिए, बल्कि इस संदर्भ में आम जनता को भी भरोसे में लेना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करती और अन्ना फिर से अनशन-आंदोलन करने के लिए विवश होते हैं तो इसके लिए सरकार ही जिम्मेदार होगी।
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कांग्रेस का नेतृत्व संकट

राजनीतिक रूप से कमजोर पड़ रही कांग्रेस के समक्ष नेतृत्व का संकट गहराता देख रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता

यह चौंकाने वाली बात है कि झूठ-फरेब और धोखाधड़ी में अर्थशास्ति्रयों ने भी राजनेताओं के साथ हाथ मिला लिया है। गत सप्ताह ब्रिटिश वित्त अधिकारी सर स्टीफेन निकेल ने कहा कि इस साल भी सर्दियां पिछली बार की तरह सर्द होंगी। सर स्टीफेंस का स्पष्ट संकेत बड़े रिटेलरों की ओर है। पिछली सर्दियों में जिनके गरम कपड़ों की बिक्री ठंडी रही थी। हालांकि उनकी गणना का अधिक संबंध सांख्यिकीय बाजीगरी से है। जाहिर है, अत्यधिक सर्दी के कारण मंदी आती है जिसका असर कंपनियों के तिमाही नतीजों पर पड़ता है। हालांकि बर्फ पिघलने के साथ ही विकास के नए अंकुर फूटते हैं। असल में सर स्टीफेन उम्मीद पाले बैठे थे कि हताशाजनक या कहें कि नकारात्मक आर्थिक प्रदर्शन के बाद अर्थव्यवस्था में सुधार आएगा। अपनी तमाम कमियों के बावजूद भारत की अर्थव्यवस्था ब्रिटेन की तरह खतरे के मुहाने पर नहीं खड़ी है। आठ फीसदी की विकास दर गिरकर सात प्रतिशत पर आ सकती है, किंतु हमारी अर्थव्यवस्था ध्वस्त नहीं होने जा रही। योजना आयोग के उत्साही उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने महंगाई के गलत आकलन को स्वीकार जरूर किया, किंतु उनके इस कुबूलनामे को अखबारों के अंदर के पेज पर इतनी कम जगह मिली कि कोई भी उन्हें पद से हटाने की मांग तक नहीं कर सका। भारत में अर्थशास्ति्रयों पर शायद ही कभी अल्पज्ञता का आरोप लगा हो। यहां आर्थिक कुप्रबंधन का ठीकरा भी राजनेताओं के सिर ही फूटता है। पिछले सप्ताह वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा खुद को महत्वपूर्ण जताते हुए रिटेल के समर्थन में भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल कर रहे थे। इस सप्ताह जब वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने घोषणा की कि रिटेल के लिए अभी और इंतजार जरूरी है, तो उनकी सारी हवा निकल गई। रिटेल पर उठे तूफान में दस दिन घिरे रहने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बच तो निकले, किंतु इससे यह सिद्ध जरूर हो गया कि उनके मौन व्रत के बावजूद उनकी सरकार पर खतरा बरकरार है। भारत एक आदर्श लोकतंत्र है, जिसमें बड़े से बड़ा संकट आता है और चला जाता है, किंतु तीन प्रमुख राजनीतिक व्यक्तित्व-प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके उत्तराधिकारी राहुल गांधी किसी भी महत्वपूर्ण विषय पर एक शब्द तक नहीं बोलते। भारत के शासकों की चुप्पी के संबंध में आम जनमानस और सोशल मीडिया में इतना कुछ कहा गया कि कपिल सिब्बल को मजबूर होकर घोषणा करनी पड़ी अराजक सोशल मीडिया पर राजनीतिक सेंसरशिप लागू करना जरूरी है। कुछ अर्थशात्रियों को इस तर्क में जान नजर आती है कि अगर आप चीन को आर्थिक दौड़ में नहीं पछाड़ सकते तो कम से कम राजनीतिक रूप से तो उससे होड़ कर ही सकते हैं। शिकायतों का पुलिंदा लेकर उन्होंने नेटिजेनों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। नतीजा यह रहा कि कांग्रेस रिटेल में एफडीआइ तो ला नहीं पाई, उलटे खुद पर असहिष्णुता का लेबल और चिपका लिया। मोरारजी देसाई के खिलाफ बगावत का झंडा उठा कर जनता पार्टी का किला ध्वस्त करने वाले चरण सिंह के बाद से कोई सरकार इतनी लाचार दिखाई नहीं पड़ी। अनेक कारणों से संसद न चलने देने के लिए विपक्ष आंशिक रूप से ही जिम्मेदार है। इसका मूल कारण यह है कि कांग्रेस आश्वस्त नहीं है कि पहले कार्यकाल के विपरीत संप्रग का दूसरा कार्यकाल सही ढंग से चल नहीं पा रहा है। एक व्यक्ति के तौर पर अब भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का सम्मान बचा हुआ है, किंतु उनके राजनीतिक कुप्रबंधन ने पार्टी के अनेक वफादार सदस्यों को चिंतित कर दिया है कि अगर शीर्ष स्तर पर बदलाव नहीं किया जाता है तो अगले चुनाव में हार तय है। तमाम कांग्रेसी सहजवृत्ति से जानते हैं अगला उत्तराधिकारी कौन होगा। 2004 में मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए चुने जाने के बाद आखिर अब क्या परिवर्तन हो गया है? विकास दर के नौ फीसदी से घटने के कारण अब बड़ी कल्याणकारी योजनाएं लाने के हालात नहीं रह गए हैं। निर्बाधित फिजूलखर्ची का परिणाम राजकोषीय घाटे के रूप में सामने आया है, रुपये का मूल्य बराबर गिर रहा है और सरकार के सामने भुगतान संकट खड़ा होने के आसार बन रहे हैं। दूसरा कारण है सोनिया की स्वास्थ्य समस्याएं, जो अभी तक गोपनीयता के आवरण में लिपटी हैं। कांग्रेस जानती है कि अनिश्चित काल तक उत्तराधिकारी का मामला लटकाया नहीं जा सकता है। पहले यह माना जा रहा था कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में अपेक्षाकृत अच्छे प्रदर्शन के बाद राहुल गांधी की शीर्ष पद पर ताजपोशी कर दी जाए, किंतु जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, उत्तर प्रदेश में नई जमीन तलाशने की कांग्रेस की उम्मीदें धूमिल पड़ती जा रही हैं। उत्तर प्रदेश में नतीजे कांग्रेस के लिए खराब आते हैं तो उनके लिए और मुश्किल हो जाएगी। सच्चाई यह भी है कि कांग्रेस समर्थक चिंतित है कि नेहरू-गांधी वंश के अलावा राहुल गांधी के पक्ष में और कुछ नहीं है। वह बिहार में भी जरूरी राजनीतिक लाभांश नहीं दे पाए थे। ऐसा नहीं है कि राहुल अनाकर्षक हंै। दरअसल वह करिश्माई नहीं हैं। 2014 के चुनाव में वह यही उम्मीद कर सकते हैं कि भाजपा कितने आत्मघाती गोल ठोंकती है और और गलत उम्मीदवार को प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश करती है। अगर राहुल जीते भी तो दूसरों की गलती से जीतेंगे। वह उस तरह के यूथ आइकन नहीं बन पाए हैं, जैसा उन्हें बन जाना चाहिए था। वह तो राजवंश के चेहरे मात्र हैं। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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लोकपाल पर फिर तकरार

संसदीय समिति के लोकपाल मसौदे को संसद की भावना के विपरीत बतारहे हैं संजय गुप्त

लोकपाल को लेकर टीम अन्ना और केंद्र सरकार के बीच टकराव के आसार और बढ़ गए हैं। लोकपाल का मसौदा तैयार करने वाली संसदीय समिति की रपट पर टीम अन्ना को तो आपत्ति है ही, अनेक विपक्षी दलों को भी है। आपत्ति का मुख्य कारण प्रधानमंत्री के साथ-साथ समूह तीन और चार के कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे से बाहर रखना है। आपत्ति का एक अन्य कारण सीबीआइ को लोकपाल के दायरे में लाने की सिफारिश न करना भी है। इस पर आश्चर्य नहीं कि इस समिति ने न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा, क्योंकि सभी दल ऐसा ही चाह रहे थे। संसदीय समिति ने लोकपाल पर अपनी जो रपट तैयार की है उसे संसद की भावना के अनुरूप कहना कठिन है। चूंकि लोकपाल रपट पर संसद में बहस के पहले केंद्रीय मंत्रिपरिषद को उस पर विचार करना है इसलिए बेहतर यह होगा कि वह टीम अन्ना के साथ-साथ आम जनता की भावनाओं को समझे। संसद के लिए भी यही उचित होगा कि वह कैबिनेट से मंजूर मसौदे पर खुलकर चर्चा करे। टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल की मानें तो संसदीय समिति की रपट खारिज करने योग्य है। उनके हिसाब से इस रपट पर आधारित लोकपाल व्यवस्था बनी तो इससे भ्रष्टाचार और बढ़ेगा। उन्होंने संसदीय समिति की रपट पर इसलिए भी सवाल उठाया है, क्योंकि उसके 16 सदस्यों ने उससे असहमति जताई है। इस समिति के 32 सदस्यों में से दो ने बैठकों में हिस्सा ही नहीं लिया। सरकार के लिए जनता को यह भरोसा दिलाना आवश्यक है कि वह वास्तव में एक मजबूत लोकपाल बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। अभी तो इस प्रतिबद्धता का अभाव ही नजर आ रहा है। अन्ना हजारे ने लोकपाल की मांग को लेकर जब अनशन शुरू किया था तब राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े घोटाले सामने आ चुके थे और 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में घोटाले के आरोप सतह पर थे। बाद में यह एक बड़े घोटाले के रूप में सामने आया, लेकिन इस घोटाले का पर्दाफाश सरकार के बजाय सुप्रीम कोर्ट के दबाव में हुआ। बाद में राष्ट्रमंडल खेल घोटाले के आरोपियों की भी गिरफ्तारी हुई और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के आरोपियों की भी। सीबीआइ ने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के आरोपियों को महीनों तक जेल में रखने के बाद उनके खिलाफ चार्जशीट दाखिल कर दी है। अब देखना यह है कि वह अदालत में अपने आरोपों को सिद्ध कर पाती है या नहीं? सीबीआइ चाहे जैसा दावा क्यों न करे, उसकी छवि भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में लीपापोती करने वाली जांच एजेंसी की है। उसके बारे में यह धारणा भी आम है कि उसकी स्वायत्तता दिखावटी है और वह केंद्र सरकार के दबाव में काम करती है। सभी को यह पता है कि केंद्र सरकार की राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से सीबीआइ ने किस तरह लालू यादव, मायावती और मुलायम सिंह पर कभी अपना शिकंजा कसा और कभी ढीला किया। यह जांच एजेंसी कभी इन नेताओं पर लगे आरोपों को गंभीर बताती रही और कभी उनसे पल्ला झाड़ती रही। विपक्षी दलों का तो यह सीधा आरोप है कि केंद्र सरकार ने सीबीआइ को कठपुतली बना रखा है और उसका इस्तेमाल गठबंधन राजनीति के हितों को साधने में किया जा रहा है। केंद्र सरकार इन आरोपों को खारिज भले ही करे, लेकिन जनता के लिए सीबीआइ को विश्वसनीय जांच एजेंसी मानना कठिन है। यदि टीम अन्ना और साथ ही आम जनता यह मान रही है कि सीबीआइ को लोकपाल के दायरे में लाए बगैर बात बनने वाली नहीं है तो इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। यदि भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए ऐसी कोई समर्थ जांच एजेंसी नहीं होगी जो सरकार के दबाव से मुक्त होकर काम कर सके तो फिर भ्रष्ट तत्वों पर नकेल कसने की उम्मीद बेमानी है। लोकपाल का मसौदा तैयार करने वाली संसदीय समिति के अध्यक्ष अभिषेक मनु सिंघवी की मानें तो लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने का काम आसानी से हो जाएगा, लेकिन यह समय ही बताएगा कि राहुल गांधी के सुझाव के अनुरूप ऐसा हो पाता है या नहीं? संसदीय समिति ने प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में रखने पर कोई स्पष्ट राय देने के बजाय तीन विकल्प सुझाए हैं। इनमें एक, इस पद को लोकपाल से बाहर रखने का भी है। स्पष्ट है कि संसद को इस मुद्दे पर बहस करते समय इस सवाल का जवाब देना होगा कि यदि भ्रष्टाचार के तार प्रधानमंत्री या उनके कार्यालय से जुड़ते हैं तो क्या होगा? ध्यान रहे कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की आंच प्रधानमंत्री कार्यालय तक पहुंची थी। देश के राजनीतिक तंत्र में भ्रष्टाचार इतनी बुरी तरह घर कर गया है कि उसे दूर करना आसान नहीं। वर्तमान में जब राजनीतिक एवं प्रशासनिक तंत्र का भ्रष्टाचार के बगैर चल पाना नामुमकिन सा लगता है तब उसे दूर करने के लिए जैसे साहस की जरूरत है वह केंद्र सरकार में नजर नहीं आता। साहस शीर्ष पर बैठे नेताओं को दिखाना होता है। वे जैसा करते हैं वैसा ही उनकी सरकार करती है। यदि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार से लड़ने की ठान लें तो पूरे तंत्र में यह संदेश अपने आप चला जाएगा कि भ्रष्ट तत्वों को सहन नहीं करना है। लोकपाल को लेकर अन्ना हजारे ने पहली बार अप्रैल में और दूसरी बार अगस्त में जो अनशन-आंदोलन किए उनसे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जागरूकता का स्तर बढ़ा है, लेकिन यह कहना कठिन है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर रवैया अपना लिया है। यह तय है कि भ्रष्टाचार अकेले लोकपाल से दूर नहीं होगा। इसके लिए राजनीतिक प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन भी आवश्यक है। सभी दल यह तो मानते हैं कि चुनावों में धनबल का इस्तेमाल होता है और यह धन भ्रष्टाचार से आता है, लेकिन उस पर रोक लगाने के लिए वे कोई पहल करने को तैयार नहीं। यदि देश के सभी दल सर्वसम्मति से यह बीड़ा उठा लें कि मजबूत लोकपाल बनाने के साथ चुनावों में धन का दुरुपयोग रोकने की भी व्यवस्था बनेगी और साथ ही चुनाव बाद समर्थन हासिल करने के लिए होने वाली खरीद-फरोख्त को भी रोका जाएगा तो राजनीतिक तंत्र को कहीं आसानी से भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल सकती है। नेताओं को यह याद रखना चाहिए कि रैलियों और सभाओं में भ्रष्टाचार पर घडि़यालू आंसू बहाते रहने से बात बनने वाली नहीं है। एक दिन के लिए फिर से धरने पर बैठ रहे अन्ना हजारे इस समय भारत की जनता के आंखों के तारे बने हुए हैं। आम लोग जानते हैं कि अन्ना अपने लिए ही नहीं देश के लिए लड़ रहे हैं। अगर देश के नेताओं को अपनी साख बनाकर रखनी है तो उन्हें जल्द ही ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे जनता यह भरोसा कर सके कि वे भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कटिबद्ध हैं।
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रामायण के कुपाठ की जिद

रामायण पर एके रामानुजन के लेख को दिल्ली विवि के पाठ्यक्रम में फिर शामिल करने की कोशिश को अनुचित ठहरा रहे हैं एस. शंकर

पहले मेनी रामायन्स और अब थ्री हंडरेड रामायण! क्या कारण है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर एवं अन्य अनेक बुद्धिजीवी केवल रामायण के भिन्न कथन पढ़ाने की जिद करते रहे हैं? वे कुरान के बारे में भिन्न ऐतिहासिक विवरण, व्याख्या पढ़ाने का विचार नहीं करते। कुरान के बारे में भिन्न ऐतिहासिक व्याख्याएं विश्व-प्रसिद्ध शोधकर्ताओं ने दी हैं। उनमें अनेक मुस्लिम प्रोफेसर ही हैं। जबकि रामायण के बारे में भिन्न कथन का सारा दावा सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है। उस पर कोई ऐतिहासिक शोध नहीं है। इसका सबसे ठोस प्रमाण स्वयं एके रामानुजन का वह निबंध ही है, जिसे अभी दिल्ली विश्वविद्यालय की इतिहास पाठ्य-सूची से हटाया गया और जिसे बनाए रखने के लिए सारे वामपंथी नारेबाजी कर रहे हैं। एके रामानुजन स्वयं न इतिहासकार थे, न संस्कृत विद्वान। उनके निबंध में भी इस दावे का कोई प्रमाण नहीं कि वाल्मीकि की कथा रामायण की कई कथाओं की तरह एक कथा है और इसे मूल रचना नहीं कहा जा सकता। यह निबंध कुछ कथ्य, किंवदंतियों तथा सुनी-सुनाई बातों का स्वैच्छिक मिश्रण है। उसका कोई अकादमिक मूल्य नहीं हो सकता, क्योंकि इतिहास की सामग्री श्चोत-प्रमाणित होती है। फिर भी पढ़ाने के लिए उस निबंध का चयन वामपंथी प्रोफेसरों ने इसलिए किया ताकि एक महान हिंदू ग्रंथ पर कीचड़ उछाला जा सके। अत: स्वाभाविक है कि उस निबंध के पाठ्य-सूची से हटने पर वे विद्वत-तर्क देने के बदले हटाने वालों पर ही कीचड़ उछाल रहे हैं। यदि उस निबंध में इतिहास कहलाने लायक श्चोत-सामग्री होती, तो वामपंथी इतिहासकारों ने विशेष रुचि लेकर उसे विस्तारित करने और करवाने का काम किया होता। यही शोध कार्य विश्वविद्यालयों में होता है। किंतु हमारे वामपंथी लंबे समय से दो विदेशी लेखकों पौला रिचमैन, वेंडी डौनीजर और एक रामानुजन पर ही क्यों टिके रहे? इसीलिए कि उनके कुत्सित निष्कर्षो को पुष्ट करने के लिए कोई ठोस ऐतिहासिक सामग्री नहीं है। किंतु चूंकि यह निष्कर्ष हिंदू-विरोधी राजनीति को पसंद हैं, इसलिए उसी निबंध को पाठ्यक्रम में रखकर वामपंथी अपना काम निकालते रहना चाहते हैं। रामानुजन लिखित इस निबंध में दावा है कि वाल्मीकि रामायण के मूल रचयिता नहीं थे, और कई रामायण हैं जिनमें भिन्न कथन हैं। यानी वाल्मीकि से भिन्न। जैसे, सीता रावण की बेटी थी, लक्ष्मण की सीता पर कुदृष्टि थी, आदि। इसलिए संयोग नहीं कि जो प्रोफेसर इस निबंध को पाठ्यक्रम में रखना चाहते हैं, इसके लिए कोई विद्वत तर्क नहीं देते। एक ओर वे वाइस चांसलर को गणित प्रोफेसर होने के कारण इतिहास विषय को न समझने का संकेत करते हैं, पर दूसरी ओर साफ छिपाते हैं कि रामानुजन भी कोई इतिहासकार नहीं थे। तब उनके ही तर्क से पाठ्यक्रम में इस निबंध को रखने का कारण संदिग्ध हो जाता है। इसे इसीलिए रखा गया था ताकि विद्यार्थियों में रामायण के प्रति उपहास का भाव पैदा हो। हुआ केवल इतना है कि उस निबंध को स्तरहीन मानकर पाठ्यक्रम से हटाया गया है। हटाने का काम भी विश्वविद्यालय की विद्वत-परिषद ने ही किया। इस लेख को पाठ्यक्रम में फिर से शामिल करने वाले प्रोफेसरों से कुरान के बारे में पूछ कर देख लें। ऐतिहासिक दृष्टि से कुरान रामायण से बाद की रचना है। एक विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक और अधिक प्रभावशाली, सामयिक भी। वर्तमान प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि कुरान की ऐतिहासिकता संबंधी कई विद्वानों के विविध कथन वास्तव में मौजूद हैं। इस पर दर्जनों अकादमिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। कुरान पर पुस्तक लिखने वाले विद्वानों में कई मुस्लिम भी हैं जो मुस्लिम देशों और यूरोपीय विश्वविद्यालयों में प्रतिष्ठित पदों पर रहे हैं। क्या हमारे इतिहास प्रोफेसर कुरान के बारे में विविध कथनों को पाठ्य-सामग्री में लेने में रुचि दिखाएंगे? कुरान के बारे में ये विविध कथन कोई सुनी-सुनाई या गल्प कथा नहीं, बल्कि प्रामाणिक दस्तावेजों और पुरातात्विक खोजों पर आधारित विद्वत शोध है। अत: रामायण और कुरान के प्रति हमारे इतिहास प्रोफेसरों की दृष्टि की तुलना प्रासंगिक है। वे वाल्मीकि रामायण को धार्मिक पुस्तक मानते हैं या ऐतिहासिक? यदि यह ऐतिहासिक पुस्तक है, तो क्या कारण है कि इसे किसी पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया गया? पर यदि रामायण को वे धार्मिक पुस्तक मानते हैं, तब क्यों इसके बारे में ऊल-जुलूल टिप्पणियों को खोज-खोज कर पढ़ाने की जिद ठानते है? रामायण के बारे में अन्य कथन के नाम पर केवल गंदगी जमा की गई है, यह कोई भी देख सकता है। वह भी अप्रमाणिक। अन्य कथन के अंतर्गत कोई अन्य कथा नहीं दी गई, केवल विचित्र, अपमानजनक और स्वयं रामानुजन के शब्दों में धक्का पहुंचाने वाली टिप्पणियां एकत्र की गई हैं। इस प्रकार, रामायण के बारे में वैसी चुनी या गढ़ी अन्योक्तियां पढ़ाने का पूरा मकसद ही है धक्का पहुंचाना। किस को धक्का पहुंचाना? इस प्रकार, दिल्ली वाले वामपंथी प्रोफेसर वाल्मीकि रामायण को धार्मिक और साहित्यिक, दोनों ही मानते हैं। मगर दोनों स्थितियों में केवल उसकी हेठी करने के लिए! रामायण धार्मिक है, इसलिए वे उसे अपने सेक्यूलर पाठ्यक्रम में नहीं रख सकते! पर जब हिंदू देवी-देवताओं के बारे में कुत्सा फैलानी हो तो वही रामायण उनके लिए साहित्यिक रचना हो जाती है। इसी उद्देश्य से रामानुजन का निबंध पाठ्य-सूची में रखा गया था। अन्यथा उस में कोई साहित्यिक, ऐतिहासिक या विद्वत मूल्य नहीं है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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Friday, September 2, 2011

गांधीजी वाली गलती

टीम अन्ना को बुखारी जैसे नेताओं को महत्व देने के बजाय सामान्य मुस्लिम जनता के विवेक पर भरोसा करने की सलाह दे रहे हैं एस। शंकर

दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम बुखारी ने अन्ना के आंदोलन को इस्लाम विरोधी बताया, क्योंकि इसमें वंदे मातरम और भारत माता की जय जैसे नारे लग रहे थे। उन्होंने मुसलमानों को अन्ना के आंदोलन से दूर रहने को कहा। ऐसी बात वह पहले दौर में भी कह चुके हैं, जिसके बाद अन्ना ने अपने मंच से भारत माता वाला चित्र हटा दिया था। दूसरी बार इस बयान के बाद अन्ना के सहयोगी अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी बुखारी से मिल कर उन्हें स्पष्टीकरण देने गए। इन प्रयत्नों में ठीक वही गलती है जो गांधीजी ने बार-बार करते हुए देश को विभाजन तक पहुंचा दिया। जब मुस्लिम जनता समेत पूरा देश स्वत: अन्ना को समर्थन दे रहा है तब एक कट्टर इस्लामी नेता को संतुष्ट करने के लिए उससे मिलने जाना नि:संदेह एक गलत कदम था। अन्ना का आंदोलन अभी लंबा चलने वाला है। यदि इस्लामी आपत्तियों पर यही रुख रहा तो आगे क्या होगा, इसका अनुमान कठिन नहीं। बुखारी कई मांगें रखेंगे, जिन्हें कमोबेश मानने का प्रयत्न किया जाएगा। इससे बुखारी साहब का महत्व बढ़ेगा, फिर वह कुछ और चाहेंगे। बाबासाहब अंबेडकर ने बिलकुल सटीक कहा था कि मुस्लिम नेताओं की मांगें हनुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ती जाती हैं। अन्ना, बेदी और केजरीवाल या तो उस त्रासद इतिहास से अनभिज्ञ हैं या अपनी लोकप्रियता और भलमनसाहत पर उन्हें अतिवादी विश्वास है, किंतु यह एक घातक मृग-मरीचिका है। बुखारी का पूरा बयान ध्यान से देखें। वह अन्ना के आंदोलन को समर्थन देने के लिए और शतरें के साथ-साथ आंदोलन में सांप्रदायिकता के सवाल को भी जोड़ने की मांग कर रहे हैं। इसी से स्पष्ट है कि उन्हें भ्रष्टाचार के विरोध में चल रहे आंदोलन को समर्थन देने की नहीं, बल्कि आंदोलन को इस्लामी बनाने, मोड़ने की फिक्र है। यदि इतने खुले संकेत के बाद भी अन्ना और केजरीवाल गांधीजी वाली दुराशा में चले जाएं तो खुदा खैर करे! जहां एक जिद्दी, कठोर, विजातीय किस्म की राजनीति की बिसात बिछी है वहां ऐसे नेता ज्ञान-चर्चा करने जाते हैं। मानो मौलाना को कोई गलतफहमी हो गई है, जो शुद्ध हृदय के समझाने से दूर हो जाएगी। जहां गांधीजी जैसे सत्य-सेवा-निष्ठ सज्जन विफल हुए वहां फिर वही रास्ता अपनाना दोहरी भयंकर भूल है। कहने का अर्थ यह नहीं कि मुस्लिम जनता की परवाह नहीं करनी चाहिए, बल्कि यह कि मुस्लिम जनता और उनके राजनीतिक नेताओं में भेद करना जरूरी है। मुस्लिम जनता तो अपने आप में हिंदू जनता की तरह ही है। अपने अनुभव और अवलोकन से आश्वस्त होकर वह भी अच्छे और सच्चाई भरे लोगों और प्रयासों को समर्थन देती है। बशर्ते उसके नेता इसमें बाधा न डालें। रामलीला मैदान और देश भर में मुस्लिम भी अन्ना के पक्ष में बोलते रहे, किंतु मुस्लिम नेता दूसरी चीज होते हैं। वे हर प्रसंग को इस्लामी तान पर खींचने की जिद करते हैं और इसके लिए कोई दांव लगाने से नहीं चूकते। हालांकि बहुतेरे जानकार इसे समझ कर भी कहते नहीं। उलटे दुराशा में खुशामद और तुष्टीकरण के उसी मार्ग पर जा गिरते हैं जिस मार्ग पर सैकड़ों भले-सच्चे नेता, समाजसेवी और रचनाकार राह भटक चुके हैं। इस्लामी नेता उन्हें समर्थन के सपने दिखाते और राह से भटकाते हुए अंत में कहीं का नहीं छोड़ते। बुखारी ने वही चारा डाला था और अन्ना की टीम ने कांटा पकड़ भी लिया। आखिर अन्ना टीम ने देश भर के मुस्लिम प्रतिनिधियों में ठीक बुखारी जैसे इस्लामवादी राजनीतिक को महत्व देकर और क्या किया? वह भी तब जबकि मुस्लिम स्वत: उनके आंदोलन को समर्थन दे ही रहे थे। एक बार बुखारी को महत्व देकर अब वे उनकी क्रमिक मांगें सुनने, मानने से बच नहीं सकते, क्योंकि ऐसा करते ही मुस्लिमों की उपेक्षा का आरोप उन पर लगाया जाएगा। बुखारी जैसे नेताओं की मांगे दुनिया पर इस्लामी राज के पहले कभी खत्म नहीं हो सकतीं यही उनका मूलभूत मतवाद है। दुनिया भर के इस्लामी नेताओं, बुद्धिजीवियों की सारी बातें, शिकायतें, मांगें, दलीलें आदि इकट्ठी कर के कभी भी देख लें। मूल मतवाद बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा। रामलीला मैदान में वंदे मातरम के नारे लगने के कारण बुखारी साहब भ्रष्टाचार विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन से नहीं जुड़ना चाहते, यह कपटी दलील है। सच तो यह है कि सामान्य मुस्लिम भारत माता की जय और वंदे मातरम सुनते हुए ही इसमें आ रहे थे। वे इसे सहजता से लेते हैं कि हिंदुओं से भरे देश में किसी भी व्यापक आंदोलन की भाषा, प्रतीक और भाव-भूमि हिंदू होगी ही जैसे किसी मुस्लिम देश में मुस्लिम प्रतीकों और ईसाई देश में ईसाई प्रतीकों के सहारे व्यक्त होगी। लेकिन इसी से वह किसी अन्य धमरंवलंबी के विरुद्ध नहीं हो जाती। 1926 में श्रीअरविंद ने कहा था कि गांधीजी ने मुस्लिम नेताओं को जीतने की अपनी चाह को एक झख बना कर बहुत बुरा किया। पिछले सौ साल के कटु अनुभव को देख कर भी अन्ना की टीम को फिर वही भूल करने से बचना चाहिए। उन्हें सामान्य मुस्लिम जनता के विवेक पर भरोसा करना चाहिए और उनकी ठेकेदारी करने वालों को महत्व नहीं देना चाहिए। यदि वे देश-हित का काम अडिग होकर करते रहेंगे तो इस्लामवादियों, मिशनरियों की आपत्तियां समय के साथ अपने आप बेपर्दा हो जाएंगी। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=49&category=&articleid=111720093369017640

कांग्रेस के तीन तिगाड़े

अन्ना आंदोलन से निपटने में सरकार की फजीहत का जिम्मेदार कांग्रेस नेताओं के दंभ को बता रहे हैं ए। सूर्यप्रकाश

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान संप्रग सरकार की साख पर लगा बट्टा और इसकी दयनीय दशा के जिम्मेदार वे तीन वकील से राजनेता बने व्यक्ति हैं, जिन्होंने बड़े दंभ से लोकतांत्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन किया और राष्ट्रव्यापी आक्रोश को भड़काया। ये तीनों अकसर टीवी चैनलों पर उग्र तेवरों के साथ दिखाई देते रहे हैं। अगर अगस्त के उत्तरार्ध में सरकार में शामिल लोग सिरकटे मुर्गो की तरह इधर-उधर दौड़ रहे थे, तो इसका कारण था सत्तारूढ़ गठबंधन के टीवी शेरों- कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम और मनीष तिवारी के कारनामे। पिछले एक साल के दौरान एक के बाद एक घोटाले उजागर होने के बावजूद सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी और इसने किसी भी भ्रष्टाचारी के खिलाफ कार्रवाई करने की इच्छा नहीं दिखाई। अगर पूर्व संचार मंत्री ए राजा और राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी जेल में गए तो इसका श्रेय उच्चतम न्यायालय की कड़ी निगरानी को जाता है। सरकार घोटालेबाजों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रही थी और ये तीनों नेता भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार की निष्कि्रयता का बचाव करते फिर रहे थे। हैरत की बात यह है कि शुरू से ही मनमोहन सिंह और उनके साथी बड़ी ढिठाई से अपना काम करते रहे जैसे इन घटनाओं का सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि अगला लोकसभा चुनाव मई 2014 में होना है। भ्रष्टाचार को लेकर राष्ट्रीय आक्रोश के संदर्भ में सरकार और कांग्रेस पार्टी के गलत आकलन का यही एक कारण है। अगस्त 2010 से देश का मूड बदलने लगा था जब राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार की खबरें आनी शुरू हुई थीं। भ्रष्टाचार के साथ-साथ समय पर परियोजनाएं पूरी न होने से पूरे विश्व में भारत की भद पिटी थी। अभी लोग राष्ट्रमंडल घोटाले को हजम भी नहीं कर पाए थे कि 2जी स्पेक्ट्रम का पिटारा खुल गया। जब नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया कि तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा ने राष्ट्रीय खजाने को 1।76 लाख करोड़ रुपये की चपत लगा दी है तो लोगों को जबरदस्त झटका लगा। फिर भी सरकार बड़ी निर्लज्जता से घोटाले से ही इनकार करती रही। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर अनेक कांग्रेसी नेताओं ने दलील दी कि भ्रष्टाचार के इन आरोपों को बढ़ाचढ़ाकर पेश किया गया है। इन्होंने हैरानी जताई कि मीडिया इन मुद्दों को इतना तूल क्यों दे रहा है। कपिल सिब्बल जैसे कुछ मंत्रियों ने जो समाचार चैनलों के स्टुडियो में बैठकर लोकप्रियता के हवाई घोड़े पर सवार हो जाते हैं, बड़े घमंड से न केवल सीएजी जैसे संवैधानिक संस्थानों पर सवाल उठाए, बल्कि मीडिया को भी नहीं बख्शा। कपिल सिब्बल ने हास्यास्पद बयान जारी किया कि 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में सरकारी खजाने को एक पैसे का भी नुकसान नहीं हुआ। यह कहकर उन्होंने इस सिद्धांत को पुष्ट ही किया कि राजनीतिक सत्ता अकसर सच्चाई से कट जाती है। ऐसा उन लोगों के साथ होता है जो मंत्री बनते हैं, किंतु कपिल सिब्बल जिस तेजी से फिसले वह हैरान करने वाला है। जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे के पहले अनशन के बाद कानून मंत्री वीरप्पा मोइली मंत्रियों और सिविल सोसाइटी प्रतिनिधियों की संयुक्त समिति के संयोजक थे, फिर भी मीडिया से बात कपिल सिब्बल ही करते थे। उनकी प्रेस वार्ताओं से स्पष्ट होता गया कि बातचीत सिरे नहीं चढ़ रही है। इस समिति के कुछ सदस्यों ने यहां तक महसूस किया कि कपिल सिब्बल द्वारा खड़े किए गए विवादों के कारण ही समिति किसी सार्थक नतीजे पर नहीं पहुंची। टीम अन्ना के प्रस्तावों पर सरकार को कुछ गंभीर असहमतियां थीं और इनमें कुछ सही भी थीं। उदाहरण के लिए, सरकार प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में नहीं लाना चाहती थी। सरकार के बाहर भी बहुत से लोगों और संस्थानों की यही राय है। किंतु हर कोई चाहता था कि सरकार अन्ना आंदोलन की भावना को समझे और इसकी सराहना करे। दुर्भाग्य से सरकार ने जिन प्रवक्ताओं को चुना, उनमें लोकतांत्रिक तौरतरीकों का अभाव था, जो जनता के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के लिए जरूरी थे। उनकी अपराजेयता की कल्पना कर बहुत से कांग्रेस नेताओं और केंद्रीय मंत्रियों ने अन्ना के प्रस्तावित अनशन से पहले ही उन पर हमला बोल दिया। क्योंकि वे सालभर से ऐसे लोगों का बचाव करने में लगे थे, जो बचाव के काबिल नहीं हैं, इसलिए वे नागरिकों के मूल लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन करते हुए अन्ना हजारे के चरित्र हनन का दुस्साहसिक प्रयास करने में जुट गए। लोगों को मनीष तिवारी का विषवमन कि अन्ना हजारे तो सिर से लेकर पैर तक भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, घिनौना लगा। उन्होंने यहां तक कहा कि अन्ना हजारे के प्रति काफी सहनशीलता दिखाई जा चुकी है। कोई भी राजनेता किसी नागरिक के बारे में इस तरह नहीं बोल सकता। उन्होंने अन्ना टीम को फासीवादी और माओवादी तक करार दिया। इसी के साथ कपिल सिब्बल ने कुटिलता से सरकार को संसद के समान रखते हुए दावा किया कि अन्ना का सत्याग्रह संसद विरोधी है। उन्होंने और उनके साथियों ने दलील रखी कि अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन संविधान के प्रति खतरा है। इन तर्को से इंदिरा गांधी द्वारा जयप्रकाश नारायण के 1974-77 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के खिलाफ लगाए गए आरोपों की याद ताजा हो गई। कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम और मनीष तिवारी को सुनते हुए लगा कि इतिहास खुद को दोहरा रहा है। दिल्ली पुलिस ने अन्ना को अनशन के लिए छोटे पार्क की पेशकश करते हुए 22 शर्ते थोप दीं। फिर पी चिदंबरम ने लोगों को जैसे उकसाते हुए घोषणा की कि अन्ना को सत्याग्रह के लिए स्थान मुहैया कराने के लिए शर्ते लगाना दिल्ली पुलिस का विषय है। केवल वह मंत्री ही ऐसे बयान जारी कर सकता है जो जनता को मूर्ख समझता हो कि वह इस प्रकार की बचकानी दलील पर यकीन कर लेगी। पर जल्द ही हमें पता चल गया कि इन तीनों नेताओं का प्रेरणाश्चोत कौन है। प्रधानमंत्री ने बड़े तिरस्कार के साथ अन्ना को सलाह दी कि वह स्थल और शर्ते तय करने के लिए दिल्ली पुलिस से संपर्क करें। तब 16 अगस्त को पी चिदंबरम ने भयावह घोषणा की कि शांतिभंग के अंदेशे में अन्ना को गिरफ्तार किया गया। आखिरकार, सरकार तब ही हालात पर कुछ काबू कर पाई जब टीवी के इन तीनों शेरों को पिंजरे में बंद कर दिया गया और अपेक्षाकृत गंभीर व संयत नेताओं को टीम अन्ना से बातचीत के लिए आगे किया। इन तीन चेहरों के प्रति जनता की चिढ़ के कारण ही सरकार ने छोटे परदे पर इनकी अनुपस्थिति को सुनिश्चित किया। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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खेल संघों की मनमानी

केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन की यह दलील बिलकुल सही है कि क्रिकेट संघ और विशेष रूप से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की जनता के प्रति जवाबदेही बनती है। यह दयनीय है कि राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक का विरोध इस कुतर्क के जरिये किया जा रहा है कि क्रिकेट संगठनों को सरकार से पैसा नहीं मिलता इसलिए वे सूचना अधिकार के दायरे में आने को बाध्य नहीं। तथ्य यह है कि वे सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाने के साथ आयकर में छूट भी पाते हैं। क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और अन्य खेल संघों ने जिस तरह खेल विकास विधेयक का विरोध किया उससे उनके इरादों पर संदेह होना स्वाभाविक है। सरकार से पैसा पाने वाले खेल संघों को इस विधेयक का विरोध करने का अधिकार इसलिए नहीं, क्योंकि एक तो वे सरकारी अनुदान पाते हैं और दूसरे हर स्तर पर मनमानी भी करते हैं। यदि खेल संघ और उनके पदाधिकारी अपने दायित्वों का निर्वाह सही तरह कर रहे होते तो अंतरराष्ट्रीय खेल जगत में भारत इतना पीछे नहीं होता। यदि केंद्रीय खेल मंत्री यह चाहते हैं कि खेल संघों के पदाधिकारी आजीवन अपने पदों पर न बने रहें तो इसमें कुछ भी अनुचित नहीं। इस मामले में अंतरराष्ट्रीय नियम-कानूनों की आड़ में छिपने का कोई मतलब नहीं। यह अच्छा नहीं हुआ कि कैबिनेट में खेल विकास विधेयक पर चर्चा शरद पवार, सीपी जोशी, फारूक अब्दुल्ला सरीखे मंत्रियों की मौजूदगी में हुई। अच्छा होता कि प्रधानमंत्री यह सुनिश्चित करते कि इस विधेयक पर चर्चा के दौरान खेल संघों से जुड़े मंत्री अनुपस्थित रहते। अगर खेल विधेयक को लेकर मंत्रियों का कोई समूह गठित होता है तो उसमें खेल संघों से जुड़े मंत्रियों के लिए जगह नहीं होनी चाहिए, अन्यथा नीर-क्षीर ढंग से फैसला होने के बजाय हितों का टकराव होगा। खेल मंत्री को क्रिकेट संगठनों एवं अन्य खेल संघों के काम-काज को पारदर्शिता के दायरे में लाने के साथ यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इन संगठनों की स्वायत्तता बनी रहे। खेल विकास विधेयक के जरिये खेल संघों पर सरकार का नियंत्रण नहीं होना चाहिए, क्योंकि सभी जानते हैं कि सरकारी हस्तक्षेप के कारण ही भारतीय हाकी दुर्दशा से ग्रस्त है। दरअसल इस मामले में बीच का रास्ता निकालने की जरूरत है, जिससे खेल संघ सरकारी हस्तक्षेप से बचे रहें और साथ ही स्वायत्तता के नाम पर मनमानी भी न करने पाएं। उन्हें अपनी ही चलाने की छूट नहीं दी जा सकती, क्योंकि यह जग जाहिर है कि राष्ट्रमंडल खेलों में घपलेबाजी खेल संघों की मनमानी का ही दुष्परिणाम है। अपनी ही चलाने की छूट क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड एवं अन्य क्रिकेट संगठनों को भी नहीं मिलनी चाहिए। नि:संदेह क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड इस खेल को नई ऊंचाइयों पर ले गया है, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि उसके आय-व्यय के तौर-तरीकों के बारे में जनता को कुछ पता नहीं। जब क्रिकेट प्रशासकों की मनमानी से टीम खराब प्रदर्शन करती है तो देश का नाम भी खराब होता है और इस नाते आम जनता को उनसे सवाल-जवाब करने का अधिकार है। सभी खेल संघों का नियमन इसलिए समय की मांग है, क्योंकि खेलों के प्रति युवाओं का रुझान बढ़ाने की जरूरत है। इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि युवाओं की ऊर्जा खेलों में खपे। इससे न केवल युवाशक्ति को दिशा मिलेगी, बल्कि देश का बेहतर निर्माण भी होगा।
साभार:-दैनिक जागरण
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भ्रष्टाचार का दायरा

अन्ना हजारे के आंदोलन का मकसद इस अर्थ में पूरा हो गया कि भ्रष्टाचार के विरोध में राष्ट्रीय चेतना बनी। वैसे लोग भी मैं अन्ना हूं् मुद्रित टोपी पहन कर घूम रहे हैं जो जनलोकपाल विधेयक के बारे में शायद ही कुछ जानते हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनता में इतना व्यापक आक्रोश है, इसका अनुमान सरकार को नहीं था, किंतु अन्ना की उंगलियां जनता की नब्ज पर थीं। संघर्ष तथा आंदोलन का व्यापक अनुभव उनके पास था। इसलिए बाबा रामदेव की तरह वह गिरफ्तारी से भयभीत नहीं हुए। बाबा रामदेव ने जहां नैतिक दुर्बलता का परिचय दिया वहीं अन्ना ने नैतिक साहस दिखाया, किंतु अन्ना के साथ भी एक संकट है कि वे कुछ व्यक्तियों द्वारा बंदी बना दिए गए हैं और उन्हें किसी से न तो बात करने और न ही मिलने दिया जाता है। अन्ना की टीम द्वारा पेश विधेयक में न सिर्फ निजी क्षेत्र को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा गया है, बल्कि उनकी टीम के सदस्य सरकारी विधेयक में गैर-सरकारी संगठन को शामिल किए जाने का भी विरोध कर रहे हैं। प्रशांत भूषण एक टीवी चैनल पर एक बहस के बीच कह रहे थे कि कारपोरेट सेक्टर को लोकपाल के दायरे में इसलिए शामिल नहीं किया जा सकता, क्योंकि भ्रष्टाचार की परिभाषा निजी लाभ के लिए सरकारी पद का दुरुपयोग है, किंतु परिस्थितियां बदलने पर कानून में संशोधन की आवश्यकता होती है। आज आर्थिक उदारीकरण के जमाने में निजी क्षेत्रों की भूमिका इस कदर बढ़ गई है कि स्वास्थ्य सेवाओं से लेकर शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए आम आदमी को निजी क्षेत्र की शरण में जाना पड़ रहा है। कारपोरेट अस्पतालों में लोगों को इस तरह लूटा जा रहा है कि मामूली बीमारियों में भी लाखों का बिल बनता है और कई बार तो परिजनों को शव सौंपने के लिए बकाए लाखों रुपये के भुगतान की शर्त रखी जाती है। इसी तरह निजी विद्यालयों की ट्यूशन फीस एवं अन्य मदों में मोटी रकम वसूली जाती है और कई बार तो प्रवेश के लिए मोटी रिश्वत देनी पड़ती है। अगर निजी क्षेत्र को बाहर रखने का तर्क यह है कि उसके लिए अलग कानून हैं तो फिर सरकारी भ्रष्टाचार के नियंत्रण के लिए भी भ्रष्टाचार निरोधक कानून है। एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि मंत्रियों एवं सरकारी पदाधिकारियों को भ्रष्ट करने में कारपोरेट सेक्टर की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भ्रष्टाचार की क्या परिभाषा हो, इस पर पूरे विश्व में कोई मतैक्य नहीं है। कई विद्वान इस मत के हैं कि इसे परिभाषित करने का प्रयास निरर्थक है। इसलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन 2003 में भ्रष्टाचार शब्द तो कई जगह आया है, किंतु इसे कहीं परिभाषित नहीं किया गया है। हालांकि इसमें घूसखोरी, मनी लांड्रिंग, सत्ता के दुरुपयोग एवं हेराफेरी को भ्रष्टाचार की श्रेणी में रखा गया, इससे बहुराष्ट्रीय निगमों, व्यापारिक घरानों एवं गैर-सरकारी संगठनों जैसे निजी क्षेत्रों का बाहर रखा गया है। इसे बाहर रखने के पीछे मुख्य तर्क यह दिया जाता है कि सरकारी भ्रष्टाचार शासन के लिए चुनौती पैदा करता है और न्याय तक जनता की पहुंच को रोकता है, जिससे मानवाधिकार प्रभावित होता है, जबकि निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार से यह खतरा पैदा नहीं होता। इसके विपरीत एशियाई विकास बैंक ने भ्रष्टाचार में निजी क्षेत्रों की भूमिका को भी पहचाना है। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए इसने कई कार्यक्रम बनाए हैं। 1998 से ही इसकी भ्रष्टाचार विरोधी नीति में यह स्पष्ट किया गया है कि एक संस्था के रूप में वह उस बोझ को कम करना चाहती है जो एशिया-प्रशांत क्षेत्र की सरकारों एवं अर्थव्यवस्थाओं में भ्रष्टाचार के कारण पैदा होता है। विश्व बैंक के विपरीत एशियाई विकास बैंक ने निजी क्षेत्र को भ्रष्टाचार से लड़ने में शामिल किया है। इसलिए इसके अनुसार, भ्रष्टाचार सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों के अधिकारियों का वह व्यवहार है जिसमें वे अनुचित तथा अवैध तरीके से धनार्जन करते हैं तथा/या वे लोग जो उनके निकट हैं, उन्हें लाभ पहुंचाते हैं या अपने पद के दुरुपयोग से दूसरों को ऐसा करने के लिए प्रलोभन देते हैं। यह भ्रष्टाचार की ज्यादा समावेशी परिभाषा है। आज निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इसके लिए कानून में आवश्यक संशोधन करने होंगे। साथ ही सरकारी भ्रष्टाचार में भी ऊंचे तथा नीचे पदों के विरुद्ध कार्रवाई का प्रावधान भेदभावपूर्ण है। बडे़ अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई में सबसे बड़ी बाधा है अपराध प्रक्रिया विधान अर्थात सीआरपीसी की धारा 197 तथा भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा 19। अंग्रेजों के द्वारा बनाए गए कानून में जो भेदभाव किया गया था वह स्वाधीन भारत में अभी भी लागू है। भ्रष्टाचार निरोधक कानून के संदर्भ में केंद्र सरकार ने एकल निर्देश जारी किया था, जिसके अनुसार संयुक्त सचिव एवं उससे ऊपर के अधिकारियों के विरुद्ध मुकदमा बिना पूर्वानुमति के नहीं चलाया जाएगा। उच्चतम न्यायालय ने इसे विनीत नारायण मामले में खारिज कर दिया, किंतु संसद ने इसे कानून बनाकर बहाल कर दिया। इसके अलावा यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कोई अधिकारी यदि अपना काम न करे और इससे किसी को नुकसान होता है या उसके प्रति अन्याय होता है तो इसे षड्यंत्र मानकर भ्रष्टाचार के आरोप में उसे दंडित किया जाना चाहिए। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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संविधान की आड़ में राजनीति

गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति को मोदी दुर्ग को ढहाने की कांग्रेस की कोशिश के रूप में देख रहे हैं प्रदीप सिंह

पिछले करीब एक दशक में गुजरात राजनीति, सांप्रदायिकता, विकास, केंद्र-राज्य संबंध और न जाने किन-किन विषयों की प्रयोगशाला बन गया है। यह राज्य भारतीय जनता पार्टी का ऐसा अभेद्य किला बन गया है जिसे ढहाने के लिए कांग्रेस नए-नए प्रयोग करती रहती है। लोकायुक्त की नियुक्ति कांग्रेस के इसी प्रयोग का हिस्सा है। कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि 2002 के गुजरात दंगों के बाद से उसने नरेंद्र मोदी पर जब भी हमला किया है वह और ताकतवर होकर उभरे हैं। राजभवन का इस्तेमाल अपनी राजनीति के लिए करना कांग्रेस की पुरानी आदत है। राज्यपाल अगर चुनाव जिता सकते तो कांग्रेस किसी राज्य में कभी न हारती। लेकिन मौजूदा विवाद देश के दोनों राष्ट्रीय दलों की राजनीतिक शैली पर सवाल खड़े करता है। गुजरात में पिछले सात साल से कोई लोकायुक्त नहीं है। यह सुशासन का दावा करने वाली नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए कोई गर्व की बात तो नहीं ही हो सकती। नरेंद्र मोदी देश के उन थोड़े से मुख्यमंत्रियों में हैं जिन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है। फिर उनके राज्य में लोकायुक्त क्यों नहीं है, यह न केवल मुख्यमंत्री बल्कि भारतीय जनता पार्टी को भी सोचना चाहिए। गुजरात के लोकायुक्त कानून के मुताबिक राज्य हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए नाम की सिफारिश करते हैं और राज्यपाल मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता से राय-मशविरा करने के बाद फैसला करते हैं। मुख्य न्यायाधीश ने हाईकोर्ट के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश आरए मेहता के नाम की सिफारिश की। राज्य सरकार ने इस नाम पर आपत्ति जताई। मोदी सरकार का कहना था कि मेहता राज्य सरकार के खिलाफ कई प्रदर्शनों में शिरकत कर चुके हैं। जो व्यक्ति पहले से ही राज्य सरकार के खिलाफ हो उससे निष्पक्षता की उम्मीद कैसे की जा सकती है। मुख्य न्यायाधीश ने सरकार के इस एतराज को खारिज कर दिया। उसके बाद राज्यपाल कमला बेनीवाल ने एक दिन अचानक आरए मेहता की नियुक्ति की घोषणा कर दी। राज्य सरकार राज्यपाल की इस कार्रवाई को संविधान विरोधी बताते हुए इसके खिलाफ अदालत चली गई है। मंगलवार को भाजपा ने संसद के दोनों सदनों में इस मामले को उठाया और सदन की कार्यवाही नहीं चलने दी। इस मामले में दोनों पक्षों के अपने तर्क हैं। कांग्रेस और केंद्र सरकार गुजरात के लोकायुक्त कानून के प्रावधानों का हवाला देकर राज्यपाल के फैसले को सही बता रही है। उसका कहना है कि इस कानून में मुख्यमंत्री या मंत्रिपरिषद से मंत्रणा करने की कोई व्यवस्था नहीं है। भाजपा का तर्क है कि राज्यपाल कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करने के लिए संवैधानिक रूप से बाध्य हैं। यह भी सच है कि राज्यपाल मौजूदा कानून के रहते 2003 तक (गुजरात में लोकायुक्त कानून 1986 में बना था) लोकायुक्त की नियुक्ति में मुख्यमंत्री से मशविरा करते रहे हैं। राज्यपाल, केंद्र सरकार और कांग्रेस एक ही पाले में खड़े हैं। कानून और संविधान के नजरिए से किसका पक्ष सही है और किसका गलत यह तो अब अदालत तय करेगी। लेकिन एक सवाल का जवाब तो केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी को देना पड़ेगा। संसद इस समय लोकपाल विधेयक का प्रारूप तय कर रही है। क्या उसमें ऐसी व्यवस्था होगी कि लोकपाल की नियुक्ति में प्रधानमंत्री या केंद्रीय मंत्रिपरिषद से कोई सलाह नहीं ली जाएगी। क्या ऐसे किसी प्रावधान की मांग को कांग्रेस पार्टी स्वीकार करेगी। क्या सरकार लोकपाल कानून में ऐसी व्यवस्था से सहमत होगी जो लोकपाल की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति को दे। जाहिर है कि कांग्रेस ऐसी किसी व्यवस्था के लिए तैयार नहीं होगी। पार्टी और उसकी सरकार को पता है कि एक चुनी हुई सरकार के रहते हुए उसकी उपेक्षा करके राज्य में इस तरह की नियुक्ति का देश के संघीय ढांचे पर क्या असर पड़ेगा। इसके बावजूद अगर वह ऐसा कर रही है तो सिर्फ इसलिए कि राजनीतिक रूप से उसे फायदेमंद नजर आता है। दरअसल नियम-कानून, संविधान और परंपरा तो बहाना हैं। कांग्रेस और केंद्र सरकार के कुछ मंत्री नरेंद्र मोदी को घेरना चाहते हैं। कांग्रेस कभी सोनिया गांधी से उन्हें मौत का सौदागर कहलवाती है तो कभी राहुल गांधी को उनके मुकाबले उतारती है। राज्य में इतने बड़े सांप्रदायिक दंगे के बावजूद गुजरात की जनता मोदी के खिलाफ कुछ सुनने को तैयार ही नहीं है। भाजपा और संघ परिवार में मोदी विरोधियों की मदद करके और भाजपा से निकले शंकर सिंह वाघेला को मोदी के मुकाबले पार्टी की कमान सौंपकर भी आजमा चुकी है। राजनीति के मैदान में सारे उपाय करके कांग्रेस देख चुकी है। कोई उपाय काम नहीं कर रहा। इसीलिए केंद्र सरकार ने राज्यपाल कमला बेनीवाल के कंधे का इस्तेमाल किया है। कांग्रेस द्वारा राज्यपालों के राजनीतिक इस्तेमाल का रामलाल ठाकुर, बूटा सिंह, हंसराज भारद्वाज और अब कमला बेनीवाल तक लंबा इतिहास है। कांग्रेस के हर हमले को नरेंद्र मोदी एक अवसर में बदल देते हैं और उसका मुकाबला चुनौती समझकर करते हैं। अब तक वह ऐसा हर मुकाबला जीतते रहे हैं। मोदी अदालत के फैसले का इंतजार करने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने युद्ध की घोषणा कर दी है। भाजपा की राज्य इकाई ने पूरे प्रदेश में राज्यपाल को वापस बुलाने के लिए आंदोलन का ऐलान कर दिया है। राज्य सरकार विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाने जा रही है। गुजरात विधानसभा के इतिहास में यह पहला मौका होगा जब राज्यपाल के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आएगा। मोदी के खिलाफ एक आरोप भाजपा के पूर्व नेता राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के मुखिया गोविंदाचार्य ने लगाया है। उनका आरोप है कि नरेंद्र मोदी सत्ता का केंद्रीयकरण कर रहे हैं। यह ऐसा आरोप है जिससे भाजपा के बहुत से नेता सहमत होंगे पर सार्वजनिक रूप से कोई बोलने को तैयार नहीं है। क्या गुजरात में पिछले सात साल से कोई लोकायुक्त इसीलिए नहीं है कि मुख्यमंत्री नहीं चाहते कि उनकी सत्ता को चुनौती देने वाली कोई संस्था हो। पार्टी और संघ परिवार में तो उन्हें निर्देश देने की स्थिति में कोई नहीं है। राज्यपाल कमला बेनीवाल के इस कदम के पीछे केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी खड़ी है और नरेंद्र मोदी जो करने जा रहे हैं उसके साथ भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व। इस टकराव को रोकने के लिए किसी ओर से कोई पहल होती नहीं दिख रही है। मोदी यह लड़ाई हार गए तो कांग्रेस के लिए यह बड़ी मनोवैज्ञानिक विजय होगी। लेकिन और यह लेकिन बहुत बड़ा है, मोदी जीत गए तो? क्या कांग्रेस इसके लिए तैयार है? (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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न्यायिक सुधार

न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक के लिए विधि एवं न्याय मामलों की स्थायी समिति की सिफारिशें सामने आने के बाद देखना यह है कि उन्हें किस हद तक स्वीकृति मिलती है? यह प्रश्न इसलिए, क्योंकि कुछ सिफारिशें व्यापक बहस की मांग करती हैं। स्थायी समिति के अनुसार न्यायाधीशों को फैसले से पहले टिप्पणियां करने से रोकने की जरूरत है। पहली नजर में यह सिफारिश सही नजर आती है, क्योंकि कई बार न्यायाधीशों की टिप्पणियों से जो कुछ ध्वनित होता है वह उनके फैसले में नजर नहीं आता। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब न्यायाधीशों को अपनी टिप्पणियों के आधार पर छपी खबरों और उनके कारण समाज में निर्मित हुई धारणा को लेकर स्पष्टीकरण देना पड़ा है, लेकिन यदि ऐसे प्रसंगों के चलते स्थायी समिति यह चाहती है कि न्यायाधीश फैसले से पहले टिप्पणी ही न करें तो इससे मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। यह संभव नहीं कि न्यायाधीश चुपचाप सुनवाई करते रहें। वादी-प्रतिवादी की ओर से दलीलें देते समय कई बार ऐसे मौके आते हैं जब न्यायाधीशों के लिए टिप्पणी करना आवश्यक हो जाता है। बेहतर होगा कि स्थायी समिति की इस सिफारिश के संदर्भ में खुद न्यायाधीशों से विचार-विमर्श किया जाए ताकि ऐसा कोई रास्ता निकाला जा सके जिससे फैसले के पहले की उनकी टिप्पणियों से भिन्न निष्कर्ष न निकले। वैसे भी स्थायी समिति का उक्त सुझाव कुछ ऐसा संकेत कर रहा है जैसे न्यायाधीशों पर अनावश्यक अंकुश लगाने की कोशिश हो रही है। हालांकि समिति के अध्यक्ष ने इस संदर्भ में सफाई दी है, लेकिन उससे सब कुछ स्पष्ट नहीं होता। विधि एवं न्याय मंत्रालय की स्थायी समिति ने न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक के लिए जो अन्य सिफारिशें की हैं उन पर अमल समय की मांग है, क्योंकि एक ओर जहां न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर सवाल उठ रहे हैं वहीं दूसरी ओर आम जनता को यह संदेश भी जा रहा है कि भ्रष्ट न्यायाधीशों के खिलाफ कार्रवाई करना टेढ़ी खीर हो गया है। यह ठीक नहीं कि न्यायाधीशों की नियुक्ति वे खुद करें। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में न्यायपालिका के बाहर के लोगों को शामिल करने से पक्षपात की आशंका से भी निजात मिलेगी और पारदर्शिता भी बढ़ेगी। नि:संदेह यह भी समय की मांग है कि न्यायाधीशों के लिए संपत्ति की घोषणा का कोई प्रभावी तंत्र बने और साथ ही उनके खिलाफ शिकायतों की सुनवाई भी नीर-क्षीर ढंग से हो। यह समय बताएगा कि न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक कब तक कानून का रूप ले सकेगा और वह उन सभी समस्याओं का समाधान कर सकेगा या नहीं जिनसे आज न्यायपालिका दो-चार है, लेकिन संसद और सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस विधेयक का उद्देश्य न्यायिक तंत्र में पारदर्शिता लाने के साथ-साथ उसे और सक्षम बनाना ही होना चाहिए, न कि न्यायिक सक्रियता पर अंकुश लगाना। न्यायिक सुधारों के नाम पर ऐसा कुछ भी नहीं होना चाहिए जिससे न्यायपालिका की स्वायत्तता पर अंकुश लगे। अब जब न्यायिक सुधारों का चक्र आगे बढ़ता नजर आ रहा है तब फिर सरकार को यह भी देखना होगा कि अन्य क्षेत्रों में सुधार में और देरी न हो। उसे इसकी अनुभूति होनी ही चाहिए कि राजनीतिक और प्रशासनिक सुधारों में देरी से खुद उसकी और देश की भी समस्याएं बढ़ रही हैं।
साभार:-दैनिक जागरण
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समाज के आगे सिमटती सियासत

भारतीय राजनीति को इतना खौफजदा, बदहवास और चिढ़ा हुआ पहले कब देखा था? सियासत तो यही माने बैठी थी कि सारे पुण्य-परिवर्तनों के लिए राजनीतिक दल जरूरी हैं और देश की अगुआई का पट्टा सिर्फ सियासी पार्टियों के नाम लिखा है, मगर स्वयंसेवी संगठनों (सिविल सोसाइटी) के पीछे सड़क पर आए लाखों लोगों ने भारत की राजनीतिक मुख्यधारा को कोने में टिका दिया। अन्ना के आंदोलन से सियासत को काठ मार गया और नेता ग्यारह दिन बाद संसद में ही बोल पाए। संसद की बहस क्या, सियासत की बेचैनी की बेजोड़ नुमाइश थी। हर नेता मानो कह देना चाहता था कि यह अचानक क्या हो गया, जनादेश की ताकत तो उनके पास है। लीक में बंधी और जड़ों से उखड़ी राजनीति एक गैर-राजनीतिक आंदोलन के साथ जनसमर्थन देखकर भौंचक थी। अन्ना के आंदोलन ने राजनीति की पारंपरिक डिजाइन को सिर के बल खड़ा कर दिया है। नेताओं और राजनीतिक चिंतकों को अपने चश्मों से धूल पोंछ लेनी चाहिए। इस आंदोलन के दौरान तर्क उभरे थे कि अन्ना हजारे बदलाव चाहते हैं तो उन्हें चुनाव जीतकर संसद में आना चाहिए अर्थात बदलाव के लिए सत्ता हथियाना जरूरी है, मगर पूरी दुनिया में सिविल सोसाइटी की सियासत तो सत्ता बदले बिना व्यवस्था बदलने पर ही आधारित है। जनता को यह नई सूझ समझ में भी आती है, क्योंकि दशकों से लोकशाही देख रहे लोग संसदीय लोकतंत्र के पैटर्न से वाकिफ हैं जहां राजनीतिक दल सिर्फ सत्ता के लिए लड़ते हैं। बड़े बदलावों की मुहिम के लिए संसदीय लोकतंत्र अनिवार्य हैं, मगर तेज परिवर्तन के लिए, कुर्सी लपकने और कुर्सी खींचने के इस बोरियत भरे खेल से बाहर निकलना जरूरी है। सिविल सोसाइटी ने लोगों की इस ऊब को पकड़ा और उन मुद्दों पर मुहिम शुरू की, राजनीतिक दल जिन्हें छूना ही नहीं चाहते। नागरिक अधिकारों, न्याय और सामाजिक विकास की दुनियावी लड़ाई, सियासी दल नहीं छोटे-बड़े स्वयंसेवी संगठन लड़ते हैं। इसलिए यह गैर राजनीतिक और गैर सरकारी मोर्चा पूरी दुनिया में लोगों को भा रहा है। भारत की सियासत से दो टूक सवाल पूछे जा सकते हैं। हमारे यहां लोगों को साक्षर व शिक्षित बनाने की लड़ाई कौन सी पार्टी लड़ रही है। पीडि़तों को न्याय दिलाने की मुहिम किसके हाथ है। पर्यावरण बचाने में कौन सा सियासी दल आगे है। आदिवासी हितों की जंग किस राजनीतिक दल के एजेंडे पर है। आम लोग किसी भी मुद्दे में राहुल गांधी की अचानक इंट्री से प्रभावित नहीं होते। उन्हें मालूम है कि निजी कंपनी के खिलाफ नियामगिरी के आदिवासियों की लड़ाई स्वयंसेवी संगठनों ने लड़ी और सुप्रीम कोर्ट से न्याय लिया। दिल्ली की आबोहवा को सियासत ने नहीं स्वयंसेवी संगठनों की मुहिम ने दुरुस्त किया। कोई सियासी पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं लड़ती। भारत में राजनीतिक दल विकास व न्याय के मुद्दों पर संसद में कायदे से चर्चा भी नहीं करते। इसलिए जनता को यह राजनीति चिढ़ाती है और जब उन्हें सियासत में भ्रष्टाचार भी दिखता है तो यह चिढ़ गुस्से में बदल जाती है। लोकपाल पर बहस के दौरान स्वयंसेवी संगठनों को बिसूर रहे नेता कुछ अंतरराष्ट्रीय सच्चाइयों को नकार रहे थे। आर्थिक उदारीकरण के बाद दुनिया ग्लोबल गवर्नेस की तरफ मुड़ी है। डब्लूटीओ, ओईसीडी, विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र, आसियान, आइएमएफ, एडीबी, जी20 जैसे संगठन हर देश की नीतियों को प्रभावित करते हैं। यह बहुपक्षीय संस्थाएं राजनीतिक दलों को नहीं, बल्कि सिविल सोसाइटी को हमसफर बना रही हैं, क्योंकि सियासत सत्ता से बाहर नहीं सोच ही नहीं सकती। सीधी लड़ाई से लेकर सरकारों को प्रभावित करने और छोटे-छोटे मुद़दों को ग्लोबल मंचों तक ले जाने में सक्षम सिविल सोसाइटी दुनिया की राजनीति का नया चेहरा है, जो भारत की परंपरा व परिवारवादी सियासत को नहीं दिखता। बर्न डिक्लेयरेशन (स्विस स्वयंसेवी संगठन समूह) और शेरपा (अफ्रीकी एनजीओ) नाइजीरिया, अंगोला, कांगो, सिएरा लियोन, गैबन के भ्रष्ट शासकों की लूट को स्विस व फ्रेंच बैंकों से निकलवाकर वापस इन देशों की जनता तक पहुंचा देते हैं। वीगो व एसडीआइ जैसे संगठन भारत के घरों में काम करने वाली महिलाओं और झुग्गी बस्ती वालों का दर्द दुनिया के मंचों तक ले जाते हैं। इसी असर व कनेक्ट के चलते नई राजनीति पारंपरिक राजनीति पर भारी पड़ रही है। भारत की सियासत आज भी महानायकों के खुमार में है। आजादी के बाद के राजनीतिक दशक भले ही करिश्माई व्यक्तित्वों ने गढ़े हों, लेकिन अब जनता के पास तजुर्बे हैं, जो करिश्मों पर भारी पड़ते हैं। अन्ना का आंदोलन अलग इसलिए था, क्योंकि अन्ना कतई गैर करिश्माई स्वयंसेवी हैं, उन्होंने लोगों को नहीं जोड़ा, बल्कि लोग खुद उनसे जुड़ गए है। स्वयंसेवी संगठनों में भ्रष्टाचार के सवाल छोटे नहीं है, लेकिन उनके बहाने बदलाव को नकारना खुद को धोखा देना है। हमारे नेताओं को रेत से सिर निकाल कर इस नई सियासत का मर्म समझना चाहिए। स्वयंसेवी संगठन उनकी पारंपरिक जमीन पर ही उग रहे हैं, क्योंकि उनकी उंगलियां जनता की नब्ज से फिसल गई हैं। एक असंगत चुनाव व्यवस्था के सहारे संसद तक पहुंचना अलग घटना है और जनता के भरोसे पर राजनीति करना एक दूसरा ही परिदृश्य है। अन्ना के आंदोलन ने देश की सियासत को जनादेश और जनसमर्थन का फर्क कायदे से समझा दिया है। भारत के सियासी दल उम्मीदों की राजनीति में बुरी तरह असफल हैं। (लेखक दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख हैं)

साभार:-दैनिक जागरण

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चुनाव सुधारों पर नई बहस

एक सक्षम और कारगर लोकपाल के लिए अनशन पर बैठकर देश को हिला देने वाले अन्ना हजारे की इस गर्जना पर हलचल मचनी ही थी कि अब अन्य अनेक समस्याओं के साथ चुनाव सुधार भी उनके एजेंडे पर होंगे। यह उचित ही है कि चुनाव सुधारों के संदर्भ में उनकी ओर से उठाए गए मुद्दों पर बहस शुरू हो गई है। यह बहस गति पकड़नी चाहिए, क्योंकि भ्रष्टाचार के मूल में खर्चीली होती चुनावी राजनीति है। यह एक तथ्य है कि बड़ी संख्या में उम्मीदवार चुनाव लड़ने के लिए तय राशि से कहीं अधिक धन खर्च करते हैं। अब तो मतदाताओं के बीच रुपये बांटकर चुनाव जीतने की कोशिश की जाने लगी है। आम तौर पर यह धन अवैध तरीके से अर्जित किया जाता है। दरअसल इसी कारण कालेधन के कारोबार पर अंकुश लगाने के लिए कोई ठोस पहल नहीं हो रही है। चुनाव प्रक्रिया को काले धन से मुक्त करने के लिए तरह-तरह के सुझाव सामने आ चुके हैं। इनमें से एक सुझाव यह है कि चुनाव खर्च का वहन सरकारी कोष से हो। अभी हाल में राहुल गांधी ने भी यही सुझाव दिया, लेकिन निर्वाचन आयोग को भय है कि इससे समस्या और विकराल हो जाएगी। मुख्य चुनाव आयुक्त इस सुझाव को इसलिए खतरनाक विचार मानते हैं, क्योंकि उन्हें आशंका है कि तब उम्मीदवार सरकारी कोष से मिले धन के साथ-साथ अपने धन का भी इस्तेमाल करेंगे। इस आशंका को निराधार नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह भी एक वास्तविकता है कि चुनाव खर्च की सीमा में प्रस्तावित वृद्धि भी समस्या का समाधान करती नहीं दिखती। चुनाव सुधार के अन्य अनेक मुद्दों पर भी अलग-अलग राजनीतिक दलों और विशेषज्ञों के भिन्न-भिन्न विचार हैं। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने और उम्मीदवारी खारिज करने के मामले में दोनों राष्ट्रीय दलों-कांग्रेस और भाजपा के विचार अलग-अलग हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति अन्य अनेक मुद्दों पर भी है। इन स्थितियों में बेहतर यह होगा कि चुनाव सुधारों को लेकर जो बहस शुरू हुई है उसे गति प्रदान की जाए ताकि उसे अंजाम तक पहुंचाया जा सके। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि एक लंबे अर्से से चुनाव सुधार अटके पड़े हुए हैं। नि:संदेह इसके लिए राजनीतिक दल ही जिम्मेदार हैं। वे उन मुद्दों पर भी एक मत नहीं हो पा रहे हैं जो अपेक्षाकृत कम जटिल हैं। चुनाव आयोग एक अर्से से यह मांग कर रहा है कि जिन लोगों के खिलाफ अदालत ने आरोप तय कर दिए हैं उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति न दी जाए, लेकिन राजनीतिक दल इसके लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। वे प्रत्याशियों के चयन में मतदाताओं को किसी तरह की भागीदारी देने के लिए तैयार नहीं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल चुनाव सुधारों के संदर्भ में आम सहमति कायम न करने पर सहमत हैं। चुनाव सुधारों के संदर्भ में अंतहीन खोखली चर्चा का कोई मतलब नहीं। बेहतर हो कि राजनीतिक दल मौजूदा माहौल को समझें और चुनाव सुधारों की दिशा में आगे बढ़ें, क्योंकि भ्रष्टाचार की तरह से आम जनता इसे भी लंबे अर्से तक सहन करने वाली नहीं कि देश को दिशा देने वाली राजनीति अनुचित साधनों पर आश्रित हो। जब राजनीति ही साफ-सुथरी नहीं होगी तो फिर वह देश का भला कैसे कर सकेगी?
साभार:-दैनिक जागरण
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बहरेपन का बढि़या इलाज

जब ट्यूनीशिया, मिश्च और कुछ अन्य अरब देशों के लोग अपने-अपने यहां की व्यवस्था से आजिज आकर सड़कों पर उतरे तो दुनिया के साथ-साथ भारत भी हैरत से यह देख और सोच रहा था कि क्या ऐसा ही कुछ उसके यहां हो सकता है? जब अन्ना हजारे अप्रैल में जंतर-मंतर पर धरने पर बैठे और उनके समर्थकों की भारी भीड़ उमड़ी तो कई लोग खुद को यह कहने से नहीं रोक पाए कि जंतर-मंतर तहरीर चौक बन गया है। जब अन्ना गिरफ्तार होने के बाद रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे और उनके समर्थन में देश भर में लोग एकजुट हो गए तो किसी को याद नहीं रहा कि अरब देशों में क्या और कैसे हुआ था, लेकिन 16 अगस्त से लेकर 27 अगस्त तक दिल्ली और शेष देश में जो कुछ हुआ वह अगर क्रांति नहीं तो उसके असर से कम भी नहीं। गांधी के देश में क्रांति का ऐसा ही स्वरूप हो सकता था। व्यवस्था परिवर्तन की यह पहल देश में एक नए जागरण की सूचक है। इसे सारी दुनिया ने महसूस किया। वह चकित और चमत्कृत है तो भारत के लोग एक नए अहसास से भरे हुए हैं। यह तब है जब यथार्थ के धरातल पर कुछ भी नहीं बदला। लोगों को सिर्फ संसद का यह संदेश मिला है कि वह एक कारगर लोकपाल बनाने के लिए अन्ना के तीन बिंदुओं पर सिद्धांतत: सहमत है। इस सबके बावजूद बहुत कुछ बदल गया है। सबसे बड़ा बदलाव यह है कि राजनीतिक नेतृत्व को यह समझ में आ गया कि वह जनता के सवालों का सामना करते समय संसद की आड़ में नहीं छिप सकता। देश ने यह अच्छी तरह देख लिया कि राजनीतिक नेतृत्व जानबूझकर बहरा बना हुआ था। उसने यह भी देखा कि कारगर लोकपाल के सवाल पर पहले सरकार ने संसद की आड़ ली और फिर विपक्ष भी उसके साथ हो लिया। इसी कारण अन्ना के आंदोलन पर बुलाई गई सर्वदलीय बैठक नाकाम हो गई। संसद ने देश को सिर्फ यह भरोसा दिया है कि वह लोकपाल कानून में अन्ना की ओर से उठाए गए तीन बिंदुओं को यथासंभव समाहित करेगी, लेकिन कुछ नेताओं और दलों की ओर से ऐसी प्रतीति कराई जा रही है जैसे संसद से कोई गैर कानूनी काम जबरन करा लिया गया। यदि संसद वैसा प्रस्ताव पारित नहीं कर सकती जैसा 26 अगस्त को पारित किया गया तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि वह जन भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती है? अन्ना के आंदोलन को खारिज करने के लिए राजनीतिक और गैर-राजनीतिक लोगों की ओर से तरह-तरह के कुतर्क दिए गए। किसी ने कहा कि अन्ना का आंदोलन केवल मध्यवर्ग के लोगों का आंदोलन है। क्या मध्यवर्ग इस देश का हिस्सा नहीं? क्या वह अवांछित-अराजक तबका है? किसी ने यह सवाल उछाला कि अन्ना अन्य मुद्दों पर क्यों नहीं बोल रहे? क्या सरकार या संसद ने अन्ना को यह जिम्मेदारी सौंप रखी है कि वह सभी ज्वलंत मुद्दों पर समान रूप से ध्यान देंगे? यदि सभी मुद्दों पर बोलने की जिम्मेदारी अन्ना की है तो राजनीतिक दल किसलिए हैं? कुछ लोगों ने कहा कि अन्ना की कोर कमेटी में दलित-पिछड़े नहीं हैं। क्या कांग्रेस और अन्य सभी दलों की कोर कमेटियों में दलित-पिछड़े हैं? किसी ने कहा अन्ना गांधीवादी नहीं हैं, क्योंकि गांधीजी अपनी बात मनवाने के लिए अनशन नहीं करते थे। तथ्य यह है कि गांधीजी ने अपने जीवनकाल में कई बार अपनी न्यायसंगत बातें मनवाने के लिए ही अनशन किए। जिस मामले को 42 साल से टाला जा रहा हो उसे और टलते हुए देखकर यदि अन्ना अनशन पर बैठ गए तो यह कोई अपराध नहीं। अन्ना के आंदोलन को यह कहकर भी खारिज करने की कोशिश की गई कि ओमपुरी, किरण बेदी ने तो नेताओं पर कुछ ओछे आरोप लगाए ही, आंदोलनकारियों ने भी उनके खिलाफ भद्दे नारे लगाए। नि:संदेह ये आरोप और नारे अरुचिकर थे और उनकी आलोचना उचित है, लेकिन क्या मुद्दा यह था कि अन्ना समर्थक लोग नेताओं के प्रति कैसे नारे लगा रहे हैं? अन्ना की पहल को खारिज करने का काम राहुल गांधी ने भी किया। उन्होंने जिस तरह गलत समय पर अपने सही सुझाव रखे उससे देश को गहरी निराशा तो हुई ही, प्रधानमंत्री की पहल भी खटाई में पड़ती दिखी। आखिर वह अपने सुझाव अपनी ही सरकार को तब क्यों नहीं दे सके जब लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार हो रहा था? बेहतर होता कि टीम अन्ना अपने आलोचकों के प्रति सहिष्णु होती, क्योंकि ऐसा नहीं है कि अन्ना के आंदोलन में कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे असहमत न हुआ जा सकता हो। उन्होंने अपनी मांग सामने रखने के साथ ही जिस तरह समय सीमा तय कर दी वह उनके आंदोलन का अलोकतांत्रिक पक्ष था। हालांकि उनके समर्थकों का तर्क है कि यदि वह ऐसा नहीं करते तो शायद सरकार एक बार फिर उन्हें धोखा देती। पता नहीं ऐसा होता या नहीं, लेकिन यह तथ्य है कि संसद से पारित किए जाने वाले प्रस्ताव को आखिरी समय तक कमजोर करने की कोशिश की गई। यदि अन्ना की ओर से अपनी मांगों के संदर्भ में समय सीमा तय करने के बावजूद जनता उनके समर्थन में उतर आई तो इसका मतलब है कि उसे सरकार की नीयत पर भरोसा नहीं रह गया था। अब इस भरोसे की बहाली होनी चाहिए। सत्तापक्ष के साथ-साथ विपक्ष के लिए भी यह आवश्यक है कि वह जानबूझकर ऊंचा सुनने की प्रवृत्ति छोड़े, क्योंकि जनता को इस मर्ज का इलाज पता चल गया है। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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